प्रेम चमक की कौंध है, अपने स्व को
पहचानने की महक है, अपने खुद के होने का अहसास है। प्रेम सीमाएं तोड़ कर छलकती
प्रसन्नता है। प्रेम वह स्थिति है जब आप देख लेते हैं कि आप कौन हैं, उसके बाद तो
कुछ भी बाकी नहीं रह जाता सिवाय अपने स्व को दूसरों के साथ बांटने के। प्रेम वह
स्थ्िाति है जब आप देख लेते हैं कि आप अस्तित्व से अलग नहीं हैं। प्रेम वह स्थ्िाति
है जब आप जान लेते हैं कि आप उस सबका जो कुछ मौजूद है, एक जैविक, काम से उपजा अंश
हैं।
प्रेम किसी संबंध का नाम नहीं है। ये तो अस्तित्व में होने की स्थिति
है। प्रेम में होने का मतलब किसी और के साथ होना नहीं है। व्यक्ति प्रेम में नहीं
होता, स्वयं प्रेम होता है। और हां जब व्यक्ति स्वयं प्रेम होता है तभी वह
प्रेम में होता है - लेकिन ये तो परिणाम है, बाय प्रॉक्डट है। ये अपने आप में
स्रोत नहीं है। स्रोत यही होता है कि व्यक्ति स्वयं में प्रेम है।
और प्रेम कौन हो सकता है? निश्चित रूप से जब तक आपको ये पता न हो कि आप कौन हैं, आप प्रेम नहीं हो
सकते। आप तब भय होंगे। भय प्रेम की ठीक विपरीत स्थिति है। याद रखें, घृणा प्रेम की
विपरीत स्थिति नहीं है, जैसा कि लोग सोचते हैं। घृणा उलटी स्थिति में, सिर के बल खड़ा
हुआ प्रेम है। ये प्रेम की विपरीत स्थ्िाति नहीं है। प्रेम की वास्तविक विपरीत
स्थ्िाति भय है। प्रेम में व्यक्ति विस्तार पाता है, भय में व्यक्ति संकुचित
होता है। भय में व्यक्ति बंद हो जाता है, प्रेम में व्यक्ति खुलता है। भय में व्यक्ति
शंका करता है, प्रेम में व्यक्ति विश्वास करता है। भय में व्यक्ति अकेला रह
जाता है, प्रेम में व्यक्ति अदृश्य ही हो जाता है, इसलिए प्रेम में अकेले पड़
जाने की बात ही नहीं आती। जब व्यक्ति है ही नहीं तो वह अकेला कैसे हो सकता है।
ये वृक्ष और ये पक्षी और ये बादल और ये सूर्य और ये तारे उस समय भी आपके भीतर होते
हैं। प्रेम वह अवस्था होती है जब आप अपने भीतर के आकाश को जान लेते हैं....।
छोटा बच्चा भय से मुक्त होता है। बच्चे
बिना किसी भय के जन्म लेते हैं। यदि समाज बिना भय के रहने में उनकी मदद करे और
इसमें उनका साथ भी दे, यदि पेड़ और पहाड़ चढ़ने में उनकी मदद करे, यदि समुद्र और
नदियां तैरने में उनकी मदद करे, यदि समाज हर संभव तरीके से इस काम में उनकी मदद
करे कि वे खोजी बनें, अज्ञात के खोजी बनें, यदि समाज उन्हें मृत विश्वास देने के
बजाये उनमें विराट उत्सुकता जगाये तो बच्चे महान प्रेमी बनेंगे - जीवन के प्रेमी
– और वही असली धर्म होगा। कोई भी धर्म प्रेम से ऊंचा नहीं है।
अपने आप में ध्यान लगायें, नृत्य करें,
गायें, और अपने भीतर गहरे, और गहरे उतरते चले जायें। पक्षियों के कलरव को और ध्यान
से सुनें। पुष्पों की तरफ हैरानी से देखें। ज्ञानवान न बनें। चीजों पर लेबल न
लगाते चलें। यही तो ज्ञानवान होना होता है - हर चीज पर लेबल लगाते चले जाने की
कला। हर चीज को खानों में बांटते चले जाना। आप इस उम्र से ही गिटार बजाना सीखना
शुरू कर दें। बांसुरी बजाना सीखना शुरू करें। लोगों से मिलें। उनके साथ घुलें
मिलें। जितने अधिक लोगों से मिलना संभव हो उतने लोगों से मिलें क्योंकि हर व्यक्ति
का अलग ही प्रतिरूप है। लोगों से सीखें। डरें नहीं, उनका अस्तित्व आपके लिए कोई
शत्रुता नहीं है। ये अस्तित्व आपके लिए मातृत्व समान है। ये अस्तित्व हर संभव
तरीके से आपकी मदद करेगा। विश्वास करें और आप अपने भीतर शक्ति का, ऊर्जा का एक
नया सोता फूटते हुए पायेंगे। ये ऊर्जा ही प्रेम है। वह ऊर्जा पूरे अस्तित्व को
अपने वरदान से भर देना चाहती है क्योंकि उस ऊर्जा में व्यक्ति यह अनुभव करता है
कि उस पर कृपा हो गयी है। और जब आप यह अनुभव करें कि आप पर तो कृपा हो गयी है तो आप
पूरे ब्रह्मांड से कृपा के अलावा और किस चीज की इच्छा रखेंगे।
2 टिप्पणियाँ
लेख अच्छा लगा। सूरज प्रकाशजी आप भी ध्यान दीजिए--'जितने अधिक लोगों से मिलना संभव हो उतने लोगों से मिलें क्योंकि हर व्यक्ति का अलग ही प्रतिरूप है।'
जवाब देंहटाएंसूचनाः
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