मधु अरोड़ा: आपने लेखन की शुरूआत कैसे की और आपके प्रेरणास्त्रोत
कौन रहे?
ज्ञान चतुर्वेदी: मेरे पिता मध्यप्रदेश के गांव में डाक्टर
थे। मैं उस समय चौथी या पांचवीं कक्षा में था। झांसी के पास एक जगह है भांडेर। वहीं से
मेरी पहली रचना छपी यानि कि नौ-दस वर्ष की
उम्र के दौरान। किताबें पढ़ता था तो लगता था कि कुछ लिखूं। लिखने की शुरूआत कविता
से की। अपने एक भाई और एक दोस्त को मिलाकर एक बालसभा बनाई, जहां रचाना सुनानेवाला
सिर्फ मैं था और श्रोता वही पके-पकाए भाई और दोस्त। विभिन्न तुक़बन्दियों से बनी
मेरी पहली कविता 'दैनिक जागरण' के रविवारीय परिशिष्ट में छपी।
मेरे प्रेरणास्त्रोत रहे मेरे नाना
घनश्याम पाण्डे। वे ओरछा के राजकवि थे। मेरे मामाजी बहुत बड़े कवि थे। मेरी
माताजी के अनुसार घर में बैठक हुआ करती थी, जहां मैथिलीशरण गुप्त अक्स़र कविताएं
सुनाया करते थे। मैं जब सातवीं कक्षा में पहुंचा तो पंचवटी पढ़ी और उससे प्रेरणा
लेकर बावन छंदों का खंडकाव्य लिखा। तो इस तरह से मरे लेखन की शुरूआत हुई। जब मैं
ग्यारहवीं में था तो दो जासूसी उपन्यास लिख मारे जिन्हें मेरे रिश्तेदार ने
अपने नाम से छपवा लिये। वहां मैं कहीं नहीं था। यहां तक कि उस रिश्तेदार ने मुझे
बताने की ज़हमत भी नहीं उठाई और वह लेखक बन गया। मैं उम्र के जिस दौर से गुजर रहा
था, उसमें मन में तरह-तरह की बेचैनियां उठना स्वाभाविक था पर मैं उस बेचैनी को
क्रम नहीं दे पा रहा था। इस दौरान कृश्नचंदर को काफी पढ़ा। मेडिकल में जाने से
पहले यानि 1965 में व्यंग्य लेखक परसाईंजी को पढ़ा और इतना अभिभूत हुआ कि तय कर
लिया कि व्यंग्य- विधा को ही अपनाना है। मेरे मित्र अंजनी चौहान ग़जब के व्यंग्यकार
हैं और उनके आग्रह पर 'धर्मयुग' में पहली बार व्यंग्य रचना भेजी और पहली बार में
ही छप गई।
मधु अरोड़ा: पेशे से
डाक्टरी और दिल से रचनाकार के रूप में कार्य करते समय आप किस मानसिकता से गुजरते
हैं?
ज्ञान चतुर्वेदी: देखिये, डाक्टरी एक
ऐसा प्रोफेशन है जहां जीवन के इतने रंग दिखाई देते हैं कि आंखों के सामने से पर्दे
हट जाते हैं। कई बार पति-पत्नी किन्हीं अपरिहार्य कारण से आपस में जो शेयर नहीं
कर पाते उसे वे डाक्टर के साथ खुलकर शेयर कर लेते हैं। बस, शर्त यह है कि डाक्टर
अच्छा हो। अपने प्रोफेशन की वजह से मुझे बहुत ग़हरे तक जि़न्दगी देखने को मिली
है। हां, यदि आपमें संवेदनशीलता है तो यह व्यवसाय आपको अच्छा लेखक बनाता है। यदि
लेखक के तौर पर संवेदनशीलता है तो अंतत: मेरा प्रोफेशन और मेरा लेखन एक-दूसरे के
पूरक हैं न कि परस्पर विरोधी।
मधु अरोड़ा: लेकिन
डाक्टर होने के नाते क्या आपको लेखन के लिये समय मिल पाता है?
ज्ञान चतुर्वेदी: जहां तक समय की बात है तो यह तो आपको
ख़ुद तय करना है। मैंने सामाजिक प्रतिबद्धताएं कम
करके यह समय अपने लेखन को दिया है। एक बात याद रखिये कि जि़न्दगी में प्रमुखताएं
तयकरनी पड़ती हैं। मेरा समय तीन जगह बंटा है- लेखक, प्रोफेशन और परिवार। मेरे लेखन
ने डाक्टर को जनरेट किया है और संवेदनशील होने के नाते मुझे डाक्टरी प्रोफेशन
में फ़ायदा हुआ है। याने संवेदनशील होने से मैं अपने मरीज़ों के मन की बात जान पाता हूं और उससे सही इलाज़
करने में मदद मिलती है।
मधु अरोड़ा: 'बारामासी' उपन्यास किन स्थितियों में लिखा
गया?
ज्ञान चतुर्वेदी: मैं श्रीलाल शुक्ल
का राग-दरबारी पढ़कर अभिभूत हो गया। महसूस हुआ कि यह होता है व्यंग्य।
मैंने अपने दोस्त अंजनी चौहान के साथ मिलकर व्यंग्य उपन्यास लिखने का निर्णय
लिया। अपने प्रोफेशन याने डाक्टर पर उपन्यास लिखने का सोचा। मैंने क़रीब अस्सी
पृष्ठ लिखे और अंजनी ने छ: पृष्ठ लिखकर लिखना बन्द कर दिया। मैंने 1990 में
दोबारा उपन्यास लिखने का सोचा। यह विचार सन् 1994 में 'नरक़-यात्रा' के रूप में
फलीभूत हुआ लेकिन मुझे मज़ा नहीं आया। उस समय क़रीब-क़रीब सब पत्रिकाएं बन्द हो
गई थीं। अख़बारों के कालम में कुछ नया करने की गुंज़ाइश नहीं थी। मैं लंबी व्यंग्य-
रचनाएं लिखने के लिये बदनाम था। धर्मवीर भारतीजी व्दारा मांगी गई रचनाओं की शब्द-सीमा
एक हज़ार होती थी, परन्तु मैं दावे से कह सकता हूं कि उन्होंने मेरी रचनाओं को
कभी नहीं काटा।
हां, जहां तक 'बारामासी की बात है तो
मेरे अनुसार जीवन बहुत कुछ है। अन्तर्वैयक्तिक, पारिवारिक घटनाओं पर हिन्दी व्यंग्य
ने कभी बात ही नहीं की। हिन्दी व्यंग्य में सिवाय प्रेमी-प्रेमिकाओं या
पड़ोसिनों पर व्यंग्य करने के सिवाय कुछ नहीं किया। यह सब देखकर मेरे मन में यह
सवाल उठा कि क्या यह च्व्यंग्य की कमज़ोरी है या फिर व्यंग्यकार की? तो जग ये सारी चीज़ें
एक जगह मिल गईं तो 'बारामासी' का जन्म हुआ। मुझे इस बात का संतोष है कि यह उपन्यास
व्यंग्य को एक ऐसी दिशा में ले गया जहां हिन्दी का व्यंग्य गया ही नहीं था। बुन्देलखंड
की प्रतिदिन की जि़न्दगी में व्यंग्य है, वहां हर व्यक्ति वक्रोक्ति में ही
बात करता है। सीधी बात करे तो वह बुन्देलखंडी है ही नहीं। तो बुन्देलखंड का
कर्ज़ भी चुकाना था, इसलिये बुन्देलखंड को लिया और इस तरह यह लंबी रचना लिखी गई।
मधु अरोड़ा: आजकल हिन्दी
साहित्य में चल रहे विभिन्न विमर्शों,
जैसे- स्त्री-विमर्श, दलित विमर्श आदि की क्या उपादेयता है?
ज्ञान चतुर्वेदी: मैं मूल रूप से यह
मानता हूं कि स्त्री- विमर्श और दलित विमर्श ये दोनों विमर्श बहुत ज़रूरी हैं। ये असली मुद्दे हैं, जिन पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिये लेकिन
इन्हें जिस रूप में और जिस तरीके से उछाला गया है, इन विमर्शों की स्थिति ख़राब
हो सकती है। हिन्दी के दिग्गज़ों के बीच ये जिस रूप में आये हैं, उससे ये विचार
अपनी पटरी से उतर चुके हैं। अब ये विमर्श विमर्श न रहकर स्वयं को स्थापित करने
के लिये, स्वयं के सर्क्यूलेशन के लिये, स्वयं को चर्चा में रखने के लिये,
राजनीति चलाने के लिये और समग्र रूप से साहित्य में एक-दूसरे से हिसाब बराबर करने
के लिये बन गये हैं और इस्तेमाल में लाये जा रहे हैं। स्त्री- विमर्श जबसे शुरू
हुआ है उससे पहले भी मैंने कई लेखिकाओं को पढ़ा है, वे मेरी प्रिय लेखिकाएं हैं।
उन्होंने स्त्रियों के नज़रिये लिखा है। अच्छी- बुरी कहानियां लिखी गई हैं। मूल
धारा जो स्त्री. विमर्श, दलित विमर्श की है वह राजनीति की गंदी धारा हो चुकी है।
लेकिन इनके बीच में इन धाराओं में बड़े जेन्यूइन तौर पर विश्वास करनेवाले लोग और इन
विमर्शों पर सुधा अरोड़ा का कथादेश पत्रिका में लंबा धारावाहिक कालम चला था, उन्होंने
इन धाराओं पर अच्छा काम किया था। लेकिन जो forefront
पर आये, उनके लेख़न में वह दर्द नहीं है, ऐसा
कुछ भी नहीं दिखाई देता जिससे ऐसा लगे कि इन लोगों के लिये ये लोग कुछ अच्छा सोच
रहे हैं, कुछ अच्छा कर रहे हैं पर इन लोगों ने इन धाराओं पर कब्ज़ा कर लिया
है।यही कारण है कि स्त्री- विमर्श और दलित विमर्श ये हमारे समय के महत्वपूर्ण
विमर्श हैं और हो सकते थे पर वे सही रूप में उस तक पहुंच ही नहीं पाये।
मधु अरोड़ा: हिन्दी
साहित्य में चल रही गुटबाजी और उससे हिन्दी साहित्य के हो रहे नुक़सान के विषय
में आप क्या सोचते हैं?
ज्ञान चतुर्वेदी: दरअसल हर जगह की
गुटबाजी, हर तरह की गुटबाजी सबको ले डूबी है तो हिन्दी साहित्य कैसे अछूता रह
सकता है? प्रकाशकों की शिकायत
कि पुस्तकें नहीं बिक रहीं, हिन्दी पत्रिकाएं कोई नहीं ख़रीद रहा। एक ही किताब
पर पांच-पांच आदमी लिख रहे हैं, गुटबाजी के तहत एक किताब, एक कहानी चर्चित हो रही
है। तो आप किसको धोखा दे रहे हैं? आप किसी व्यक्ति
विशेष, पुस्तक विशेष को कब तक एक्सपोज़ करेंगे?
हिन्दी पाठक के सामने आप नंगे हो चुके हैं। आपको एक बात बताता हूं। मेरे एक डाक्टर
मित्र एक चर्चित किताब ख़रीदकर लाये। उसको पढ़ने के बाद उनकी प्रतिक्रिया थी कि
किताब की ग़लत चर्चा हुई। वास्तव में यह किताब ख़राब है और पठनीय नहीं है। तो इस
तरह की गुटबाजी की वजह से आप जेन्यूइन/असली पाठक खोते हैंख् उसका विश्वास ख़त्म
करते हैं। आप देखिये, मैं डाक्टर हूं और गुटबन्दी के तहत मरीज़ को गुट विशेष के
डाक्टर के पास भेजता हूं जो अच्छा नहीं है तो मरीज़ मरेगा ही। तो इस गुटबन्दी
की वजह से आप कहानी, कविता सभी से पाठक निकाल देंगे। आज तो आलम यह है कि सरकार
पैसा दे रही है, पुरस्कार दिये जा रहे हैं वहां भी गुटबाजी है। आज तो आपकी मार
अंतर्राष्ट्रीय हो गई है। आप सुखद भ्रम में रहते हैं कि हम सफल हो रहे हैं। इस
चक्कर में हिन्दी साहित्य ख़त्म हो रहा है। गुटबन्दी के चक्कर में न तो जेन्यूइन
लेख़क सामने आ पाते हैं और न जेन्यूइन किताब सामने आ पाती है और यही प्रवृत्तियां
आगे चलकर हिन्दी साहित्य को ख़त्म करने की कोशिश करेंगी। याद रखिये, गुटबन्दी
विधा, खेल, सिनेमा कहीं भी ख़तरनाक है। यह मार्केटिंग का हिस्सा तो हो सकता है पर
दरअसल यह किसी विधा को ख़त्म करने का तरीका है और अनजाने में साहित्य को ख़त्म
कर रहे हैं। जब आप साहित्य को कचरा कर देंगे तो ख़ुद को भी तो ख़त्म कर रहे हैं।
मधु अरोड़ा: प्रवासी
साहित्य को लेकर आप क्या सोचते हैं?
ज्ञान चतुर्वेदी: ईमानदारी से कहूं तो
मैंने प्रवासी साहित्य ख़ास पढ़ा नहीं है। कुछ समय पहले प्रवासियों पर रचना समय ने
विशेषांक निकाला था जिसमें कुछ अच्छी रचनाएं थीं। मुझे उन पर कुड लिखना था।
समयबद्धता के कारण सारी रचनाएं पढ़ नहीं पाया थ पर जो पढ़ पाया उसमें forefront पर यूके और यूएई थे। उन कहानियों में मुझे वे
कहानियां पसन्द आयीं जो वहां के परिवेश की थीं। पर अधिक़तर नास्टेल्जिया की
कहानियां थीं। पुरानी पीढ़ी जो देश छोड़कर आई थी और अभी तक अपने पुरीने देश की
यादों में जी रही है, उन स्मृतियों की कहनियां थी। लंदन में तेजेन्द्र ने हिन्दी
का जो आंदोलन छेड़ा है उससे एक माहौल बनेगा। अब यहां के जो लेख़क वहां बस गये हैं
तो वहां के समाज की विसंबतियों को लेकर उनको ही लिखना है तभी वह साहित्य यहां तक
पहुंचेगा। मान लाजिये, यदि मैं लंदन में रहता हूं तो वहां रहकर लिखना मेरा मेरा
अलग लेखन होगा। उसका फ्लेवर अलग होगा। भारत के हिन्दी पाठकों तक वहां का समाज और
हमारा जो समाज वहां बसा है, उनके सपने, उनकी हिन्दी कहानियों में आना ज़रूरी है।
प्रवासी कहानियां कला के तौर पर कच्ची होने के बावज़ूद हिन्दी जगत के लिये महत्वपूर्ण
हैं। जब वे वहां के माहौल को लेकर कहानियां लिखते हैं तो हमें एक नये संसार से
परिचित कराते हैं और वहां उनका भोगा हुआ यथार्थ सामने आयेगा। अचला शर्मा की कहानी
चौथी ऋतु बहुत ही अच्छी है। वृद्धों के अकेलेपन की कहानी, अपने अपने टापुओं पर
अपने आखि़री दिन का इन्तज़ार करती कहानी बहुत ही मार्मिक और वहां के माहौल पर
लिखी गई है। तेजेन्द्र की पासपोर्ट का रंग कहानी बहुत बेहतरीन कहानी है जो दोहरी
नागरिकता पर आधारित है। तो प्रवासी साहित्य हिन्दी के लिये बहुत ज़रूरी है।
तेजेन्द्र वहां जो काम कर रहे हैं वह बहुत महत्वपूर्ण है। प्रवासी साहित्य में
मेच्योर लेखन है, कंप्लीट कहानियां हैं, आपको उन कहानियों के कला पक्ष से शिकायत
नहीं हो सकती। अभी हाल में कथा यूके ने डी ए वी गर्ल्स कालेज के साथ मिलकर जो
कार्यक्रम किया, उससे माहौल बना। प्रवासी लेखक शामिल हुए और उनकी रचनाओं पर बात
हुई। वहां के लोगों को एक्सपोज़ किया कि विदेशों में कितना काम हो रहा है और इस
तरह लोगों में उनके प्रति जिज्ञासा जागी।
मधु अरोड़ा: आपको
'अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान' प्राप्त हुआ तो बड़े पुरस्कारों की
तुलना में इस सम्मान की भिन्नता और उपादेयता के बारे में आप क्या सोचते हैं?
ज्ञान चतुर्वेदी: जब लंदन में यह सम्मान
मिला तो मैंने बड़े मन से यह स्टेटमेंट दिया था कि हिन्दी में दो तरह के लेखक
हैं- एक वे जो अपना बायोडाटा बनाते हैं पुरस्कारों, सम्मानों एवं ऐसी ही
जुगाड़बन्दियों के जरिये। दूसरे वे लेखक हैं जो बस रचना कर्म करते हैं। हिन्दी
में प्राय: बड़े सम्मानों का एक तिलिस्मी किला बन गया है जिसे तोड़ने के लिये
भूतनाथ जैसी ऐयारी और तिक़ड़मोंवाली चाभी हो और आपके पास षड़यंत्रों के लिये काफी
समय हो तो आप इसमें घुस सकते हैं। इस प्रक्रिया में आप धीरे-धीरे लेख़न से दूर
होते चले जाते हैं। मेरा अपना विश्वास है कि ख़ूब लिखिये, वही सबसे बड़ा सम्मान
है। मेरा अनुभव है कि अच्छे लेख़न को लंबे समय तक इग्नोर नहीं किया जा सकता।
पुरस्कार, सम्मान प्रासंगिक हैं या नहीं, यह मूल मुद्दा नहीं है और लेख़न में तो
क़तई नहीं।
जहां तक 'अंतर्राष्ट्रीय
इंदु शर्मा कथा सम्मान' की बात है तो इस सम्मान ने हिन्दी जगत में एक विश्वसनीयतावाला
स्थान प्राप्त कर लिया है। इसका कारण
शायद चयन प्रक्रिया को पारदर्शी बनाये रखना और तिलिस्मी किला न बनने देने का
संकल्प है। इसके आयोजकों के इसी संकल्प ने इस सम्मान को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर
तक पहुंचाया है। पहले दो लेखक- श्रीमती चित्रा मुद्गल एवं संजीव के लेखन में क़द
की उंचाई और उनकी कृतियां इतनी विश्वसनीय और सम्माननीय प्रतिष्ठा पा चुकी थीं
कि इंदु शर्मा कथा सम्मान देनेवाले अायोजकों ने इन कृतियों का चुनाव करके कहीं
संदेश दिया था कि उनके निकट इस सम्मान को देनेवाले का मानदंड केवल गुणवत्ता ही
होगी, कोई अन्य बात नहीं। एक बात बता दूं कि इस मान के मिलने से पहले प तो मैं
तेजेन्द्र को जानता था और न सूरजप्रकाश को। लंदन जाने से पहले मेरा इनसे कोई
संबंध नहीं था और जब एक रात को लंदन से सम्मान के विषय में सूचित किया जाता है तो
कहीं आनन्द और आश्चर्य होता है कि दूर भी कहीं कोई आपकी रचना को आब्जेक्टिव ढंग
से देखकर तथा आकलन करके चीज़ें तय करता है। यह बहुत बड़ी बात है। विशंष तौर पर यहां
आठ-दस दिन गुजारकर, ट्रस्ट की गतिविधियों को देखकर आश्चर्य हुआ कि तेजेन्द्रख्
नैनाजी, उनके बच्चे और भारत के प्रतिनिधि सूरजप्रकाश इस सम्मान की विश्वसनीयता
तथा ग़रिमा बनाये रखने के लिये कितना परिश्रम करते हैं और कितने सतर्क हैं। इसलिये
इस सम्मान को पाकर मुझे गहन संतोष हुआ है।
यह संतोष इसलिये नहीं
है कि मुझे लंदन घूमने का चाव था, विदेश पहले भी गया था, पर एक चौकस और सतर्क चयन
प्रक्रिया के मार्फ़त यदि आपको यह सम्मान मिलता है तो सिफऱ् इसलिये कि आपकी रचना
को गुणों पर तौला गया है। मुझे विश्वास है कि आनेवाले वर्षों में यह विश्वसनीयता
इसी तरह बरक़रार रहेगी।
4 टिप्पणियाँ
ज्ञान जी नें व्यंग्य पर कम बाते कीं।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति। ज्ञान जी बारे में विस्तार से बहुत कुछ जानने को मिला।
जवाब देंहटाएंअच्छा साक्षात्कार..बधाई
जवाब देंहटाएंवर्तमान व्यंग्यकारों में ज्ञान चतुर्वेदी एक बड़ा नाम है इन्हें इस पुरस्कार के लिए बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.