तुम मुझे पहचानते हो
पर देख
नहीं
सकते
क़ोशिश भी नहीं
करते
क्योंकि जानते
हो
मैं तो होऊंगी
ही
छुपी
तुम्हारी सपनों
की
नींव के नीचे
या तुम्हारी
विजय
की
ध्वजा उठाए
आवाज़ देती
सबसे ऊंची
चोटी
के
पीछे।
किसी समर्थ
की
बांहो में
तावीज़ बन कर
लिपटी होऊंगी।
किसी कमज़ोर
की
धीमी सांसो
में
प्राण बन आती
रहूंगी।
तुम्हारी आत्मा
में
मां या प्रेयसी
बन
अबुझ प्यार
की
लौ
लिए
तुम्हारे विश्वास
को
राह दिखाती
रहूंगी।
मैं वह नींव
का
पत्थर
हूं
जो अदृश्य
बनकर
तुम्हें ऊपर
और ऊपर
उठाती रहूंगी|
2 टिप्पणियाँ
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता.
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.