दुःख की तासीर
पिछले दो-तीन दिन से
बेटा नहीं कर रहा सीधी मुँह बात
मुझे बहुत याद आ रहे हैं
अपने माता-पिता
और उनका दुःख
देखो ना! कितने साल लग गए मुझे
उस दुःख की तासीर समझने में।
----------
दुःख और कविगण
दुःख की नदी हरहरा रही है
कविगण विमर्श कर रहे हैं
कुछ ने कविता की नाव बनाई
तरह-तरह की धातुओं से
खूब सजायी-धजाई
नाव से भारी हो गई उसकी सजावट
नदी में उतारने तक डूब गई नाव
कुछ ने कविता को जूते दिए
चम्म चमकते जूते
नदी में जाते ही जूते भर गए दुःख से
भूल गए कविगण
जूते पैरों की सुरक्षा कर सकते हैं
पार नहीं लगा सकते किसी को
कुछ ने कविता को बलिष्ठ शरीर
और तीव्र मस्तिष्क दिया
उतार दिया उसे लहरों के विरूद्ध
नदी देखते-देखते पार हो गई।
----------
भावी कर्णधार
उतरवाए जा रहे हैं जूते-मौजे
उलटवाई जा रही हैं खल्दियॉ-आस्तीनें
पेंट की कमर और मुहरियॉ
छात्राओं के अंतःवस्त्रांे तक की
की जा रही है जॉच
हथेलियों, बॉहों और पिंडलियों में
खोजा जा रहा है कि
कहीं लिखा न गया हो कोई
शब्द या वाक्य
कड़ी जॉच से गुजरने के बाद ही
प्रवेश दिया जा रहा है
परीक्षा कक्ष में
कक्ष निरीक्षकों की नजरें
टिकी हैं उन पर
जैसे एल.ओ.सी .पर
सैनिकों की नजरें दुश्मन पर ।
औचक
टूट पड़ते हैं उड़न दस्ते
एक बार फिर दोहराई जाती है
सघन जॉच की वही प्रक्रिया
बावजूद इसके
सेंध लगा ही लेते हैं वे
कक्ष निरीक्षकों की नजरों पर
एक्स-रे की तरह हो गई हैं उनकी आँखें
कान अतिरिक्त चौकन्ने
पिन गिरने की आवाज को भी सुन लेते हैं अभी वे
और देख लेते हैं धुँधले से धँुधले अक्षरों को भी
एक-एक शब्द और वाक्य की तलाश में
भटक रहे हैं उनके आँख-कान
जैसे बेघर घर की तलाश में ।
येन-केन प्रकारेण जोड़-जुगत कर
भर लेना चाहते हैं वे उत्तर पुस्तिकाएं
उनके मन में नहीं है कोई अपराध बोध
बल्कि इसको अपने अक्लमंद होने के
प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करते हैं वे
सूख कर काठ हो गई है इनकी आत्माएँ
भावी कर्णधार हैं ये देश के।
----------
क्यों न कोसूँ
दिल्ली को
क्यों न कोसूँ मैं
मेरा भाई
जिसको चिंता थी गाँव की
उसके रहवासियों की
अंधेरे को लेकर
जिसके भीतर आक्रोश था
छटपटाहट थी
एक आग जलती रहती थी
एक कीड़ा कुलबुलाता रहता था
एक दिन
जो यह कहकर गया था दिल्ली
रोशनाई लेकर आएगा हम सब के लिए।
पहली बार गया था जैसा
वैसा फिर लौटकर नहीं आया दोबारा
स्मृतिदोष से ग्रस्त होता चला गया वह
हमें पहचानता तक नहीं अब
और न वह अब
सीधे-सीधे पहचाना जाता है हमसे
बदल गई है उसकी चाल-ढाल
बदल गया है उसका बोलचाल
रतौंधी सा कुछ हो गया है
अब दिल्ली से बाहर
कुछ दिखाई ही नहीं देता है उसे ।
न जाने ऐसे और कितनों के
कितने भाई-बहनों को छीना है
इस दिल्ली ने
किया है रोगग्रस्त
आखिर क्यों न कोसूँ ऐसी दिल्ली को।
----------
तुम स्वतंत्र कहाँ
उठते-उठते
किसका मुँह देखना है , किसका नहीं
कहाँ जाना है ,कहाँ नहीं
दिशा कौन सी है , कहीं दिशा शूल तो नहीं
दिन कौनसा है ,मंगल-शनि तो नहीं
कौनसा रंग पहनना है आज के दिन ,कौनसा नहीं
दाड़ी-बाल-नाखून आज के दिन काटे जा सकते हैं कि नहीं
घर से निकलते ही
कहीं
छींक दिया किसी ने
नजर पड़ गयी गर खाली बर्तनों पर
या काट दिया बिल्ली ने रास्ता
अब जा नहीं सकते सीधे आगे
काटे बिना अरिष्ट को
करना है कुछ टोना-टुटका
फिर भी काम नहीं हो जाने तक पूरा
एक आशंका घेरे रखती है मन को
लौटते हो घर पर
मन कर रहा है लपकर अपने नन्हे को गोद में उठाने का
अग्नि को छूए बिना पास नहीं फटक सकते उसके
पेट में बल रही हो जठराग्नि
दीया-बाती किए बिना खा नहीं सकते हो कुछ भी
और भी लंबी हो सकती है यह सूची
जकड़े है जो जंजीरों सी
फिर भी कैसे कहते हो तुम-
मैं स्वतंत्र हूँ......निर्भय हूँ
अपने निर्णय खुद लेता हूँ।
----------
क्या सचमुच ऐसा है?
ठोक-पीटकर इंसान गढ़ने वाले
हम ज्ञानी
हम अंतर्यामी
हम गंगलोढ़ों को मूर्ति में बदलने वाले
तुलसी से सीखा हमने-
भय बिन होत न प्रीत
कबीर से
गुरू-शिष्य परम्परा ।
हम जानते हैं अच्छी तरह
सीखने को अनुशासन बहुत जरूरी है
डंडा छूटा ,बच्चा बिगड़ा
बिना पीटे लोहे में धार कहाँ
हमने भी तो ऐसे ही सीखा
गुरू कृपा बिन ज्ञान कहाँ
स्साले समझते नहीं कुछ बच्चे
हम दुश्मन तो नहीं उनके
कुछ सिरफिरे हैं हमारे बीच भी
बधेका , नील ,वसीली , होल्ट ......
पता नहीं किस-किस का नाम लेते हैं
सस्ती लोकप्रियता पाने को
सिर चढ़ाते हैं बच्चों को
जानते नहीं कि बच्चों का भविष्य बिगाड़ रहे हैं।
आखिर बच्चों को क्या पात सही-गलत का
कच्ची मिट्टी के लौंदे ठहरे बच्चे
बच्चे क्या जानते हैं
उन्हें तो हम सीखाएंगे ना!
हम नहीं देंगे छूट तनिक भी
हम खूब जानते हैं प्रतिफल उसका
सिद्धांत की बात कुछ और होती है
व्यवहार की कुछ और
घोड़े को कैसे कब्जे में रखा जाता है घुड़सवार ही जानता है।
समझते नहीं वे
अखरोट का हर दाना नहीं होता दॉती
बुद्धि तो ईश्वरीय देन है
फिर कुछ किस्मत का खेल है
किस्मत में नहीं विद्या
तब भला कहॉ से आएगी।
फिर सभी पढ़ने-लिखने में तेज हो गए
तब दुनिया कैसे चल पाएगी।
हमें कौन , क्या बताएगा
हम हैं ज्ञानी
हम हैं राष्ट्र निर्माता
हम हैं भाग्यविधाता
हम हैं ठोक-पीटकर इंसान गढ़ने वाले
ठोक-पीटकर इंसान बनाएंगे
कहने वाले कुछ भी कहते जाएं।
पिछले दो-तीन दिन से
बेटा नहीं कर रहा सीधी मुँह बात
मुझे बहुत याद आ रहे हैं
अपने माता-पिता
और उनका दुःख
देखो ना! कितने साल लग गए मुझे
उस दुःख की तासीर समझने में।
----------
दुःख और कविगण
दुःख की नदी हरहरा रही है
कविगण विमर्श कर रहे हैं
कुछ ने कविता की नाव बनाई
तरह-तरह की धातुओं से
खूब सजायी-धजाई
नाव से भारी हो गई उसकी सजावट
नदी में उतारने तक डूब गई नाव
कुछ ने कविता को जूते दिए
चम्म चमकते जूते
नदी में जाते ही जूते भर गए दुःख से
भूल गए कविगण
जूते पैरों की सुरक्षा कर सकते हैं
पार नहीं लगा सकते किसी को
कुछ ने कविता को बलिष्ठ शरीर
और तीव्र मस्तिष्क दिया
उतार दिया उसे लहरों के विरूद्ध
नदी देखते-देखते पार हो गई।
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भावी कर्णधार
उतरवाए जा रहे हैं जूते-मौजे
उलटवाई जा रही हैं खल्दियॉ-आस्तीनें
पेंट की कमर और मुहरियॉ
छात्राओं के अंतःवस्त्रांे तक की
की जा रही है जॉच
हथेलियों, बॉहों और पिंडलियों में
खोजा जा रहा है कि
कहीं लिखा न गया हो कोई
शब्द या वाक्य
कड़ी जॉच से गुजरने के बाद ही
प्रवेश दिया जा रहा है
परीक्षा कक्ष में
कक्ष निरीक्षकों की नजरें
टिकी हैं उन पर
जैसे एल.ओ.सी .पर
सैनिकों की नजरें दुश्मन पर ।
औचक
टूट पड़ते हैं उड़न दस्ते
एक बार फिर दोहराई जाती है
सघन जॉच की वही प्रक्रिया
बावजूद इसके
सेंध लगा ही लेते हैं वे
कक्ष निरीक्षकों की नजरों पर
एक्स-रे की तरह हो गई हैं उनकी आँखें
कान अतिरिक्त चौकन्ने
पिन गिरने की आवाज को भी सुन लेते हैं अभी वे
और देख लेते हैं धुँधले से धँुधले अक्षरों को भी
एक-एक शब्द और वाक्य की तलाश में
भटक रहे हैं उनके आँख-कान
जैसे बेघर घर की तलाश में ।
येन-केन प्रकारेण जोड़-जुगत कर
भर लेना चाहते हैं वे उत्तर पुस्तिकाएं
उनके मन में नहीं है कोई अपराध बोध
बल्कि इसको अपने अक्लमंद होने के
प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करते हैं वे
सूख कर काठ हो गई है इनकी आत्माएँ
भावी कर्णधार हैं ये देश के।
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क्यों न कोसूँ
दिल्ली को
क्यों न कोसूँ मैं
मेरा भाई
जिसको चिंता थी गाँव की
उसके रहवासियों की
अंधेरे को लेकर
जिसके भीतर आक्रोश था
छटपटाहट थी
एक आग जलती रहती थी
एक कीड़ा कुलबुलाता रहता था
एक दिन
जो यह कहकर गया था दिल्ली
रोशनाई लेकर आएगा हम सब के लिए।
पहली बार गया था जैसा
वैसा फिर लौटकर नहीं आया दोबारा
स्मृतिदोष से ग्रस्त होता चला गया वह
हमें पहचानता तक नहीं अब
और न वह अब
सीधे-सीधे पहचाना जाता है हमसे
बदल गई है उसकी चाल-ढाल
बदल गया है उसका बोलचाल
रतौंधी सा कुछ हो गया है
अब दिल्ली से बाहर
कुछ दिखाई ही नहीं देता है उसे ।
न जाने ऐसे और कितनों के
कितने भाई-बहनों को छीना है
इस दिल्ली ने
किया है रोगग्रस्त
आखिर क्यों न कोसूँ ऐसी दिल्ली को।
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तुम स्वतंत्र कहाँ
उठते-उठते
किसका मुँह देखना है , किसका नहीं
कहाँ जाना है ,कहाँ नहीं
दिशा कौन सी है , कहीं दिशा शूल तो नहीं
दिन कौनसा है ,मंगल-शनि तो नहीं
कौनसा रंग पहनना है आज के दिन ,कौनसा नहीं
दाड़ी-बाल-नाखून आज के दिन काटे जा सकते हैं कि नहीं
घर से निकलते ही
कहीं
छींक दिया किसी ने
नजर पड़ गयी गर खाली बर्तनों पर
या काट दिया बिल्ली ने रास्ता
अब जा नहीं सकते सीधे आगे
काटे बिना अरिष्ट को
करना है कुछ टोना-टुटका
फिर भी काम नहीं हो जाने तक पूरा
एक आशंका घेरे रखती है मन को
लौटते हो घर पर
मन कर रहा है लपकर अपने नन्हे को गोद में उठाने का
अग्नि को छूए बिना पास नहीं फटक सकते उसके
पेट में बल रही हो जठराग्नि
दीया-बाती किए बिना खा नहीं सकते हो कुछ भी
और भी लंबी हो सकती है यह सूची
जकड़े है जो जंजीरों सी
फिर भी कैसे कहते हो तुम-
मैं स्वतंत्र हूँ......निर्भय हूँ
अपने निर्णय खुद लेता हूँ।
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क्या सचमुच ऐसा है?
ठोक-पीटकर इंसान गढ़ने वाले
हम ज्ञानी
हम अंतर्यामी
हम गंगलोढ़ों को मूर्ति में बदलने वाले
तुलसी से सीखा हमने-
भय बिन होत न प्रीत
कबीर से
गुरू-शिष्य परम्परा ।
हम जानते हैं अच्छी तरह
सीखने को अनुशासन बहुत जरूरी है
डंडा छूटा ,बच्चा बिगड़ा
बिना पीटे लोहे में धार कहाँ
हमने भी तो ऐसे ही सीखा
गुरू कृपा बिन ज्ञान कहाँ
स्साले समझते नहीं कुछ बच्चे
हम दुश्मन तो नहीं उनके
कुछ सिरफिरे हैं हमारे बीच भी
बधेका , नील ,वसीली , होल्ट ......
पता नहीं किस-किस का नाम लेते हैं
सस्ती लोकप्रियता पाने को
सिर चढ़ाते हैं बच्चों को
जानते नहीं कि बच्चों का भविष्य बिगाड़ रहे हैं।
आखिर बच्चों को क्या पात सही-गलत का
कच्ची मिट्टी के लौंदे ठहरे बच्चे
बच्चे क्या जानते हैं
उन्हें तो हम सीखाएंगे ना!
हम नहीं देंगे छूट तनिक भी
हम खूब जानते हैं प्रतिफल उसका
सिद्धांत की बात कुछ और होती है
व्यवहार की कुछ और
घोड़े को कैसे कब्जे में रखा जाता है घुड़सवार ही जानता है।
समझते नहीं वे
अखरोट का हर दाना नहीं होता दॉती
बुद्धि तो ईश्वरीय देन है
फिर कुछ किस्मत का खेल है
किस्मत में नहीं विद्या
तब भला कहॉ से आएगी।
फिर सभी पढ़ने-लिखने में तेज हो गए
तब दुनिया कैसे चल पाएगी।
हमें कौन , क्या बताएगा
हम हैं ज्ञानी
हम हैं राष्ट्र निर्माता
हम हैं भाग्यविधाता
हम हैं ठोक-पीटकर इंसान गढ़ने वाले
ठोक-पीटकर इंसान बनाएंगे
कहने वाले कुछ भी कहते जाएं।
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14 टिप्पणियाँ
दमदार कवितायेँ हैं. कवि और संपादक को धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंबहुत ही शानदार .....दमदार कवितायेँ .....गाँव की सौंधी मिटटी ले कर आती .....एक जैसी कवितायेँ बांचते बांचते ....ये ठंडी फुहार सी कवितायेँ सोचने को बाध्य करती हैं
जवाब देंहटाएंBahut Sunder
जवाब देंहटाएंमहेश भाई की कवितायेँ पढना मुझे बहुत पसंद है ....... इतनी कवितायेँ पाकर मैं आनंदीत हूँ ........सभी कवितायेँ बहुत अच्छी हैं..... खासकर पहली दोनों कवितायेँ .......... महेश भाई सरलता और सहजता से कठीन बात कहने के माहीर हैं
जवाब देंहटाएंविविधता लिए बहुत अच्छी कविताएं हैं। हर कविता एक नए विषय को साथ ले चलती है.....हमसे कुछ कहती है। कवि को बधाई...
जवाब देंहटाएंकुछ ने कविता की नाव बनाई
जवाब देंहटाएंतरह-तरह की धातुओं से
खूब सजायी-धजाई
नाव से भारी हो गई उसकी सजावट
नदी में उतारने तक डूब गई नाव...
स्साले समझते नहीं कुछ बच्चे
समय और सामाजिक सच को उजागर करती कवितायेँ ...महेश जी को पढ़ना सुखद और प्रेरणा स्रोत रहा है मेरे लिए हमेशा ...बधाई / आभार
जवाब देंहटाएंसमय और सामाजिक सच को उजागर करती कवितायेँ . महेश जी को पढ़ना सुखद और प्रेरणा स्रोत रहा है मेरे लिए सदा ...आभार /बधाई
जवाब देंहटाएंविषयों की विविधता आकर्षित करती है.. सभी कविताओं में संवेदनाएं सहज ही संप्रेषणीय हैं.. महेश जी की कवितायेँ इस गुण संपदा से भरपूर हैं ..महेश जी को बहुत बधाई.. पहली कविता पढकर अपनी कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ गई..
जवाब देंहटाएंमेरी बेटी इतनी बड़ी हो गई है माँ
कि पलट कर उत्तर देने लगी है
मैं उसे डांट नही पाती
खुद से शर्मिंदा जो हूँ
तुम जानती थी न एक दिन समझ जाउंगी मैं
और माफ़ी मांगूंगी तुमसे अपनी गलतियों की
तुम नही होगी तब
ये भी पता था तुम्हे
इसीलिए इतने बरस पहले
मेरे कंधे पर सांत्वना का हाथ रखती थी न तुम
badhia kaviteyn
जवाब देंहटाएंबहुत प्रभावकारी कविताये है धन्यवाद. साहित्याशिल्पी से जुड़ना चाहूँगा उपाय बताइए.
जवाब देंहटाएंमेरा संपर्क न . है 07376900866
महेश चंद्र पुनेठा जब कवितायें करते हैं तो ऐसे संसार मे जाना पसंद करते हैं जो कवि कर्म का उद्देश्य साबित होता है।ये स्वयं अपनी बनाई दुनिया का अतिक्रमण करते हैं पर सकरात्म्क॥शुरू की दोनों दुख पर केन्द्री कवितायें दुख के शास्त्रीय विवेचन का भी अतिक्रमण है और पारंपरिक दुख के सिधान्त को लेकर समकालीनता बोध मे कविता का सूत्र गढ़ लेते हैं यहाँ मुझे कुमार विकल की पंक्तियाँ याद आ गयी ''दुख से लड़कर कविता लिखना गुरिल्ला शुरुआत है''दरअसल मे महेश जी दुख से लड़ने की पूरी तैयारी कर रहे हैं.भावी कर्णधार तुम स्वतंत्र कहाँ जैसी कवितायें भी अच्छी बन पड़ी है...क्या सचमुच ऐसा है कविता के शिल्प पक्ष को और मजबूत किया जा सकता था ...
जवाब देंहटाएंmaheshji ke kavita sanvedansheel kavi ke hriday se nikali lagti hai jo kavi se bhee age jane ko atur hai samajik sarokaro ka kavya vishlesan bahut yad kiya jayega iske liye unhe sadhuwad
जवाब देंहटाएंbahut hi sarthak sateek marmik rachnayen....badhai
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.