
महाभारत का एक ऐसा ही रूप मुझे प्राप्त हुआ है। आप अपनी अज्ञानतावश कह सकते हैं कि यह स्वरूप सत्य नहीं है परंतु मैं अपनी ‘ज्ञानतावश’ कहूंगा कि यही सही है। आप चाहें तो इस विषय पर संसद में चर्चा करवा लें, काम रोको प्रस्ताव पेश कर दें, ससंद ही भंग करवा दें अथवा अन्ना-आंदोलन करवा दें। जनता पर कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। जनता मोमजामा हो गई है। संसद में आपके इन समस्त प्रजातांत्रिक ‘अधिकारों’ के सुप्रयोग के टी वी पर प्रसारण को देखकर भारतीय जनता निश्चित कर चुकी है कि यह प्रजातांत्रिक नौटंकियां टरने वाली नहीं हैं। आप तो जानते ही हैं कि भ्रष्टाचार के संबंध में भी वह निश्चित कर चुकी है कि सूरज टरे चंद्र टरे टरे न भ्रष्टाचंद्र। आप तो प्रसन्न ही होंगें ये सब देखकर। आप तो चाहते ही हैं कि जनता मान ले कि आप और आपके सहोदर भ्रष्टाचार जी लाईलाज कोढ़ की बीमारी हैं जिससे जनता दूर ही रहे तो अच्छा है। जनता दूर रहे और आप इसके सामीप्य का सुख उठाते रहें।
खैर, मुझे महाभारत के एक संस्करण में निम्नलिखित प्रसंग मिला है। यह विषय शोधकर्ताओं के लिए शोध का, टी वी वालों के लिए जुगाली का और स्तंभ लेखकों के लिए स्तंभित लेखन का हो सकता है। आप से अनुरोध है कि जाकि रही भावना जैसी प्रभु मूरति देखी तिन तैसी के अनुसार इसका प्रयोग करें। इस कथा को सुनने से प्रजातंत्र के प्रति अनावश्यक मोह गायब हो जाता है और स्वयं को कठपुतली होने का बोध होता है।
अथ गांधारी युग कथा
धृतराष्ट्र उद्विग्न-से अपने कक्ष में संजय की प्रतीक्षा कर रहे थे। बहुत दिनों से वे देख रहे थे कि संजय उनके पास आने से बच रहे हैं। आ भी जाते है तो आंखों देखा हाल सुनाने से बचते हैं। संजय कभी हाल सुनाते भी हैं तो लगता है जैसे संपादित अंश सुना रहे हों। धृतराष्ट्र ने अनेक बार सोचा कि वे संजय को उसकी हरकतों के लिए सवाल करें, उसे डांटे पर यह सोचकर रुक गए कि यदि संजय ने त्यागपत्र दे दिया तो...। तो, वे तो बिल्कुल अंधे ही हो जाऐगें। आजकल के सेवकों में सहनशीलता रह कहां गई है। अच्छे सेवक बड़ी कठिनाई से मिलते हैं। तनिक-सा क्रोध दिखाओं तो आंखें दिखाने लगते हैं और नौकरी छोड़ने की धमकी देते हैं। इनके दिमाग बहुत चढ़ गए हैं।
पर आज धृतराष्ट्र आज पूरे मूड में हैं कि वे संजय से सवाल अवश्य करेंगें। अगर सवालों से संजय रुष्ट हो गए तो महाराज उसे पुराने संबंधों का वास्ता देकर, उसके गुणों की प्रशंसा कर, कुछ ईनाम -इकराम आदि द्वारा मना लेंगें। संजय में अभी भी पुराने नैतिक मूल्य विद्यमान हैं और धृतराष्ट्र को उनके आधार पर सेवकों का भावनात्मक शोषण करना अच्छी तरह आता है। ऐसे में धृतराष्ट्र बेचारे-से, किसी निरीह प्राणी-से हो जातें है जिसपर किसी को भी दया आ जाए। उनका तो चेहरा है ही ऐसा जो दूसरे की दया और करुणा को निरंतर अपनी ओर आकर्षित करता रहता है। और वाणी, वाणी ऐसी मद्धम कि सन्नाटे की आवाज को भी सुनने का दावा करने वालों को भी हियरिंग एड लगाकर सुननी पड़े।
ऐसे सर्वगुण संपन्न धृतराष्ट्र आज बेसब्री से संजय की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
संजय को अनेक बुलावे आ चुके थे इसलिए वे भी आ रहे थे और निंरतर इस बात का ध्यान भी रख रहे थे कि वे उनका हर कदम को सूंघने वाले कुत्तों से सावधान रहे।
संजय की पदचाप को धृतराष्ट्र बखूबी पहचानते थे। धृतराष्ट्र उन पदचापों को भी पहचानते थे जो लगती तो संजय जैसी थीं पर थीं नहीं और धृतराष्ट्र के कौन कहने पर मौन हो जाया करती थीं। आज भी संजय की असली पदचाप को धृतराष्ट्र ने सुना तो प्रसन्न हो गए। पदचाप के निकट आने पर धृतराष्ट्र ने कहा - आओ संजय, मेरे पास बैठो। आज मेर मन बहुत उद्विग्न है,तुम तो मेरे बहुत ही पुराने और विश्वसनीय मित्र जैसे हो, मेरे पास बैठो।’
- नहीं महाराज, मैं अपने स्थान पर ही उचित हूं।’
- संजय, मुझे तुमसे कुछ गुप्त बात करनी है, प्रहरी से कहो की द्वार बंद कर दे और सांकल लगा दे।
- महाराज, मैंने आपको बताया ही था कि सांकलें तोड़ दी गई हैं और द्वार बंद नहीं होते हैं।
- अभी तक ठीक नहीं हुईं तुमने किसी से कहा नहीं कि इस द्वार को ठीक...
- महाराज, ठीक तो वह होता है जो स्वयं बिगड़े पर जिसे दूसरे ने बिगाड़ा हो उसे... महाराज, मैंनें रानी गांधारी के कार्यालय में प्रार्थना पत्र भिजवा दिया था।
- गांधारी के कार्यालय में क्यों ?
- आजकल समस्त आदेश वहीं से आते हैं। आप भी जिन आदेशों पर हस्ताक्षर करते हैं, वे भी वहीं से आते हैं। आपको संभवतः ज्ञात ही होगा महाराज।
धृतराष्ट्र के पास हूं के अतिरिक्त कुछ कहने और विवशता में हाथ मलने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था। कुछ क्षण सहज होकर धृतराष्ट्र ने कहा- संजय यह तो कह कि इस समय मेरे प्रिय साले, शकुनि जी क्या कर रहे हैं?
संजय- क्षमा करें महाराज, उसका वर्णन मैं नहीं कर पउंगा।
धृतराष्ट्र- क्यों संजय, क्या तुम्हारी दिव्य दृष्टि में दोष आ गाया है?
संजय- प्रभु मेरी दृष्टि तो वही है पर कुछ क्षेत्रों का वर्णन मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं रहा है।
धृतराष्ट्र- यानि कि कुछ क्षेत्रों की जानकारी मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं रही है।’ धृतराष्ट्र उद्विगन हो गए।
धृतराष्ट्र बहुत दिनों से उद्विग्न ही हैं और आगे आने वाले दिनों में भी उनके उद्विग्न रहने की प्रबल संभावनाएं हैं। मौसम की यही भविष्यवाणी है।
जब से युवराज दुर्योधन एंड पार्टी अत्यधिक सक्रिय हुई है एवं युद्ध अवश्यंभावी हुआ है और महाराज के रूप में धृतराष्ट्र के दायित्व बढ़े हैं, या कहें कि सही मायने में वे ‘महाराज’ हुए है तब से उन्हें लगता है कि जैसे वे रसोई घर के महाराज होकर रह गए हैं। क्या पकना है, कैसे पकना है, कहां पकना है, क्यों नहीं पकना है आदि निर्णयों के वे मात्र पालनकर्ता हैं। उन्हें लगता है कि उनकी स्थिति त्रेता के पादुका- शासक भरत से भी बदतर हो गई है। भरत चाहे पादुका शासक थे पर उनके पादुकादाता तो उनसे कोसों दूर अपनी ही परेशानियों में इतने घिरे थे कि उन्हें अयोध्या की ओर सर उठाकर देखने के भी फुरसत नहीं थी, पर यहां तो अब यह लगने लगा है कि हर क्षण न केवल उनके हर कार्य का निरीक्षण परीक्षण किया जा रहा है अपितु उनकी असहायता की खिल्ली भी उड़ाई जा रही हैं। धृतराष्ट्र अपने अंधत्व से उतने पीडि़त नहीं हैं जितना अपनी खिल्ली उड़ाते बाणों से आहत होते हैं। उनकी विवशता ये है कि खिल्ली उड़ाने वालों को उत्तर देने के लिए वे ‘महाराज’ का पद भी नहीं छोड़ सकते हैं। पद तो तभी छोड़ पाएंगें जब सही समय आएगा। धृतराष्ट्र सही समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे ये भी जानते हैं कि गांधारी, शकुनि समेत सभी उनके ‘प्रिय’ सही समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। और सही समय तब आएगा जब युवराज दुर्योधन शासन संभालेंगें।
धृतराष्ट्र इतने भी अंधे नहीं हैं कि यह न जाने कि ये सब उनको ढाल बनाकर महाभारत का युद्ध लड़ना चाहते हैं जिससे जीतने पर दुर्योधन की जय जयकार कर सकें और पराजित होने पर धृतराष्ट्र की घोर निंदा कर सकें।
संजय ने कहा - महाराज दुर्योधन और शकुनि की व्यवस्था में मैं अशक्त हो गया हूं। मैं जहां भी अपनी दिव्य दृष्टि को प्रेषित करता हूं उसका मार्ग दृष्टि बाधक यंत्र रोक लेते हैं। अनेक बार मुझे लगता है कि मेरी जैसी अनेक छायाएं मेरे चारों ओर विचरण कर रही हैं। महाराज मैंनें आपका और हस्तिनापुर का नमक खाया है और आपके प्रति प्रतिबद्ध हूं परंतु जैसे सशक्त पुत्र के समक्ष अशक्त पिता विवश होता है, नंगे के सामने ईश्वर भी विवश होता है, अनैतिकता के समक्ष नैतिकता विवश होती है, द्रौपदी चीर-हरण पर बुजुर्ग पीढ़ी विवश थी तथा धनवान के समक्ष न्याय विवश होता है वैसे ही मैं भी विवश हूं।
गांधारी के पास अनेक संजय थे जो विभिन्न क्षेत्रों के प्रभारी थे। संजय एक रनिवास का प्रभारी था जहां कुंति समेत अनेक ‘माताएं ’रहती थीं। संजय दो भीष्म के महल का प्रभारी था। संजय तीन ‘महाराज’ धृतराष्ट्र के मुख्य कक्ष का प्रभारी था। इसी प्रकार द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, आदि महारथियों के विभिन्न क्रमांक के संजय प्रभारी तो थे ही अनेक कौरवों के भी प्रभारी भी थे। कहा जा सकता है कि जैसे एक प्रभु अनेक रूपों में अनेक स्थानों पर पाए जाते हैं वैसे ही संजय नामक ये जीव भी अनेक रूपों में पाया जाता था। जैसे प्रभु का चाहे अनेक रूप में अनेक होने के बावजूद कर्म एक ही होता है-दिव्य दृष्टि से धर्म की हानि को देखना और उसे रोकना, वैसा ही कुछ-कुछ अनेकरूपी संजय का भी कर्म और धर्म होता है।
धृतराष्ट्र जन्मांध थे, उन्होंने सृष्टि का एक ही रूप अपने अनुभव से जाना था- अंधकारी रूप। शेष तो उन्होंने वही जाना था जो उन्हें जताया गया था। परंतु गंधारी ने तो जन्म से लेकर युवावस्था तक सृष्टि के हर रूप और रंग को देखा था। गंाधारी ने तो युवावस्था में बलात् अपनी आंखों में पट्टी बांधकर स्वयं को दृष्टिबाधित किया था। युवावस्था में भविष्य के लिए बाधित दृष्टि बहुत ही खतरनाक होती है। पट्टी के अंदर अनेक स्वप्न होते हैं जिसे वे बाहर के विश्व में साकार करना चाहती है। गांधारी को तो व्यवस्था ने विवश किया था पट्टी बांधने को। पट्टी बंधी थी परंतु वह दृष्टि को बाधा पहुंचाने में सक्षम नहीं थी। सामान्य मनुष्य की तो दो आंखों होती हैं परंतु गांधारी की अनेक संजयों के रूप में इंद्र से भी अधिक आंखें थीं।
गांधारी- युग चहुं ओर पसरा हुआ था।
4 टिप्पणियाँ
जबरदस्त और समसामयिक व्यंग्य पसरे हुए गाँधारी युग पर।
जवाब देंहटाएंबहुत ज़बरदस्त व्यंग्य | गांधारी- युग चहुं ओर पसरा हुआ है |
जवाब देंहटाएंअच्छा व्यंग्य ..बधाई
जवाब देंहटाएंयुवावस्था में भविष्य के लिए बाधित दृष्टि बहुत ही खतरनाक होती है।...
जवाब देंहटाएंकाश यह बात हमारे देश, धर्म और समाज के ठेकेदारों को भी समझ आ सके!
सटीक और धारदार व्यंग्य!
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.