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[मेरी रचना प्रक्रिया] - प्रेमचंद गांधी


लिखना कुम्हार जैसा काम है * प्रेमचंद गांधी 
‘’कविता इतिहास और सच्चाई के बीच का स्थगित पुल है यह इधर या उधर जाने की राह नहीं है यह तो हलचल के भीतर की स्थिरता को देखने की क्रिया है’’ - ऑक्टो वियो पॉज 

एक दृश्य, एक स्‍मृति, एक विचार, कोई शब्द या पंक्ति अथवा कोई कौंध मुझे आमंत्रण देते नज़र आते हैं और मैं इनमें से किसी की अंगुली थामे चल पड़ता हूं। बस शुरुआत हो गई तो इसके बाद? यह शायद सबसे मुश्किल सवाल है, क्योंकि इस यात्रा में मैं इतना डूब जाता हूं कि जब एक पड़ाव पर पहुंच जाता हूं तो अगले पड़ाव के बारे में सोचने लगता हूं। इस तरह पड़ाव-दर-पड़ाव यह सिलसिला चलता रहता है। 

मैं हिटलर की जीवनी पढ़ रहा था। मुझे पता चला हिटलर को तैरना नहीं आता था। वह चित्रकार बनना चाहता था, लेकिन उसे दाखिला नहीं मिला। एक बार एक तितली पानी में गिर पड़ी तो हिटलर ने तितली की जान बचाई। मुझे हिटलर की मूंछों में एक नन्हीं तितली की छवि दिखाई दी और फिर दिमागी उथलपुथल शुरु हुई। यह प्रसंग पढ़ने के बाद मैं उस किताब को अगले कई दिनों तक नहीं पढ़ पाया। हिटलर के जीवन की यह घटना उस वक्त की है, जब वह अपने जीवन की दिशा खोज रहा था और उसने मूंछें भी नहीं रखनी शुरु की थीं। मैंने कुछ पंक्तियां लिखीं और सोचता रहा कि एक क्रूरतम इंसान भी जीवन में कभी-कभी बेहद भावुक क्यों  हो जाता है? अगर तैरना नहीं जानने वाला व्यक्ति पानी में कूदकर एक तितली की जान बचाता है तो वही आदमी लाखों लोगों को मौत के घाट क्यों उतार देता है? कुल मिलाकर यह पूरा मसला मुझे एक कविता के लिए उपयुक्त  लगा और सहज ही कविता रचती चली गई, ‘तानाशाह और तितली’। 

ऑक्टोमवियो पॉज जब कविता को ‘इतिहास और सच्चाई के बीच का स्थगित यानी सस्पेंडेड पुल कहते हैं तो बात कुछ समझ में आती है। पॉज का उपर्युक्त‍ कवितांश एक छोटा-सा दृश्य है जो एक कवि की रचना-प्रक्रिया को मेरे निजी अनुभव के तौर पर स्पष्ट करता है। हॉलीवुड की बहुचर्चित फिल्मर ‘स्पीनड’ के एक दृश्य में बस एक अधबने हाइवे के बीच जब पहुंचती है तो चालक को पता चलता है कि आगे एक पुल है जो अधूरा बना पड़ा है। बीच का एक खासा लंबा हिस्सा सड़कविहीन है। फिल्मे में बस जब स्लो मोशन में उस लंबी खाई जैसे विशाल अंतराल को पार करती है तो दर्शकों की सांसें थमी रह जाती हैं। लेकिन एक कवि-रचनाकार तो हमेशा ही उस जगह खड़ा होता है, जहां एक स्थगित, अर्धनिर्मित पुल के दो सिरों का केंद्र होता है। शायद कवि का काम उस पुल को बनाना है, जिसे वह जिंदगी भर करता रहता है और वो पुल कभी नहीं बनता, बस उसकी छवियां बनती हैं, जिनके आधार पर पाठक उस अंतराल को पार करते रहते हैं।  

मैं अपनी कविताओं में बहुत प्रश्न वाचक होता हूं तो शायद इसीलिये कि मुझे सवालों के जवाब चाहिये। ये सवाल कभी-कभी व्यक्तिगत होते हैं तो अधिकांश सार्वजनिक, क्योंकि एक लेखक का निजी रचनात्मभक संसार भी वस्तुत: सार्वजनिक ही होता है और सार्वजनिक तो रचना के स्तर पर बेहद व्यक्तिगत हो ही जाता है। इसलिये लेखक को दोनों स्तरों पर जूझना पड़ता है। शायद यही एक भिन्न प्रकार का आत्म संघर्ष भी है। मैं इस संघर्ष में हमेशा लड़ता ही रहा हूं, लेकिन किसी कविता के आखिर तक आते-आते मैं कभी-कभार ‘निर्णायक’ यानी जजमेंटल हो जाता हूं। एक कवि को शायद ऐसा नहीं करना चाहिये। लेकिन मेरे पास कुछ कच्चे फल हैं, मैं उन्हें चारे की भूसी में या अनाज के ढेर में दबाकर देखना चाहता हूं कि वे कब पकते हैं। यह प्रक्रिया मैं एक जल्द बाज आदमी की तरह हर बार करता हूं। 

‘प्रेम’ मेरे लिए कविता का सर्वाधिक प्रिय विषय है। असफल प्रेम और दैहिक प्रेम से परे एक अलग किस्म  का अनुपम प्रेम, जो मीरा से टैगोर और केदार नाथ अग्रवाल के रास्ते होता हुआ मुझ तक आया है। यह शायद आज के साइबर युग में अर्वाचीन नज़र आए, लेकिन मैं वहीं रहना चाहता हूं। क्यों  कि मेरा प्रेम देह से अधिक एक सामाजिक-मानवीय संबंध में निहित है, जो मुझसे एकाकार होते हुए भी अपनी स्वकतंत्र सत्ता रखता है। प्रेम किसी भी कवि को सबसे अधिक मानवीय और संवेदनशील बनाता है, इसलिये निरंतर प्रेम में रहना कवि की नियति है। प्रेम का अर्थ कवि के लिए महज स्त्री -पुरुष के बीच का प्रेम नहीं है, मनुष्य् के सभी संबंधों में निहित है। 

मेरे पास जो कविताएं हैं, उनमें मैं सृष्टि और मानव समाज के सवालों को हल करने की कोशिश करता हूं। कई दफ़ा मैं एक चित्रकार की भांति सिर्फ एक दृश्य रचता हूं, ऐसे में सवाल खामोशी के साथ सामने आते हैं। इसलिए जब ऑक्टोविया पॉज कहते हैं कि कविता हलचल यानी मूवमेंट के भीतर की स्थिरता को देखने की क्रिया है तो मुझे लगता है कि नहीं कविता तो स्थिरता के बीच हलचल यानी परिवतर्न को देखते रहने की क्रिया भी है। मित्रों और परिजनों की अनुपस्थिति में यानी प्राय: एकांत में, मैं सृष्टि की स्थिरता को इतिहास और वर्तमान यथार्थ के स्थेगित पुल के अधूरे हिस्से के केंद्र में खड़ा होकर देखता हूं या कि ऐसा करने की कोशिश करता हूं। इसमें मैं कितना सफल होता हूं यह देखना पाठकों और आलोचकों का काम है। 

कई बार मैं किसी दूसरे काम से अपने लेखक की तुलना करता हूं तो लगता है कि लिखना मेरे लिए असल में कुम्हार जैसा काम है। कागज मेरे लिए कुम्हाेर का चाक है, जिस पर मुझे रचना है। अच्छेा सुंदर, मजबूत और काम में आने वाले बर्तन बनाना कुम्हामर का मुख्य  काम है। मेरे लिये लिखने का यही उद्देश्यक है, अच्छा  लिखूं, जो लोगों की सौंदर्याभिरूचि में इजाफा करे, लंबे समय तक लोग याद रखें और गाहे-बगाहे काम आ सके। जैसे कुम्हाचर को अच्छे, बर्तन बनाने के लिए अच्छी  चिकनी मिट्टी की जरूरत होती है तो वह उसके स्रोत खोजता रहता है, मेरे लिए विषय खोजना ऐसा ही काम है। अच्छी मिट्टी की खोज में सदियों से जैसे कुम्हार दूर-दराज की यात्राएं करता रहता है, मैं भी विचार-कल्पनाओं की अनथक यात्राओं में सफर करता रहता हूं। 

दरअसल इसे किसी गृहिणी की पाक कला से भी जोड़कर देख सकते हैं जिसके लिए मसाला ही असल मसला है, बाकी तो खाली तसला है। हमारे राजस्थान में जहां साग-सब्जियों की बहुत कमी होती है, वहां मसाले बहुत कारगर होते हैं, इसे मैंने बचपन से देखा है। गाजर-मूली के पत्ते, ग्वातर-खींप की फलियां, गाजर और बहुत सारी सब्जियां और उनके पत्तेो सुखा लिये जाते हैं और गर्मियों में इनसे ही सब्जी बनाकर काम चलाया जाता है। इतना ही नहीं हमारे यहां तो रोटी की भी सब्जी बनाई जाती है। घर में सब्जी नहीं हो तो सूखी रोटियां मसालों में पका ली जाती हैं। अब तो बाजार में चोकर अलग से मिलता है, हमने तो बचपन में अभाव के दिनों में चोकर को आटे में मिलाकर पकाई गई रोटियां खाई हैं। तो बचपन से ही अपने परिवेश से यह जानने को मिला कि चीजों को कितने विविध तरीकों से देखा जा सकता है, कि कोई चीज अनुपयोगी नहीं, सबका कोई न कोई इस्तेमाल किया जा सकता है। हमारी गुवाड़ी में मिट्टी का एक बड़ा कुंडा या कि तसला होता था। गुवाड़ी में हमारे परिवार के ही चार घर थे। तो गुवाड़ी में कोई भी अनुपयोगी कागज जैसे खाली लिफाफा वगैरह उस पानी भरे मिट्टी के तसले में डाल दिये थे और जब कुंडा भर जाता तो एक दिन महिलाएं उसे खाली कर कागज के मजबूत उपयोगी भगोने के आकार के बर्तन बनाती थीं और इस तरह मैंने लिखने-पढ़ने से पहले कागज का जीवन में उपयोगी इस्तेमाल देखा। घर-परिवार की स्त्रियों को मैंने इतनी तरह के रचनात्मक और मेहनती काम करते देखा कि आज सोचता हूं तो उनकी रचनात्मकता समझ में आती है। चीजों को अलग ढंग से देखने की दृष्टि कदाचित वहीं से मिली। हमारा घर रेत के एक टीले के पास था। हम उस टीले पर खेलते थे और मैं रेत पर चढ़ते-चलते चींटों-चींटियों को देखकर सोचता था कि वे पहाड़ पर चढ़ रही हैं, कितना संघर्ष करना पड़ता है उन्हें  अपनी नन्ही जान के साथ।...और पहाड़ हमारे घर से बहुत दूर नहीं था, जिस पर जाकर आने वाले संगी-साथी उसके किस्से सुनाते थे। इस तरह एक कल्पनाशीलता ने जन्म लिया था। मुझे महिलाओं के गीत बहुत पसंद थे और मैं अक्सर उनके बीच ही रहता था, इसलिए मुझे बहुत-से गीत याद हो गये थे। शायद उन गीतों को सुनते हुए ही रचने की मानसिकता बनी हो। 

खैर ये किस्सा फिर कभी। अभी तो रचना प्रक्रिया की बात करते हैं। बात कुम्हार की तरह रचने की चल रही थी, तो अब देखिये कुम्हार अपनी सारी सृष्टि खुले में रचता है। मतलब कुदरत की छाया में, हवा, धूप, पानी और तमाम किस्म  की बदबुओं और खुश्बुनओं के बीच। तो मैं भले ही घर के अपने कमरे में बैठकर लिखता हूं, लेकिन ज़ेहन के सारे दरवाजे कुदरत की इन नायाब चीजों के लिए खोलकर रखता हुआ ही रचता हूं। जैसे चाक पर बैठकर कुम्हार प्रजापति हो जाता है, लेखक भी सर्जक हो जाता है। अब उसकी जिम्मेरदारी होती है कि वह कुम्हार की तरह उपयोगी रचे, जो लोगों के काम आ सके। कुम्हार तो मौसम और लोगों की जरूरतें देखकर रचता है, लेखक अपने समय और भविष्य् को देखकर। कोई रचना खराब हो जाती है तो कुम्हार उसे वापस मिट्टी में मिला देता है और फिर से रचता है। लेखक को भी यही करना चाहिये। खराब या असुंदर, अधकचरी रचनाएं खारिज कर देनी चाहियें, मैं ऐसा करता रहता हूं, मेरे पास बरसों पुरानी अधूरी रचनाएं हैं, जो शायद समय आने पर कभी पकेंगी तो कुछ अच्छा  निकल सकेगा। कुम्हार के पास यह सुविधा होती है कि कच्ची मिट्टी के लौंदे से अगर सही आकार की इच्छित वस्तु नहीं बनी तो वो उसे वापस मिट्टी में मिला देता है, कवि-लेखक उसे भविष्य  के लिए सम्हालकर रख लेता है कि इस कच्चे खयाल को पका कर कभी अच्छा बनाया जा सकता है। 

सआदत हसन मंटो ने अहमद नदीम कासिमी को एक ख़त में लिखा था, ‘मैं बहुत कुछ लिखना चाहता हूं, मगर कमजोरी... वह स्थायी थकावट, जो मेरे ऊपर तारी रहती है, कुछ करने नहीं देती। अगर मुझे थोड़ा सा सुकून भी हासिल हो, तो मैं वो बिखरे हुए ख़यालात जमा कर सकता हूं, जो बरसात के पतंगों की तरह उड़ते रहते हैं, मगर... अगर अगर... करते ही किसी रोज़ मर जाउंगा और आप भी यह कहकर ख़ामोश हो जाएंगे, मंटो मर गया।‘ मेरा मानना है कि हरेक सच्चे रचनाकार के आसपास मंटो की तरह ही ख़यालों के पतंगे चक्कर काटते रहते हैं, देखना यह है कि हम कितने ख़यालों को तरतीब दे सकते हैं। असंख्य  कविताओं के बिंब हमसे बारहा छूट जाते हैं, क्योंकि बेख़याली में हम उन पर ध्यान ही नहीं दे पाते। इस पर मुझे मायकोव्की  की एक बात बहुत याद आती है, उन्होंने कहा था कि एक कवि के पास अपनी कविताओं की डायरी हमेशा रहनी चाहिए। मायकोव्की आत  का कहना इस मायने में महत्व रखता है कि अगर आपके आपकी नोटबुक होगी तो आप तुरंत किसी भी उड़ते हुए ख़याल को लिख सकते हैं, जो बाद में रचना में रूपांतरित हो सकता है। 

मैंने कुछ बरस इन बातों का ध्यान नहीं रखा और बहुत पछताता हूं कि उस दौर में ना जाने कितनी बेहतरीन कविताएं मुझसे छूट गईं। अब कुछ सालों से इसे ठीक से निभा रहा हूं तो देख रहा हूं कि कितना कुछ महत्वपूर्ण हासिल हो रहा है। कवि मित्र गिरिराज किराडू से एक दिन किसी प्रसंग में मैंने कह दिया कि नास्तिकों की भाषा में सांत्वना के शब्द नहीं होते। यह बात मैंने नोट कर ली और करीब एक साल तक इस पर विचार करता रहा, फिर एक दिन कुछ पंक्तियां आईं तो अगले तीन दिन तक पूरी शृंखला डायरी में उतरती चली गई। इसी तरह एक दिन जयपुर के पुराने इतिहास के बारे में कुछ पढ़ रहा था कि खुद को किसी बारादरी में टहलते हुए पाया। यह भाषा की बारादरी थी, जिसमें तमाम दिशाओं से भाषा, समय और समाज की चिंताएं मुझे तेज़ चहलक़दमी करने के लिए उकसा रही थीं। उस बारादरी में जब मैं तेज़-तेज़ चल रहा था, तो मेरा बीपी बेतहाशा बढ़ रहा था, और हाथ कांपते हुए बड़ी तेज़ी से लिखे जा रहे थे। अगले तीन दिनों मैं उसी बारादरी में टहलता रहा। 

जब आप चीज़ों को बड़े पैमाने पर देखते हैं तो इतिहास, वर्तमान और भविष्य सब एकमेक हो जाते हैं। अपने समय के सवालों के जवाब के लिए पता नहीं कहां-कहां मन आपको लिये जाता है। अनजान, गुमनाम और अदेखे प्रदेश आपकी आंखों में दृश्यकमान होते जाते हैं। कवि-कथाकार मित्र दुष्यं त ने पूछा कि भाषा वाली सीरिज में क्याय अब भी कुछ बाकी बचा है?  मुझे लगा कि अरे सच में इस पर और विचार करते हैं, तो एक दिन राह चलते ‘भाषा का भूगोल’ शीर्षक आया। फिर इस कविता ने मुझे करीब दो महीने बेहद तनाव में रखा, इसके दो ड्राफ्ट कर चुका हूं, लेकिन अभी भी यह पूरी नहीं हुई है। यह बहुत बड़ी और मेरी सबसे महत्वाफकांक्षी कविता है, इसे अगर मैंने ठीक से निभा लिया तो शायद मेरा कविता लिखना सार्थक हो जाएगा। 

मैं एक घनघोर किस्म  का नास्तिक आदमी हूं, इसलिये मुझे अपने लिए ताकत कई जगह से बटोरनी होती है। मेरी पत्नी मधु मेरी सबसे बड़ी ताक़त है और मेरी बेटियां भी। उनका समय चुराकर ही मैं लिख-पढ़ पाता हूं, उनका विश्वास और हौसला मुझे मज़बूत बनाए रखता है। भगत सिंह मेरी दूसरी बड़ी शक्ति है और शायद यही अंतिम भी। हर संकट में मुझे कविता बचाये रखती है, पता नहीं कैसे, किसी भी मुसीबत में मैं कविता के पास जाता हूं और वह मुझे एक नया मनुष्य बना देती है। 

प्रत्येक मानवीय संबंध मुझे बहुत नैसर्गिक लगता है और जब मैं इनकी समीक्षा करता हूं तो बहुत भावुक हो जाता हूं और यह भावुकता मनुष्यता के संबंधों को वैश्विक आकार में देखने के लिए अपने साथ लिये चलती है। इसी वजह से मुझे मनुष्यता पर गहरा विश्वास है, इसलिए मैं बहुत-सी जगह निर्भय रहता हूं, क्योंकि मुझे यक़ीन रहता है कि मनुष्य अगर अच्छे हैं तो सब ठीक रहेगा, अगर उनके विचार धर्म, संप्रदाय और जाति आदि कारणों से दूषित नहीं हो गये। इसी मनुष्यता को बचाये रखने की जद्दोजहद मैं करता रहता हूं। हमेशा से मानता आया हूं और इसी पर कायम रहता हूं कि जो रचेगा, वही बचेगा। ईश्वर नाम की काल्पनिक सत्ता भी इस दुनिया को रचने के मिथ के कारण ही बची हुई है।  

prempoet@gmail.com 






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11 टिप्पणियाँ

  1. मै भी आपकी तरह लिखना चाहूँगा सर,विचार पसन्द आये

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  2. ham sach main kya h bhitar se - ise talashne ki jadojahad main umr nikal jati h prem ji. aapne badi hi babaaki se khud ko rachnaprakriya ke bahane abhivyakt kar diya. choti si hi baat aur use dekhne ka najariya aapko doosro se alag karte h.

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. लेखक की बड़ी सफलता उसी समय सिद्ध होती है , जब पाठक उसे अपना समझने और मानने लगता है .|..इसे पढने के बाद ऐसा लगता है , कि यह हमारी ही बात है |...हम जिस मौन को जी रहे थे , उसे आपने शब्द दे दिया .....बढ़िया ..और बधाई आपको

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  5. प्रेमचंद जी ने इस आलेख में जैसे मेरे ही मन की बात कह दी हो, मेरी ही व्यथा को स्वर दे दिये हों और मेरी ही प्रसव पीडा में मेरे बराबर खडे हो कर ये शब्द मणिकायें मुझे थमा दी हों. यह मात्र लेख नहीं..कविता अथवा लेखन प्रक्रिया जो सीधी साधी ज़ुबान में व्याख्या करने वाला दस्तावेज़ है, इसे पढना हर उस व्यक्ति के लिये आवश्यक है जिसका रचना धर्म जरा सा भी नाता है...बस यूं कहिये कि यह एक बडा काम आपसे हो गया....मुबारकबाद स्वीकार करें.

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  6. बहुत कुछ सीखा प्रेम चंद्र जी से धन्यवाद।

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  7. padate huye laga jaise main khud se baten karane laga hun....aapaki rachana prakriya se parichit hone ke bad aapaki rachanaon ka aaswad bad jayega...bahut sahaj abhivyakti hai padate huye aanand aaya . ....badhayi...ramji bhayi ke in shabdon ko main bhi doharana chahungaलेखक की बड़ी सफलता उसी समय सिद्ध होती है , जब पाठक उसे अपना समझने और मानने लगता है .|.badhayi..sahitya shilpi ka naya kalewar pasand aaya.

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  8. प्रेम चंद के इस आलेख को पढ़कर कवि, रचनाकार प्रेमचंद जी के साथ साथ व्यक्ति प्रेम चंद से भी मुलाकात अद्भुत रही, कुछ प्रसंग बेहद मार्मिक रहे, जिनकी वर्णन शैली लेखक की rachnatmakta के sikhar से ru-ba-ru karwati hai,...koi भी ye nahi bata sakta की vah लेखक kaise bana kintu rachnadharmita की yatra के padhvon par प्रेम चंद जी के साथ chalna achha laga......sunder alekh hetu badhai.....(net ki vajah se tippani nahi kar pa rahi hoon....mushkil se likha)

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  9. बहुत प्रश्न वाचक होता हूं तो शायद इसीलिये कि मुझे सवालों के जवाब चाहिये। ये सवाल कभी-कभी व्यक्तिगत होते हैं तो अधिकांश सार्वजनिक, क्योंकि एक लेखक का निजी रचनात्मभक संसार भी वस्तुत: सार्वजनिक ही होता है और सार्वजनिक तो रचना के स्तर पर बेहद व्यक्तिगत हो ही जाता है।
    ....
    एक रचनाकार के मन को जानने की यह खिड़की है. प्रिय कवि प्रेमचन्द गाँधी के विषय में बहुत कुछ जानने को मिला. आभार

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  10. सवाल वहीं अच्छें होते हैं जिनके जवाब न मिले .... आभार

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