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[श्रद्धांजलि] लोक का चितेरा अब चुप है - विमलेश त्रिपाठी

भगवत रावत अब हमारे बीच नहीं रहे। उनसे मिलने और मिलकर बतियाने की साध अधूरी रह गई। बहुत दिन पहले एक दिन उनका फोन आया। मैं उनका नाम सुनकर सहज विश्वास ही नहीं कर पाया कि वे ही बोल रहे हैं। इससे पहले उनसे कभी बात नहीं हुई थी और मैं इस मुगालते में भी नहीं था कि वे मुझे जानते होंगे। शायद किसी पत्रिका में उन्होंने मेरी कविताएं पढ़ी थीं और तुरंत फोन किया था। मुझे अच्छा लगा। उनसे बात के दौरान ही पता लगा कि वे बीमार चल रहे हैं। बाद में कई कवि मित्रों से उनके बारे में सुना। उनकी कई कविताएं पत्रिकाओं में पढ़ चुका था और उनकी सहजता और लोक के प्रति अनुराग से मैं प्रभावित था। जब भाई अग्निशेखर ने मोबाइल पर संदेश भेज कर सूचना दी कि वे नहीं रहे तो एक झटका लगा। उनसे वादा किया था कि भोपाल आऊंगा तो जरूर मिलूंगा। लेकिन वह वादा अब कभी पूरा नहीं हो सकेगा।

मेरा शुरू से मानना रहा है कि बड़ा कवि वही हो सकता है जिसकी अपनी एक जमीन हो। और उस जमीन पर तो उसके पैर मजबूती से टिके ही हों, साथ ही वह इस दुनिया- जहान को भी अपनी क्रिटिकल आंख से देखने की क्षमता रखता हो। भगवत रावत में यह क्षमता थी। वे अपने लोक के प्रति सजग तो थे ही लोक से इत्तर उनका स्वर भी उतनी ही व्यापकता के साथ मुखर था। उनके लिए कविता और जीवन में बहुत कम अंतर था। उनकी कविताओं से उनको अलगा कर या उनसे उनकी कविताओं को अलगा कर मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। वे वही हैं जो कविता में हैं और जो कविता में है वही भगवत रावत हैं। उनके पास कभी भी अपने कवि या लेखक होने का दंभ नहीं दिखता। लेकिन शब्द उनके लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं, जिसके सहारे वे आदमीयत की खोज में निकले हैं। उनके लिए कविता लिखना जीवन भर उस आदमीयत की खोज ही रहा जिसे हमने इस समय खो दिया है, या निरंतर खोते-भूलते जा रहे हैं। एक कविता में वे लिखते हैं-

रही मेरी बात
तो मैं एक साधारण-सा - आदमी
संयोग से तुम्हारी ही तरह मनुष्यता को
शब्दों में खोजता रहा जीवन भर
उन्हीं के पीछे-पीछे भागता दौड़ता
अब थक-सा गया हूं, पर हारा नहीं हूं
और इस उम्र तक आते-आते
बड़ी मुश्किल से
अपमान, पारजय, असफलता,
संशय, अकेलापन, विफलता
वंचना और करूणा जैसे कुछ शब्द ही खोज पाया हूं
जिनकी अनुभूति में
लगता है कहीं बहुत गहरे में
जाकर छिप गई है मनुष्यता

अब इन शब्दों की आरती तो उतारी नहीं जा सकती
और न इनको महिमा मण्डित कर
उनका गुणगान ही किया जा सकता है
फिर भी मैं अब तक
इन्हीं शब्दों की आंच में
जो भी बन पड़ा बनाता-पकाता रहा हूं
और इन्हीं की ऊर्जा से अपना जीवन चलाता रहा हूं..।                                                                                                                       (अनहद-2, जनवरी, 2012 पृष्ठ 82)

यह कविता कवि की अपनी जीवन दृष्टि की परतें उधेड़ कर रख देती है। कवि के लिए मनुष्यता को बचाने की मुहिम सबसे पहले है। उसके साथ पराजय, वंचना, अपमान आदि सबकुछ है, लेकिन उसने हार नहीं मानी है। यह कविता संकेत करती है कि इस अभागे देश में कवि होना, शब्द को सबकुछ समझते हुए मनुष्यता की लड़ाई लड़ना कितनी तरह की वंचनाओं से गुजरने जैसा है, फिर भी कवि ने हार नहीं पानी है और अंततः वह शब्दों से ही ऊर्जा पाता रहा है।

भगवत रावत की कविता में लोक जीवन गहरे अनुस्युत है। वे बार-बार अपने लोक में लौटते हैं, क्योंकि कविता और मनुष्यता का भी उत्स लोक ही है। वे जब भी समय की मार से घायल होते हैं, उन्हें अपनी जमीन याद आती है, अपना लोक याद आता है, वे बार-बार लोक में लौटते हैं इस दुनिया को संबोधित करने की नई ऊर्जा ग्रहण करने के लिए –

‘देह और आत्मा में जब लगने लगती है दीमक
तो एक दिन दूर छूट गया पुराना खुला आंगन याद आता है
मीठे पानी वाला पुराना कुआँ याद आता है
बचपन के नीम के पेड़ की छाँव याद आती है।‘ 

डॉ. शंभुनाथ लिखते हैं – “कविता की संस्कृति धर्मशास्त्र और राजनीति के समान्यीकरणों का हमेशा अतिक्रमण करती है, क्योंकि उसका मुख्य आधार लोक जीवन है।“ ( वागर्थ, मई, 2012, पृष्ठ 49) आज कविता पर जो आक्षेप लग रहे हैं, वह दरअसल इस कारण है कि उसकी अपनी कोई जमीन नहीं दिखती। आज विदेशी कविताएं पढ़कर कविताएं लिखी जा रही हैं, कविता का स्वर इतना अंतर्मुखी होता जा रहा है कि पाठक और कविता के बीच का गैप और अधिक बढ़ता जा रहा है। कविता लिखते समय कवि संवेदनशील होता है, कविता लिखने के बाद वह उतना ही संवेदनहीन हो जाता है। कविता के साथ पाठक की ही दूरी नहीं बढ़ी, स्वयं कवि की भी दूरी बढ़ी है। शंभुनाथ लिखते हैं – “कविता भले अकेले व्यक्ति की रचना हो, एकांत का कर्म हो, वस्तुतः वह समूची संस्कृति की अभिव्यक्ति है।“ 

भगवत रावत के लिए कविता-कर्म व्यक्तिगत न होकर एक सामूहिक कर्म था। उनकी कविता में उनका लोक बोलता है, लोक संसकृति बोलती है। जाहिर है कि ऐसे समय में भगवत रावत जैसे कवि का जाना हिन्दी साहित्य के लिए एक अपूरणीय क्षति है। एक शब्द शिल्पी लोक का चितेरा अब चुप है और हमें भी कुछ समय के लिए चुप कर 

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bimleshm2001@yahoo.com

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3 टिप्पणियाँ

  1. हद्य और मन के अंत: स्थल पर भागवत रावत जी के जाने के प्रयाण का विषाद तो सदैव रहेगा पर उनकी कविताये हमेशा उन्हे जीवित रखेंगी ।

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  2. आपने बहुत सही लिखा है कि बड़ा कवि वही है जिसकी अपनी जमीन है | भगवत रावत जी की अपनी जमीन पर उनकी कविता की अधिरचना हुई , इसीलिये वह महत्त्व प्राप्त कर सकी | आपका लिखा हुआ अच्छा लगा |

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