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[ग़ज़ल] - - हिमकर श्याम



परिंदों से सीखी है जीने की अदा 

उम्मीदों के संग जोड़ते रिश्ता नया
परिंदों से सीखी है जीने की अदा

जिधर देखिए, वहीं ग़म के मारे
ढूंढते फिर रहे खुशियों का पता

कौन लिखे बगावत की तहरीर यहां
चंद सिक्कों पे बिक जाते हैं रहनुमा

जिस तरफ देखा नजर आया ख़ला
नजर आता नहीं कहीं कोई रास्ता

न समझा है कोई और न समझेगा
अलग है सियासत का फ़लसफ़ा

अच्छा हुआ जो सबकुछ भूला दिया
इस अहद में फ़ुर्सत किसे जो रखे वास्ता  

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6 टिप्पणियाँ

  1. SAHEE BAHR MEIN GAZAL KAA LIKHAA JAANAA PAHLEE
    SHART HAI . HIMKAR SHYAAM KEE GAZAL KIS BAHR MEIN
    HAI , MATTHA - PACHCHEE KARNE PAR BHEE MUJHE PATAA
    NAHIN CHALAA HAI .

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  2. आदरणीय प्राण शर्मा जी ने ग़ज़ल के मूल रूप की चर्चा की है जिसके बिना कोई रचना ग़ज़ल नहीं कहलाई जा सकती.साहित्य शिल्पी जैसी साहित्यिक पत्रिका के लिए किसी भी रचना को ग़ज़ल कहने से बचना चाहिए. श्याम जी की रचना बहुत भावपूर्ण है और शब्दों का प्रयोग अद्भुत है लेकिन ये रचना ग़ज़ल की श्रेणी में नहीं आती.

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. सच्ची और अच्छी ग़ज़ल ...... बधाई

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