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[लघुकथाएं] - सुबोध श्रीवास्तव




राहत

वह विक्षिप्त सी खड़ी एक ओर आंखें फाड़-फाड़कर देख रही थी। उसका सर्वस्य लुट चुका था। अब उसका इस दुनिया में कोई भी अपना न था। सड़क पर एक ओर उसके पति की जर्जर, मृत देह पड़ी थी। मुहल्ले के कुछ लोग चंदा करके उसके अंतिम संस्कार की तैयारी कर रहे थे। 

उसकी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। कैसे जियेगी अकेली, इतनी बड़ी दुनिया में? क्या करे..? तभी एकाएक उसकी नम आंखें खुशी से चमक उठीं। उसने यह सोचकर राहत की सांस ली कि अब उसे सिर्फ अपने लिए ही रोटी का इंतजाम करना पड़ेगा। सिर्फ अपने लिए....।

*****

सहूलियत

'आज फिर तुम देर से आए....?' फैक्ट्री में कदम रखते ही एक तेज-तर्रार स्वर उसका कलेजा हिला गया। 

मालिक साहब को देखकर वह कुछ संभला फिर बोला, 'सेठजी, कल से ऐसा नहीं होगा। पैदल आता हूं न, इसलिए देर हो जाती है।'

मालिक साहब कुछ पल चुप रहे फिर बोले, 'ठीक है। हम तुम्हें एक साइकिल अपनी ओर से दे देते हैं लेकिन अब देर नहीं होनी चाहिए।'

और दूसरे ही दिन उसे फैक्ट्री की ओर से नयी साइकिल मिल गयी, सेठ का मुंह लगा चपरासी जो था। अब वह पहले से और अधिक देर से फैक्ट्री आने लगा।


***** 

सुकून

सारे घर में कोहराम मचा था। परिवारीजनों की दहाड़ें सबके कलेजे कंपा रहीं थीं। कोई अपनी छाती पीट रहा था, कोई सर पटक रहा था। वह भी जीभरकर रोया। उसका बाप मर गया था।

पूरे घर का पेट बाप की कमाई परही तो चल रहा था। उस पर दोहरी चोट लगी थी। शाम को अर्थी फूंक कर वह घर लौटा। उसका मन अब बहुत हल्का था। लगा जैसे उसकी सारी चिन्ताएं दूर हो गयीं। उसके बाप के दफ्तर के बड़े साहब ने उसे एक हफ्ते बाद नौकरी पर आने को कहा था, बाप की जगह पर....!

***** 

महत्व

मैं अकेला नहीं बैठा था वहां। मेरे अलावा और भी बहुत से छोटे-बड़े लोग उस विशाल बंगले के बैठकनुमा बरामदे में पड़ी कुर्सियों पर बैठे थे।सभी की निगाहें सामने के दरवाजे पर लगीं थीं। 'उनके ' आने का इंतज़ार करते-करते ऊबन सी होने लगी थी।

कुछ लोग आये, जिन्हें सीधे अन्दर जाने दिया गया। यह देख मेरे साथ बैठे कई लोग अन्दर के दरबाज़े पर लपके। 'कहां घुसे जा रहे हो? यहीं बैठो। साहब यहीं आकर सबसे मिलेंगे..। 'दो मजबूत बाहों ने उन्हें परे धकेल दिया। दरवाज़ा एक बार फिर धम्म से अन्दर से बन्द हो गया। तभी एक मोटी सी महिला साधारण से वस्त्रों में वहां आयी।

'खोलो दरवाज़ा..अरे हम हैं हम..। 'कड़कदार स्वर जो आदेशात्मक सा था। 'अच्छा-अच्छा..कमलिया..। आओ-आओ..। 'वहां खड़े व्यक्ति नेबड़े मुस्कराकर दरवाज़ा खोला और वह बेधड़क अन्दर चली गयी। सभी लोग उस बन्द दरवाज़े की ओर ताकते रह गए।

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-सुबोध श्रीवास्तव,
'माडर्न विला', 10/518,
खलासी लाइन्स,कानपुर
(उप्र)-208001.

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