परिपक्व और उदार प्रेम बौद्धिक विकास का जरिया बनता है
व्यास सम्मान सहित कई महत्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित वरिष्ठ लेखिका मृदुला गर्ग ने बिना स्त्रीवादी आंदोलन का सहारा लिए आज से लगभग 40 साल पहले
अपने लेखन से सशक्त और स्वंतत्र लेखिका की छवि बनाई थी।
अपने लेखन से सशक्त और स्वंतत्र लेखिका की छवि बनाई थी।
अब भी वह लगातार लेखन और साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय है। उनके जीवन और लेखन पर सरिता शर्मा ने बेबाक बातचीत की।
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सरिता शर्मा: मृदुला जी, सबसे पहले अपने बचपन और परिवार की पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताइए।
मृदुला गर्ग: हमारा घर बिल्कुल अलग किस्म का था। पहली बात तो यह कि मेरी माँ हमेशा बीमार रहती थीं। मुझे अपने भाई-बहनों की तरह माँ का प्यार नहीं मिला। वह घर का काम भी नहीं करती थीं। हमें दरअसल पिताजी ने ही नौकरों की मदद से पाला। हम पाँच बहनें और एक भाई थे। पिताजी को पाँच बेटियाँ होने का कभी अफसोस नहीं रहा बल्कि उन्हें हम पर इतना फख्र था कि हर बच्चे को दो-दो नामों से पुकारते थे। सब यही सोचते थे कि हम इतने लाड़ले शायद इसलिए है क्योंकि इकलौती सन्तान हैं। मेरे अध्यापक कहते थे कि तुम अकेली लडकी के कारण बिगड़ी हुई हो। इस तरह हमारा घर बाकी घरों से अलग था। हमारे यहाँ ज्यादातर लेखिकाएँ अपने साथ हुए दुर्व्यवहार या लड़कों से कमतर समझे जाने का रोना.धोना करती रहती हैं। मेरे परिवार में ऐसा कुछ भी नही था। पिताजी हमें खूब पढ़ाना चाहते थे। हमारी शादी को लेकर वह कभी चिंतित नहीं रहे।
हमारे परिवार में साहित्य के प्रति लगाव भी बहुत ज्यादा था। बीमार रहने के बावजूद हमारी माँ बहुत पढती रहती थीं। उन्होने अँग्रजी, हिन्दी और उर्दू. इन तीन भाषाओं का साहित्य पढा था। हमें साहित्य पढ़ने की प्ररेणा उन्ही से मिली। सबसे बड़ी बात यह थी कि हमारा संयुक्त परिवार था, तब भी किसी ने माँ के द्वारा घर का काम न करने पर ऊँगली नहीं उठाई। मैंने इस पर सोचा तो मुझे इसकी वजह यहाँ समझ आई कि वह कभी झूठ नहीं बोलती थी और बहुत ईमानदार थीं।
वह लोगों के भेद अपने भीतर छुपा कर रख सकती थीं। उनके देवर, मित्र और हमारे यहाँ आनेवाले कई लेखक उन्हें अपने सुख.दुख बताते थे। वह कभी उनकी बात किसी और को बताकर उन्हें शर्मिंदा नहीं करती थीं। हमारे परिवार में कभी देवरानी-जेठानी या ननद-भाभी की कलह या गप्पबाजी नहीं होती थी। हम आजादी की लड़ाई लड़ रहे सेनानियों और नेताओं के बारे में चर्चा किया करते थे। इसी माहौल में मैने सीखा कि सामाजिक और व्याक्तिगत मूल्य महत्वपूर्ण है। किसी व्यक्ति का मूल्यांकन इस कसौटी पर नहीं किया जाना चाहिए कि वह सामाजिक मूल्यों पर खरा उतरता है या नहीं। माँ के दिए संस्कार और साहित्य के प्रति सम्मान बचपन से ही हमारे अवचेतन मन में बैठ गए। जब मैंने लिखना शुरू किया तो मैन कभी औरत की घिसी-पिटी छवि के बारे में नहीं लिखा।
सरिता शर्मा: आपकी पहली रचना कब और किस पत्रिका में छपी थी?
मृदुला गर्ग: जैसे कि आम तौर पर लिखना शुरू करने वाले करते है, मैने कभी कविता नही लिखी। दूसरी बात यह कि मैने लिखना बहुत देर से शुरू किया। मैने शादी के बाद 32 साल की उम्र में लिखना शुरू किया था। मेरी पहली कहानी ’रूकावट’ सारिका में 1972 में छपी थी उसके बाद ’हरी बिंदी’ और ’डेफोडिल जल रहे है’ छपी। मैं उस समय दक्षिण भारत के एक छोटे-से औद्योगिक कस्बे में रह रही थी और बहुत कम लोगों ने मुझे देखा था। मुझे सहित्य की राजनीति और उसमें चल रही उठापटक की ज्यादा जानकारी नहीं थी। मैने अपनी ज्यादातर कहानियाँ डाक से भेजी थी। अपने लेखन की शुरूवात में राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर से मेरी मुलाकात हुई थी। मैं नेमीचन्द्र जैन और जैनेन्द्र कुमार से भी मिली थी।
सरिता शर्मा: उस समय कई जानी मानी लेखिकाएँ थीं...
मृदुला गर्ग: हाँ, बहुत सारी लेखिकाएँ थीं-शिवानी, कृश्णा सोबती, मन्नू भंडारी, उशा प्रियंवदा, सुनीता जैन, मंजुल भगत, राजी सेठ। मृणाल पाड़े और चित्रा मुद्गल मुझसे कम उम्र की थीं। लेखिकाओं की एक पूरी जमात थी जिसने ताकतवर, संवेदनशील और सोचने-विचारनेवाली औरत के बारे में लिखा था। सौभाग्य की बात है कि उस समय किसी ने भी स्त्रीवाद का मसला नहीं उठाया था। हम सिर्फ लिखते थे। मेरा पहला उपन्यास ’उसके हिस्से की धूप’ 1975 में छपा था। यह लीक से हटकर था क्योंकि उन दिनों विवाहेत्तर संबधों में अपराधबोध होना जरूरी माना जाता था।
’उसके हिस्से की धूप’ की नायिका अनपे पति को छोड़ कर प्रेमी के पास चली जाती है। मगर अंत में वह महसूस करती है कि आदमियों के पीछे भागने का कोई अर्थ नहीं है और अपना रास्ता खुद ही तलाशना होगा...
वह पति से तलाक लेकर दुसरे आदमी से शादी कर लेती है। जब वह अपने पूर्व पति से मिलती है तो उसे अहसास होता है कि जिस बात को वह उसकी उदासीनता समझती थी दरअसल वह उसकी उदारता थी। पहले वह रोमांटिक और अधिकारपूर्ण प्रेम की तलाश में थी, मगर वह हद से ज्यादा हो तो ऊबा देता है। दूसरी बात यह कि अधिकारपूर्ण प्रेम में औरत को आजादी नहीं होती जबकि उसके पूर्व पति ने उसको हर तरह की आजादी दे रखी थी। मगर उसके पास वह लौटती नहीं है क्योंकि वह जानती है कि अब भी वह अपने काम के आगे किसी को अहमियत नहीं देता है। उपन्यास का मूल विचार यह है कि एक के बाद दूसरे आदमी के पीछे भागने से कोई फायदा नहीं है। अपनी खुशी किसी और के माध्यम से प्राप्त नहीं की जा सकती। अपने कार्यों से ही खुशी मिल सकती है। कोई भी आदमी संपूर्ण नहीं है। शुरू शुरू में वह रोमांटिक और बेवकूफी भरे प्रेम में विष्वास करती है। चार सालों में वह इसके विभिन्न पहलुओं को देखती है और परिपक्व हो जाती है। दोस्ती, आपसी समझदारी, एकात्मकता और सहानुभूति प्रेम में महत्वपूर्ण होते हैं। वह जान लेती है कि प्रेम करना अद्भुत है मगर पूर्णता की भावना औरों से नहीं आती। वह अपने कर्मों से ही आती है। वह निर्णय लेती है कि वह खूब लिखेगी। पुस्तक का अंत यहीं होता है। उसे कोई अपराधबोध नहीं है। उसे नहीं लगता कि पति को छोड़कर अन्य पुरूष के साथ जाने के कारण ही वह अनैतिक हो गई है।
सरिता शर्मा: यह पुस्तक अपने समय से बहुत आगे नहीं थी....
मृदुला गर्ग: 35 साल बाद अब इस कहानी पर धारावाहिक का निर्माण हुआ है। कइयों को अब यह समसामयिक लगता है। मगर उस समय यह चौंकाने वाला था। मुझे लगता है अगर आप वही लिखते हैं जो बाकी सब लिख रहे हैं तो लिखने को कोई लाभ नहीं है। जब औरत अपने लिए सोचना शुरू करती है तो उसके तार्किक परिणाम होते हैं। आज यही हो रहा है।
सरिता शर्मा: आपका उपन्यास ’चित्रकोबरा’ बहुत विवादास्पद है और लोकप्रिय भी। उसमें भी नायिका के विवाहेत्तर संबंध होते है। उस उपन्यास के कारण आप पर मुकदमा भी चला था।
मृदुला गर्ग: हाँ, इस उपन्यास में भी नायिका किसी और से प्यार करती है मगर वह अपने पति को छोड़ती नहीं है। किसी गैर मर्द से प्रेम करते हुए भी उसे अपना घर तोड़ने की जरूरत महसूस नहीं होती। उपन्यास की नायिका ने अरेंज्ड मैरिज की है। वह अपने प्रेमी से साल में बस 3-4 दिन के लिए मिली थी और फिर वे बिछुड़ जाते हैं। प्यार का असर इस बात पर निर्भर करता है कि आप प्यार किसे करते हैं। अगर प्रेमी परिपक्व और उदार है तो प्रेमिका का भी बौद्धिक विकास होता है। प्रेम करने वाले व्याक्तियों के व्यक्तित्व का विकास होता है और वे बेहतर मनुश्य बनते हैं।
सरिता शर्मा: आपके पुरूष चरित्रों का विकास उतना नहीं होता दिखना जितना कि महिला पात्रों का। क्यों?
मृदुला गर्ग: इसकी वजह यह है कि पुरूषों को लगता है कि वे पहले ही विकसित हो चुके हैं। औरतें अपनी पहचान ढूँढने की पूरी कोशिश में लगी रहती हैं जबकि आदमी अच्छे हों या बुरे, वे हमेशा यही मानते हैं कि वे मुकम्मल हैं। इसलिए वे आपनी कमियों को आमतौर पर नहीं आँकते। उसके हिस्से की धूप में दूसरा पति परिपक्व नहीं है मगर ’चित्तकोबरा’ में प्रेमी परिपक्व व्यक्ति है। कठगुलाब में विपिन में स्त्रीसुलभ गुण है। वह अधिक दयालु समझकर और उदार है। चित्तकोबरा के बाद मैंने ’अनित्या’ लिखा जो ऐतिहासिक उपन्यास है। इसमें हमारे स्वतंत्रता आंदोलन को आलोचनात्मक दृश्टि से समझा गया है।
सरिता शर्मा:आपने इस उपन्यास में अहिंसा और क्रांतिकारियों के बारे में कुछ सवाल उठाए हैं।
मृदुला गर्ग: अहिंसक आंदोलन और क्रांतिकारियों के बीच का संबध हमारे इतिहास का हिस्सा है। मैंने इतिहास को समझने की कोशिश की है। अगर क्रांतिकारियों की चलती तो क्या होता? मुख्य पात्र का, हमें जिस किस्म की आजादी मिली, उससे मोहभंग हो चुका है और वह सवाल उठाता रहता है। यह महत्वपूर्ण है कि हम हर चीज को स्याह और सफेद में न देखें। लोग तो यथार्थ का सीधा-सपाट चित्रण देखना चाहते हैं, कोई सवाल न पूछा जाए और दिमाग पर बोझ न डाला जाए। मैं उस तरह नहीं लिखती, मै चाहती हूँ कि पाठक पुनर्विचार करें, पुनमूल्यांकन करें। असहमति दिखाएँ, विरोध करें और खुद सोचें। जो कुछ औरों ने कहा है उसे स्वीकार न करें। कोई भी स्वभाव से अहिंसक नहीं है। अगर हम सच में अहिंसक बन चुके होते तो विभाजन के बाद इतनी हिंसा क्यों हुई होती? विभाजन से पूर्व भी हिन्दू-मुसलमानों में दंगे होते रहते थे। उपन्यास की विशयवस्तु यही है कि वास्तव में हमें अपने मन में झाँकना होगा। सबसे पहले हमें खुद से असंतुष्ट होना होगा। उसके बाद औरों से असंतुष्ट होना चाहिए। अगर आप कहते हैं कि मेरे सिवाय सभी लोग भ्रष्ट हैं तो यह ठीक नहीं है। मैंने मुख्यतः इसी बारे में लिखा है। औरतों के बारे में यह नहीं कहती कि सभी औरतें अच्छी हैं और सभी पुरूष बुरे हैं।
मेरे दूसरे उपन्यास ’वंशज में’ की नायिका सांसारिक समझ-बूझ की औरत है जो बहुत अच्छी गृहस्थिन और आदर्श बहू है। वह नैतिक हाते हुए भी अपने पति को पागल बना देती है। वह बेहद भौतिकवादी और पैसे के पीछे पागल है। जब औरतों के हाथ में ताकत आ जाती है तो वे आदमियों से किसी बात में पीछे नहीं रहती। अब सत्ता पर आसीन औरतों को देखो। वे पुरूषों से भी ज्यादा भ्रष्ट हैं।
सरिता शर्मा: मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा और कृश्णा अग्निहोत्री और कई अन्य लेखिकाओं ने आत्मकथाएँ लिखी हैं। क्या आप भी अपनी आत्मकथा लिखने पर विचार कर रही हैं। आप आजकल क्या लिख रही हैं?
मृदुला गर्ग: मैं अपनी आत्मकथा नहीं लिखना चाहती। जो कुछ मेरे जीवन में हुआ है वह किसी-न-किसी तरीके से मेरे उपन्यासों में आ चुका है। अत्मकथा में लेखक यथार्थ को अतिंरजित कर देता है और सच्चाई के कुछ अंश तक पहुचता है। उसे सपाट लहजे में दोहराने की जरूरत नहीं है। फिलहाल मै कोई उपन्यास नहीं लिख रही हूँ। मेरा नया उपन्यास ’मिलजुल मन’ अभी आया है। मै अपने उपन्यास अनित्या को अँग्रजी में अनुवाद करने के लिए सीमा सैगल को सहयोग दिया। हाल ही में आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने इसे ’अनित्या, हाफवे टू नोवेयर’ शीर्शक से छापा है। मैने एक अँग्रेजी और एक हिन्दी निबंध संकलन को अंतिम रूप दे रही हूँ। उन्हे प्रकाशित होने में कुछ समय लगेगा।
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8 टिप्पणियाँ
साक्षात्कार साहित्य शिल्पी के स्तर के अनुरूप है, सूरज प्रकाश जी के सम्पादन में साहित्य शिल्पी से अपेक्षा भी इसी तरह के अंक की है। मृदुला जी अपनी ही तरह का स्त्री विमर्श रचती हैं सरिता जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी ई-पत्रिका। सम्पादक महोदय व साहित्य-शिल्पी की पूरी टीम को बधाई व शुभकामनाएं। सरिता जी को विशेष रूप से बधाई, एक सुलझे व गरिमामय साक्षात्कार के लिए। मृदुला जी ने बहुत ही सधे व सार्थक ढंग से सभी प्रश्नों का उत्तर दिया। पुन: बधाई व शुभकमनाएं।
जवाब देंहटाएंअमृता बेरा
अच्छा साक्षात्कार...बधाई
जवाब देंहटाएंमृदुला गर्ग को पिछले तीस-बत्तीस साल से पढ़ता रहा हूँ। चित्तकोबरा को तो मैंने यहाँ मास्को विश्वविद्यालय में एम०ए० में पढ़ाया भी है। बेहद ख़ूबसूरत उपन्यास है। इसका अनुवाद जल्दी ही रूसी भाषा में प्रकाशित होने जा रहा है।
जवाब देंहटाएंमृदुला जी के साथ सरिता शर्मा ने एक सार्थक बातचीत की है.
जवाब देंहटाएंसूरज प्रकाश के सम्पादन में साहित्य शिल्पी निश्चित ही नई ऊंचाइयां स्पर्श करेगा और ई पत्रिकाओं में अपनी अलग पहचान बनाएगा. मृदुला जी की बातचीत से पहले संपादक की टिप्पणी में मेरे अनुसार कुछ छूट गया है. टिप्पणी नीचे दे रहा हूं.
"स्त्रीवादी आंदोलन का सहारा लिए आज से लगभग 40 साल पहले
अपने लेखन से सशक्त और स्वंतत्र लेखिका की छवि बनाई थी।"
मुझे लगता है कि सूरज ने कहना चाहा है कि "स्त्रीवादी आंदोलन का सहारा लिए बिना------" इसमें बिना छूट गया है.
अपने आलेखों में मैंने लगातार कहा है कि स्त्रीवादी आंदोलन बनाम स्त्रीविमर्श केवल कुछ रचनाकारों को स्थापित करने की दृष्टि से प्रारंभ हुआ, जबकि कृष्णा सोबती,मृदुला गर्ग, सुधा अरोड़ा प्रभृति रचनाकार एक जमाने से वह सब लिख रही थीं.
रूपसिंह चन्देल
मृदुला जी से सरिता की बातचीत एक कथाकार के जीवन से होते हुए कथानकों तक जाती है ..जिसका पेरिफेरा निश्चित रूप से वृहद् है . बधाई सरिता ..
जवाब देंहटाएंमृदुला गर्ग को इस साक्षात्कार के माध्यम से जानना अच्छा लगा. आभार!
जवाब देंहटाएंसाहित्यशिल्पी नये कलेवर में, नयी सज्जा और नयी रचनाशीलता के साथ निश्चित ही नई ऊंचाइयां स्पर्श करेगा शुभकमनाएं।
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.