जब से खबर मिली है, भगवत रावत नहीं रहे, उनकी छवि रह-रह के आंखों के सामने तैर जाती है। जिंदादिल, आत्मी य और मुस्कुगराता चेहरा।
शायद 1991 की बात है, राजेश जोशी ने शरद बिल्लोऔरे पुरस्कातर समारोह के सिलसिले में भोपाल बुलाया। उन दिनों मैं और सुमनिका दोनों ही आकाशवाणी में थे। नई-नई शादी हुई थी। मैं सुमनिका को भी साथ ले गया। भगवत जी ने आग्रह करके हम लोगों को बुलाया। राजेश हम दोनों को अपने स्कूाटर पर बिठा कर उनके घर ले गए। रावत जी बेतकल्लुरफ, अपनेपन से भरे हुए। लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं।
रावत जी बरसों से गुर्दे की बीमारी के शिकार थे। एक बार इलाज के सिलसिले में मुंबई आए हुए थे। हम कुछ दोस्तक उनसे बांबे हास्पिबटल में मिलने गए। वहां भी बीमारी के बावजूद उत्साेह और जज्बेो से सराबोर। वहीं कविता का समां बांध दिया। तब 'सुनो हिरामन' श्रृंखला की कुछ कविताएं उन्हों ने सुनाईं। एक बार भोपाल के अभिनेता निर्देशक मुकेश शर्मा (जो मुंबई में रहते हैं) के घर पर मुलाकात हुई। उस रात की बातचीत कविता के मौजूदा परिदृश्य की परेशानियों पर केंद्रित रही।
कुछ साल पहले फिर से इलाज के लिए मुंबई में बेटे के पास आए। जसलोक में कई दिन रहे। हमारी उनके बेटे के घर पर मुलाकात हुई तो मधुमेह के इलाज के लिए बाबा रामदेव के प्राणायाम और आसान समझाते रहे।
एक बार सुमनिका ने फोन मिलाना था अपने पिता को, गलती से रावत जी को लग गया। तब भी उनकी बातचीत में वैसी ही आत्मी यता का झरना बह उठा। मैंने नए साल पर उन्हें एक कार्ड भेजा जिस पर यह मजमून लिखा -
जनवरी 2009
रावत जी को एक चिट्ठी
रावत जी
मैं आपको शुभकामना का कोई दूसरा कार्ड भेजना चाहता था
शब्द भी कुछ और ही होने थे
जैसे मित्र होने थे कुछ और
दुश्मनों के बारे में तो सोचा ही न था
लगता था बिन सेना के भी बचे रह जाएंगे देश
हमें क्या पता था सभ्यता की घंटी
गले में लटका लेने से बैल सींग मारना नहीं छोड़ता
जैसे सुमनिका ने फोन लगाया होता अमृतसर
लग गया भोपाल
यूं कहने को भूल हुई पर
कौतूहल बढ़ा चहक फैली
कान से होते हुए स्मित रेखाओं तक आई
गर्मजोशी का एहसास भी हुआ वैसा ही
जैसी पशमीने की गर्मी और नर्मी मिलती है
पापा की आवाज सुनकर
पर यह भी शायद ऐसा था नहीं
सुमनिका कहेगी वो तो गलती से दब गया
वो तो दबाव था लुका हुआ बरसों पहले का
जब रावत जी के घर गए थे भोपाल में
नहीं, मुकुल जब आए थे बिटिया को लेकर हमारे घर
तब की टाफी थी उसके लिए सहेज रखी अंगुलियों में
उसी की पन्नी में चमका था रावत जी का चेहरा
पर असल बात यह नहीं है रावत जी
सच कहता हूं कहना था मुझे कुछ ऐसा
करना था इस तरह का कुछ
कि चार में से दो दफे अस्पताल में न मिलता आपसे
बच्चे की तरह कंधे पर बिठा के
ले आता आपको खुले-खिले आकाश तले
तब यह वक्त न आया होता
इस तरह अकेले में बड़बड़ाने का
और स्यापा गलतियों गफलतों गलतफहमियों का।
मुझे लगता था यह कविता बन जाएगी, पर यह एक तरह का स्मृोति-शब्द -पुंज ही बना। जैसा कि मेरे साथ अक्स र होता है, अग्रजों के साथ संकोच का एक झीना पर्दा पड़ा रहता है। रावत जी भी पर्दे के उस पार ही थे। हालांकि उनके स्वीभाव की मस्ता पवन उस पर्दे को हर बार परे सरका देती थी। और हमारे हिस्से का स्ने्ह हमें मिलता रहा। यह बेहद निजी पूंजी है।
2 टिप्पणियाँ
पर असल बात यह नहीं है रावत जी
जवाब देंहटाएंसच कहता हूं कहना था मुझे कुछ ऐसा
करना था इस तरह का कुछ
कि चार में से दो दफे अस्पताल में न मिलता आपसे
बच्चे की तरह कंधे पर बिठा के
ले आता आपको खुले-खिले आकाश तले
तब यह वक्त न आया होता
इस तरह अकेले में बड़बड़ाने का
और स्यापा गलतियों गफलतों गलतफहमियों का।
विनम्र श्रद्धांजलि
रावत जी को विन्म्र श्रद्धांजलि...
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.