HeaderLarge

नवीनतम रचनाएं

6/recent/ticker-posts

[प्रेरक प्रसंग] - महात्‍मा गांधी की आत्‍मकथा से एक अंश



 "चोरी और प्रायश्चित"

मांसाहार के समय के और उससे कुछ पहले के कुछ दोषों का वर्णन अभी रह गया है। ये बातें विवाह पूर्व की अथवा उसके तुरंत बाद की हैं।


मेरे एक रिश्तेदार के साथ मुझे बीड़ी-सिगरेट पीने का चस्का लगा। हमारे पास पैसे तो होते नहीं थे। हम दोनों में से किसी को यह पता नहीं था कि सिगरेट पीने से कोई फायदा होता है या उसकी गंध में कोई आनंद होता है। लेकिन हमें लगा कि सिगरेट का धुंआ उड़ाने में ही असली मज़ा है। मेरे चाचा को सिगरेट पीने की लत थी। उन्हें और दूसरे बुजुर्गों को धूंआ उड़ाते देख हमारी भी सिगरेट फूंकने की इच्छा हुई। गांठ में पैसे तो थे नहीं, इसलिए चाचा सिगरेट पीने के बाद जो ठूंठ फेंक देते, हमने उन्हें ही चुरा कर पीना शुरू कर दिया।

लेकिन सिगरेट के ये ठूंठ हर समय तो मिल नहीं सकते थे और इनमें से धूंआ भी बहुत नहीं निकलता था। इसलिए नौकर की जेब में पड़े पैसों में से एकाध पैसा चुराने की आदत डाली और इन पैसों से हम बीड़ी खरीदने लगे। लेकिन अब सवाल पैदा हुआ कि उसे संभाल कर रखें कहां? हम जानते थे कि बुजुर्गों की निगाह के सामने तो हम बीड़ी-सिगरेट पी ही नहीं सकते। जैसे-तैसे दो चार पैसे चुरा कर कुछ हफ्ते काम चलाया। इस बीच पता चला कि एक तरह का पौधा होता है (उसका नाम तो मैं भूल ही गया हूं) जिसके डंठल सिगरेट की तरह जलते हैं और फूंके जा सकते हैं। हमने ऐसे डंठल खोजे और उन्हें सिगरेट की तरह फूंकने लगे।

लेकिन इससे हमें संतोष न हुआ। अपनी पराधीनता हमें अखरने लगी। हमें दु:ख इस बात का था कि बड़ों की आज्ञा के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते थे। हम ऊब गये और हमने आत्महत्या कर फैसला कर डाला!

पर आत्महत्या कैसे करें? ज़हर कौन देगा? हमने सुना कि धतूरे के बीज खाने से मृत्यु हो जाती है। हम जंगल में जा कर धतूरे के बीज ले आये। शाम का समय तय किया। केदारनाथ जी के मंदिर में दीप माला में घी चढ़ाया, भगवान के दर्शन किये और सुनसान जगह की तलाश की। लेकिन ज़हर खाने की हिम्मत न हो। अगर तुरंत मृत्यु न हुई तो क्या होगा? मरने से लाभ क्या? क्यों न पराधीनता ही सह ली जाये? फिर भी दो-चार बीज खाये। अधिक बीज खाने की हिम्मत ही न हुई। हम दोनों ही मौत से डरे और तय किया कि राम जी के मंदिर में दर्शन करके शांत हो जायें और आत्महत्या करने की बात भूल जायें।

मैं इस बात को समझ पाया कि मन में आत्महत्या का विचार लाना कितना आसान है और सचमुच आत्महत्या करना कितना मुश्किल। इसलिए जब कोई आत्महत्या करने की धमकी देता है तो मुझ पर उसका बहुत कम असर होता है या यह भी कहा जा सकता है कि बिल्कुल भी नहीं होता।

आत्महत्या के इस विचार का नतीजा ये हुआ कि हम दोनों की सिगरेट चुरा कर पीने की और नौकरों की जेब से पैसे चुरा कर सिगरेट फूंकने की आदत जाती रही। बड़े हो कर सिगरेट पीने की कभी इच्छा ही नहीं हुई। मैं हमेशा यही मान कर चलता रहा कि सिगरेट पीने की आदत जंगली, गंदी और नुक्सानदायक है। मैं आज तक इस बात को समझ नहीं सका हूं कि पूरी दुनिया में सिगरेट-बीड़ी पीने या धूम्रपान करने का इतना शौक क्यों है? रेलगाड़ी के जिस डिब्बे में सिगरेट पी जाती है, उसमें बैठना मेरे लिए मुश्किल हो जाता है और धूएं से मेरा दम घुटने लगता है।

सिगरेट के ठूंठ चुराने और इस सिलसिले में नौकर की जेब से पैसे चुराने का दोषी तो मैं हूँ ही, एक और चोरी का जो दोष हुआ मुझसे, मैं उसे ज्यादा गम्भीर मानता हूँ। सिगरेट पीने के दोष के समय मेरी उम्र बारह या तेरह बरस की रही होगी। शायद इससे भी कम हो। दूसरी चोरी के समय मेरी उम्र पंद्रह बरस के आसपास थी। यह चोरी मेरे मांसाहारी भाई के सोने के कड़े के एक टुकड़े की थी। उन पर मामूली-सा, लगभग पच्चीस रुपये का कर्ज हो गया था। हम दोनों भाई इस बात को ले कर परेशान थे कि ये कर्ज कैसे चुकाया जाये। मेरे भाई के हाथ में खरे सोने का कड़ा था। उसमें से एक तोला सोना काट लेना मुश्किल न था।

कड़ा कटा। कर्ज चुकाया गया। लेकिन मेरे लिए यह बात सहन करना आसान न था। मैंने तय किया कि आगे से कभी चोरी नहीं करूंगा। मुझे ऐसा भी लगा कि पिताजी के सामने जा कर अपना गुनाह भी कबूल कर लेना चाहिये। लेकिन जुबान ही न खुले। इस बात का डर तो था ही नहीं कि पिताजी पीटेंगे। इस बात की कोई याद नहीं थी कि कभी उन्होंने किसी भाई को पीटा-वीटा हो। लेकिन खुद तो दु:खी होंगे ही ना! शायद सिर फोड़ लें! मैंने यह सोचा‍ कि यह जोखिम उठाते हुए भी अपने दोष को कबूल करना ही होगा। इसके बिना शुद्धि नहीं होगी।

आखिर मैंने तय किया कि एक पत्र लिख कर अपना दोष स्वीकार कर लिया जाये और माफी मांग ली जाये। मैंने पत्र लिख कर उन्हें हाथों-हाथ थमा दिया। पत्र में मैंने सब दोष स्वीकार किये और सज़ा मांगी। आग्रहपूर्वक यह विनती भी की कि वे अपने आपको दु:ख में न डालें और भविष्य में ऐसा अपराध फिर न करने की प्रतिज्ञा की।

मैंने कांपते हाथों से पत्र पिताजी के हाथ में थमाया। मैं उनके तख्त के सामने बैठ गया। उन दिनों वे भगंदर के रोग से पीडि़त थे। इस कारण बिस्तर पर ही पड़े रहते थे। खटिया के बदले तख्त से काम लेते थे।

उन्होंने पत्र पढ़ा। उनकी आंखों से मोती टपकने लगे। पत्र भीग गया। उन्होंने पल भर के लिए आंखें मूंदी, पत्र फाड़ डाला। पत्र पढ़ने के लिए वे उठे थे, वापिस लेट गये।

मैं भी रोया। पिताजी का दु:ख समझ सका। यदि मैं चित्रकार होता तो उस पल का सम्पूर्ण चित्र बना सकता था। वह दृश्य आज भी मेरी आंखों के सामने जस का तस झिलमिला रहा है।

मोती की बूंदों के उस प्रेम बाण ने मुझे बेध डाला। मैं शुद्ध हो गया। इस प्रेम को तो वही जान सकता है जिसे इसका अनुभव हुआ हो। राम की भक्ति का बाण जिसे लगा हो, वही जान सकता है।

मेरे लिए ये अहिंसा का साक्षात पाठ था। उस समय तो मैंने इसमें पिता के प्रेम के अतिरिक्त कुछ न देखा। परंतु आज मैं इसे शुद्ध अहिंसा के नाम से पहचान सकता हूं। ऐसी अहिंसा जब विराट रूप धारण कर लेती है तो उसके स्पर्श से कौन बच सकता है। ऐसी विराट अहिंसा की थाह लेना असंभव है।

ऐसी शांत क्षमा पिता के स्वभाव के प्रतिकूल थी। मैं तो ये मान कर चल रहा था कि वे गुस्सा होंगे, कड़वे बोल बोलेंगे, शायद सिर भी फोड़ें, लेकिन उन्होंने जिस तरह से अपार शांति धारण की, मेरे विचार से उसके पीछे अपराध की सरल स्वीकृति थी। जो व्यक्ति अधिकारी के सामने स्वेच्छा से और निष्कपट भाव से अपने दोष को स्वी्कार कर लेता है और फिर कभी वैसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा करता है तो वह शुद्धतम प्रायश्चित करता है।

मैं जानता हूँ कि इस स्वीकृति से पिताजी मेरे बारे में निर्भय बने और मेरे प्रति उनका असीम प्रेम और भी बढ़ गया।

एक टिप्पणी भेजें

2 टिप्पणियाँ

आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.

आइये कारवां बनायें...

~~~ साहित्य शिल्पी का पुस्तकालय निरंतर समृद्ध हो रहा है। इन्हें आप हमारी साईट से सीधे डाउनलोड कर के पढ सकते हैं ~~~~~~~

डाउनलोड करने के लिए चित्र पर क्लिक करें...