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मैंने पढ़ी किताब में ‘हरिशंकर परसाई’ पर ‘व्यंग्य यात्रा’ का विशेषांक


हरिशंकर परसाई मेरे प्रिय लेखक हैं। व्यंग्य का क ख और ग जो भी मैंने सीखा है, हरिशंकर परसाई जी और शरद जी जैसे वरिष्ठ व्यंग्यकारों को पढ़ कर और गुन कर ही सीखा है। संयोग से हरिशंकर परसाई मेरे ही नहीं, विज्ञान के विद्यार्थी मेरे बच्चों के भी प्रिय लेखक रहे हैं। ये हमेशा होता था कि यदि परसाई जी की किताबें अल्मारी में अपनी जगह पर नहीं हैं तो बच्चों  के सिरहाने ही मिलेंगी।

तो जब व्यंग्य यात्रा का परसाई जी पर निकाला गया लगभग 200 पेज का भारी भरकम अंक मुझ तक पहुंचा तो मन रोमांचित हो उठा। प्रेम जनमेजय जी की इस बात के लिए तारीफ करनी होगी कि वे पिछले 6 बरस में अब तक हमें व्यंग्य यात्रा के 30 अंक दे चुके और अगर मैं भूल नहीं रहा तो इन तीस में से कम से कम 10 अंक तो विशेषांक तो रहे ही होंगे। नौकरी, लेखन, यात्राएं, यारबाशी और आजकल नया शिगूफा, मुआ फेसबुक इन सब के बीच समय निकाल कर हरिशंकर परसाई पर पर इतना सार्थक, बहुमूल्य, गंभीर और चिंतन परक अंक निकालना हँसी खेल नहीं है और मैं ये अंक पढ़ते समय ये देख कर और भी हैरान हो गया कि जनाब परसाई जी  पर इसी तरह का एक और अंक निकालने की मुहिम में जुट गये हैं। हम आपके साथ हैं प्रेम जी। फिलहाल बात इसी अंक पर।

व्यंग्य यात्रा के इस अंक को चार हिस्सों में बांटा गया है। पहला है पाथेय। कई वरिष्ठ रचनाकारों से ये जानने की कोशिश की गयी है कि उन्हें परसाई जी की कौन सी रचना पसंद है और क्यों। इस बहाने परसाई जी की अलग-अलग रचनाओं पर कई लेखकों के विचार भी मिले और अलग-अलग रचनाओं पर सार्थक बात भी हो गयी। इसी क्रम में हमें परसाई जी की वे सारी रचनाएं भी पढ़ने को मिल गयीं जो आज हम सब की सांझी विरासत हैं।

चिंतन में हमें कम से कम 35 रचनाकार ये बताते हैं कि उनकी निगाह में हरिशंकर परसाई क्या थे और वे हमें अपनी व्यंग्य रचनाओं के जरिये साहित्यक की किस नयी जमीन पर ले जाते हैं। पत्रिका का ये अंश भी बहुत महत्वपूर्ण है और हमें ये भी बताता है कि परसाई जी अपने लेखन में जुटे रहने के अलावा किस तरह से  व्यंग्य  लेखकों की एक नयी जमात तैयार कर रहे थे और उन्हें सही दिशा दे रहे थे।

संस्मरण में हमें 15 समकालीन रचनाकारों और व्यंग्यकारों ने उन मधुर पलों को हमारे साथ सांझा करने की को‍शिश की है जो उन्होंने परसाई जी के सानिध्य में बिताये थे या उन पलों के साक्षी रहे थे जहां परसाई जी के व्यक्तित्व का कोई अविस्मेरणीय पल उभर कर सामने आया था। बेहद मार्मिक हैं ये संस्मरण। रवीन्द्रनाथ त्या्गी जी द्वारा परसाई जी पर लिखा गया और परसाई जी द्वारा त्यागी जी पर लिखा गया संस्मंरण बेजोड़ है। 

पत्रिका के चौथे खंड में परसाई की के वे साक्षात्कार हैं जो परसाई जी के व्याक्त्त्वि पर और लेखन, समाज, समय और चिंतन दिशा पर उनके सरोकारों को सामने लाते हैं।

व्यंग्य यात्रा का ये अंक भी पिछले अंकों की तरह व्यंग्य विधा के लेखकों, पाठकों, शोधार्थियों और इस विधा में हाथ आजमाने वाले उदीयमान रचनाकारों के लिए मील का पत्थर साबित होगा।

इस अंक की एक खास बात ये है कि शायद ही कोई नामचीन लेखक या व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय की निगाह से छूटा हो जिससे उन्होंने न लिखवाया हो (सूर्यबाला जी नज़र नहीं आयीं)। सचमुच बहुत बड़ा काम होता है वरिष्ठ और साथी लेखकों से रचनाएं जुटाना और उन्हें बेहतरीन तरीके से पेश करना।

प्रेम जी हम इसी कड़ी में आगामी अंकों और विशेषांकों का इंतज़ार करेंगे। 
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सूरज प्रकाश

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