HeaderLarge

नवीनतम रचनाएं

6/recent/ticker-posts

[आओ धूप] - माधवी पाण्डेय की कवितायें


एकदम अचानक


विचारों के अंधड़ों में
सिद्धांतों को
कसकर थामे हुए मस्तिष्क
भावनाओं के ज्वार में
उम्मीदों के शिकारे पर सवार ह्रदय
उम्र के तकाजे को
महसूस करने के क्रम में
अशक्त होता शरीर
और शशक्त होती आत्मा
और एक अंतहीन
जिजीविषा के सामानांतर
अबाध गति से बीतता हुआ समय
अनवरत चलता हुआ
कभी एकदम अचानक से रुक जाता है
कलाई पर बंधे बंधे

दिहाड़ी मजदूर 

दफ्तर की मेज पर झुककर
 रजिस्टर में कलम घिसता हुआ कुछ यूँ
कि उचित अनुपात में गारा बनाकर
तसले में भरता हुआ
और
अम्बार लगी फाइलों को
ईंटों की तरह गिनता हुआ

 तनख्वाह के रुपये से हिसाब लगाता
 बच्चों की फीस,मकान का किराया
और बीमार माँ~बाप की दवाइयों
और दूध राशन बिजली के बिल के बीच
सिनेमा के दो टिकेट के पैसे निकलता
छिपाकर,खुद से या इन जर्रूरतों से
 जैसे राज की दाल रोटी जुगत में
चुपके से बचा लिए गए
 दावा- दारू के पैसे

 देश की चरमराती अर्थव्यवस्था पर
 बहस कटे हुए सरकार को कोसता
कुछ इस तरह की जैसे
 होठों में ही गालियाँ बकता हुआ ठेकेदारों के लिए

 नींद में चौक उठता
जागते हुए सपनों से डरकर या
सपनों को बहुमंजिली इमारतों की
छत और दीवारों के पलस्तर
में चिनता हुआ

 अँधेरे में तीर चलाकर साधता हूँ निशाना
 टटोलता हूँ एक सारांश कि
मैं................नहीं,
मैं नहीं जिंदगी..........
 एक दिहाड़ी मजदूर

 बहुत अर्से बाद 

 आज बेखयाली मेँ चलता हुआ
आ पँहुचा तुम्हारे द्वार तक
बहुत अर्से बाद

 मैँ नहीँ आता
कभी ये परवाह किए बिना कि
तुम रूठ जाओगे.
कुछ माँगता नहीँ तुमसे कि
कुछ चाहिए ही नहीँ मुझे शायद
कभी कुछ नहीँ कहता कि

 सुना है सब जान लेते हो तुम खुद ही
अब लौट रहा हूँ
भीतर आए बिना
क्योँ ?

 ये मत पूछो....
मैँ नहीँ बताना
चाहता कि
तल्ले मेँ हुए छेद से आर पार
दिखती है मेरी औकात
जब तुम्हारे मंदिर मे आने के लिए
जूते उतारता हूँ ।

रेत की तपिश 

 लौट गई मैँ
एक गुजरे हुए
 वक्त मेँ
या कि
वक्त ही लौट कर
आ गया है मुझ तक

 जाने क्या ?
मैँ खड़ी हूँ चुपचाप
और
हद-ए-निगाह तक
 रेत का एक दरिया,
आँखोँ से जैसे
 बह गया हो समन्दर.

 मैँ अपने पैरोँ तले महसूस करती हूँ
 रेत की तपिश....
ढूंढ़ती हूँ
वो घरौँदे
जो कभी बनाए थे
यहीँ कहीँ
 जबकि जानती हूँ
कि इस बीते वक्त मेँ
अनगिनत लहरेँ आईँ और चली गईँ

 फिर भी
बेसबब, बेमकसद सी तलाश

 पहचानने की कोशिश करती हूँ
उस रेत को
 जिसे छोड़ आई थी पीछे कहीँ

 और मैनेँ देखा
कुछ सिक्ता कण
अभी भी वहीँ हैँ
इंतजार करते हुए
मेरी ही तरह
किसी के
लौट आने का.....

एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.

आइये कारवां बनायें...

~~~ साहित्य शिल्पी का पुस्तकालय निरंतर समृद्ध हो रहा है। इन्हें आप हमारी साईट से सीधे डाउनलोड कर के पढ सकते हैं ~~~~~~~

डाउनलोड करने के लिए चित्र पर क्लिक करें...