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मैंने पढी किताब में अरुणकमल की शंख महाशंख


गुमशुदा उम्मीदों की निशानदेही करती कविताएँ

अरुण कमल समकालीन हिंदी कविता साहित्य में एक प्रतिष्ठित नाम है. चार काव्य संग्रहों के सम्रद्ध रचना संसारके बाद “मैं हूँ शंख महाशंख” नाम से उनका पाँचवा काव्य संग्रह, राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. प्रस्तुत काव्य संग्रह में अरुण जी की २००५ से २०१० के दौरान लिखी कविताएँ शामिल है. अरुण कमल इस संग्रह हाशिए पर धकेले गए लोगों के अंतर्मन की निशब्द पीड़ा को उजागर करते हुए अपने कवित्व का दायरा विस्तृत करते नज़र आते हैं.

अरुण कमल, अपनी सुगढ़ शैली के अंतर्गत शब्दों को अधिक जाया होने से बचाते हुए महीन बुनावट की कविताएँ सृजित करते हैं. जिसमें जीवन के रेशे-रेशे का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए कवि जीवन के सच को आँखों में उँगलियाँ डाल कर दिखाने का साहस कर दिखाते हैं.
सरकारी आंकड़ों में वह कहीं नहीं है
जब भी उनकी गिनती गलत होगी
जब भी वे हिसाब मिला नहीं पाएंगे
मैं हँसूँगा आंकड़ों के पीछे से गलियां देता
वो मैं हूँ मैं वो अंक महाशंख
अरुण कमल जितने सामाजिक चेतना के कवि है उतने ही राजनैतिक चेतना के कवि हैं उनके स्वर में ठेठ देशी स्थानीयता से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्वरलहरियां हैं. उनकी कविताओं के सर्जन, पथ पर ईंट गारा ले कर चलते हुए, जनगणना में छुटे हुए लोग, बेबस और निर्बलों, सेवक हैं जो श्रम की अगुवाई में सबसे आगे रहते हैं. कवि उन लोगों के लिए गीत गाते-गुनगुनाते हुए अपनी सामाजिक चेतना के विस्तार में चले जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप ‘निर्बल के गीत’, ‘सेवक’ थूक जैसी कविताएँ अस्तित्व में आती है.

अरुण कमल अद्भुद शिल्पकार हैं. उनकी कविताओं के बौद्धिकता, संवेदना, व्यंजना, बिम्ब, संवाद, विविधता, मार्मिकता, सामजिकबोध एक साथ आ जुटते हैं और तब उनकी कविताएँ एक सामजिक निशानदेही में तब्दील हो जाती हैं जहाँ निर्बलों की शिनाख्त की जाती है, जहाँ भूखों को तीनों समय रोटी का आश्वासन है, श्रम का सही मूल्यांकन होने की उम्मीद है.

कविता “वित् मंत्री के साथ नाश्ते की मेज़ पर” में कवि उस विभाजक रेखा के ठीक पहुँच कर देखता है जिसने लोकतंत्र का सत्यानाश किया है. यह विभाजक रेखा सरकारपोश लोगों के पास आ कर घिनौनी दिखाई देने लगती है. ‘जीभ की गाथा” में कवि की व्यंजना शक्ति पराकाष्ठा पर पहुँची हुई प्रतीत होती है. लेकिन कवि की ठिठोली सामान्य ठिठोली की शकल में नहीं है. यह उजागर व्यंजना शक्ति के दांत भीचे हुए होते हैं और यह एक हाजिरजवाबी टेक के साथ बाहर निकलती है. कवि अपने कवि कर्म को परिमार्जित करते हुए उन सवालो पर अड़ा रहता है जिनका सटीक जवाबों को जबरन दबा कर रखा गया है. उन पुराने सवालों की तान पर ही कवि अपने बुलंद शब्दों का झंडा तानता है. संग्रह में सम्पूर्ण और माँझ कर निखरी हुई सात्विक भाषा का समावेश है जो इतनी साफ-स्वच्छ है कि पाठक उसमे अपने अंतर्मन की परछाईंयों का मजमा देख सकते हैं.

अरुण कमल की कविता में जिस तरह का कसाव परिलक्षित होता है वह युवा कवियों के समझने की चीज़ हैं. बिना किसी नोस्टल्जिया में धसे हुए वे पुरानेपन की खुशबू को अपने पर काबिज नहीं होने देते.
‘वे दिन गए जब तुम कच्चे आम गोर देती
चावल की कोठरी में और वे धीरे-धीरे पकते पुरातन का सौंधापन”
कवि के अंतर्मन में घुमड़ती चितायें इस शकल में सामने आती है, कि ‘क्या थे क्या हो गए हम और क्या होंगे अभी’, इसी भावना का विस्तार संग्रह की कई कविताओं में दिखता है. अपने सहोदारों की अतृप्त कामनाओं से व्यापत वायुमंडल, कवि के भीतरी तापमान को निरंतर घटाता-बढाता रहता है.

‘दूसरा आंगन’ खंड की नौ कविताओं में कवि पड़ोसी देश में जा कर अपने देश को एक नयी नज़र से देखता, परखता और महसूस करते हुए अपने देश के अहसास को नए ढंग से जीता है. कुछ दिनों के लिए खुद के देश का पडोसी होने का यह एक नया अनुभव है.
उस ‘पड़ोसी देश’ में
जहाँ सब कुछ अपने ही देश जैसा है.
वही खेत खलियान, वही गली दूकान,
सत्ता के वही गलियारे,
जेल में सडते हुए
अपनी उम्र को गलाते हुए बेक़सूर कैदी.
बस उस देश में उस शहीद-ए-आजम की यादगार निशानी का कोई चिन्ह बाकी नहीं है, यह देख कवि व्याकुल हो कर खुद ही अपनी यादांजलि शहीद को अर्पित करते हुए ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे लगाता है. कवि उस कल्पना में नहीं जाना चाहता जहाँ किसी देश के युवा अपने शहीदों को नमन करना भूल चुके हों.

कवि की चितन में ‘एक इच्छा’ पुष्पित पल्वित होती है लेकिन समाजिक प्रदुषण में डूबते-उतरते क्रम में वह ‘एक इच्छा’ भी दम तोड़ने की कगार पर है. एक कविता में वे अपने वरिष्ट लेखकों से हुबहू रेखाचित्र खीचते है,

अरुण कमल की का यह संग्रह युवा कवियों के लिए एक पाठ्य पुस्तक का काम करता है. जिसके हर सफे में अपनी रचनात्मक सर्जन शक्ति का सही इस्तेमाल हुआ साफ़ दिखता है. अरुण कमल की कविताएँ कोई फौरी तौर पर नज़र से गुजारने वाली कविताएँ नहीं है वे एक व्यापक नज़रिए के जरिये समाज में आमूलचूल परिवर्तन की मांग करती हैं.

लेखक-अरुण कमल
कृति –कविता संग्रह
प्रकाशन-राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली
मूल्य-१५०

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