एक समय जगदलपुर का सृजन संसार जिन रचनाकारों से गुलज़ार था; त्रिजुगी कौशिक भी उनमे से एक हैं। कुछ उस दौर की काव्यगोष्ठियों का मैं भी सहभागी रहा हूँ संभवत: सबसे युवाकवि के तौर पर। त्रिजुगी कौशिक को जब पहली बार जाना तब भी उनकी सरलता के लिये और आज उनका काव्यसंग्रह “ओ जंगल की प्यारी लडकी” पढने के बाद मेरी पहली प्रतिक्रिया है कि यह कवि की सरलता है जो उनकी लिखी गयी हर पंक्ति से छलकती है। त्रिजुगी भैया से मेरी आखिरी मुलाकात जगदलपुर में हुई थी जब वे एक रोड एक्सीडेंट में घायल हो गये थे तथा उनके पैरो में गंभीर चोट आयी थी। अब लगभग बीस साल के अंतराल के बाद उनके ही काव्य संग्रह के पिछले पृष्ठ पर परिचय और तस्वीर देख रहा हूँ तो लगता है वे वैसे ही हैं - दुबले पतले, और मुस्कान भी वैसी ही - स्मित और मधुर। त्रिजुगी कौशिक का जन्म 23 जुलाई 1957 को बिलासपुर में हुआ था, उनके जीवन का एक बहुत बडा हिस्सा बस्तर में ही गुजरा है। वे इन दिनो जनसंपर्क कार्यालय के छायाकार के रूप में रायपुर में कार्यरत हैं। बस्तर पर केन्द्रित उनके खीचे गये कुछ चित्र मेरी स्मृतियों में हैं जिनमें एक दृष्टिकोण अवश्य हुआ करता था।
काव्यसंग्रह के पहले पृष्ठ में एक छायाकार की दृष्टि की छाप है। आप को यदि काव्यसंग्रह का शीर्षक भी न पता हो तब भी तस्वीर देख कर मन की पहली प्रतिक्रिया यही होगी – “ओ जंगल की प्यारी लडकी”। त्रिजुगी कौशिक नें मूल रूप से संग्रह लाला जगदलपुरी को समर्पित किया है साथ ही यह उनके सृजनशील मित्रों विजय सिंह, अशोक शाह, संजीव बक्शी, रजत कृष्ण को भी समर्पित है। काव्यसंग्रह की भूमिका लिखी है वरिष्ठ साहित्यकार गिरीश पंकज जी नें। गिरीश जी लिखते हैं कि - “त्रिजुगी कौशिक को मैने आकार लेते देखा है। उनके संघर्ष का चश्मदीद गवाह सा हूँ। उनके भीतर भी एक बस्तर है। हरा-भरा एक मन है जिसे बूझने की जरूरत है। त्रिजुगी की बस्तर पर केन्द्रित रचनायें पढ कर मै हतप्रभ हूँ कि एक व्यक्ति के अंतस में कोई मिट्टी कितनी भावनात्मक छाप छोड सकती है?”
गिरीश पंकज जी के इसी कथन से मैं बात आगे बढाना चाहता हूँ कि मिट्टी से जुडाव क्या होता है यह त्रिजुगी कौशिक की कविताओं के भीतर का मौन बखूबी बोलता है। आप इस संग्रह को मात्र – “बस्तर पर केन्द्रित कवितायें” कह कर वर्गीकृत नहीं कर सकते; कवि नें अंचल के इतिहास, वहाँ की संस्कृति वहाँ के लोक जीवन, वहाँ के शोषण सभी कुछ को अपना भावावेग दिया है। पहले बात लाला जगदलपुरी की क्योंकि उनके जिक्र के बिना बस्तर पर बात अधूरी ही रह जाती है। कवि नें लाला जगदलपुरी के लिये लिखा है -
जब वह खोलता है पन्ना
अबाध धाराएं/ छलछला कर तोडती हैं अज्ञानता की दीवारें
फिर वह दिखाता है/ देखो वह-वह-वह
आकाश में गिन सको तो गिनो
अनगिनत/ अथाह-अबोध-अगाध है बस्तर!!
त्रिजुगी जी की कविताओं में लागलपेट की कोई गुंजाईश नहीं है, कहीं कोई जटिल बिम्बविधान नहीं; अर्थ बूझने में आपको किसी शब्दकोष की अथवा हिन्दी के किसी विषारद की तलाश की आवश्यकता नहीं। हर कविता भाव-भरी है और खरी-खरी है। पचास पन्नों के इस काव्यसंग्रह में बस्तर पर केन्द्रित कुल बाईस कवितायें हैं, यदि एक शीर्षक पर श्रंखला में लिखी गयी कविताओं की भी संख्या को जोड दें तो इस काव्य संग्रह में आप कुल तीस कविताओं का आस्वादन कर सकते हैं। कविताओं के शीर्षक ही बहुत कुछ कह रहे हैं मसलन अबूझमाड (चार कवितायें), बैलाडिला, इन्द्रावती, हाटबाजार, भूमकाल, नदी, जंगल (दो कविता), पहाड (चार कवितायें), उरूस काल, बस्तर दशहरा, तीरथगढ, मुर्गा लडाई, नाचना, बस्तर, हिडमा, भीमलदेव, लमसेना, लिंगोदेव; इनके अलावा काव्य संग्रह के शीर्षक पर भी एक रचना है तथा लाला जगदलपुरी एवं गनी अमीपुरीको संस्मरणात्मक रचना के माध्यम से स्मरण किया गया है।
यह एक मिथक है कि अबूझमाड को बूझा नहीं जा सकता। त्रिजुगी कौशिक की कविताओं के पास जीवित अबूझमाड है; यह शब्दचित्र देखिये: -
कौन कहता है/ जंगल के पाँव जड हैं
मैने उन्हे देखा है/ लय और ताल में
सारी रात नाचते
हवा, रात, मोटियारी/ सब सहेलियाँ हैं
हँसती नाचती गाती जब थक जाती हैं/तब सो जाती हैं
अजगर सा अंधेरा/ सरकने लगता है
फिर भी कुछ साँसे/जागती हैं घोटुल में
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अबूझमाड के जाटलूर घोटुल में
दिन दोपहर/ गाँव एक छत के नीचे था।
गाँव वालों की आँखों मे/ पुलिस, कलेक्टर साहबान थे
आदिवासी और उनकी हित की बाते थीं
मैं देख रहा था एक अबूझ सौन्दर्य को
गोदने से सजी/ एक सुन्दर चित्र को
सहज सरल भाव था/ मादा का उन्माद न था
वह सौन्दर्य की प्रतिमा थी
उसमें प्रतिमाओं सा सौन्दर्य था
सहजता/सरलता थी
मैने उतार ली एक तस्वीर
मैने बूझ लिया था अबूझमाड को
अबूझमाड को एसे बूझने की कोशिश बिरलों ने ही की है अन्यथा तो इस अंचल में मांसलता तलाशते कैमरों नें ही दस्तक दी है तथा विकृतियाँ परोस परोस कर माड को भुलभुलैया बना दिया है और माडियाओं को प्रश्नचिन्ह। एक सजग कवि केवल चित्र ही नहीं खींचता सवाल भी खडे करता है। त्रिजुगी कौशिक की इन कविताओं को पढ कर मेरी बस्तर के भीतर लहराती तथाकथित प्रगतीशील कविता से कोफ्त कम हुई है। कवि नें अंचल के वाजिब सवाल उठाये हैं जिन्हें बहुत कम विषय बनाया गया है। जगदलपुर में बैठ कर दिल्ली की पत्रिकाओं में जगह तलाशने के लिये यदि आप ‘वह तोडती पत्थर’ मे ही अटके रहे तो हो सकता है एक दिन आप ‘मंगलेश डबराल’ बन जायें लेकिन ‘बाबा नागार्जुन’ नहीं बन सकते। बस्तर के सवाल कलकता की किसी मिल के मजदूरों के सवाल नहीं हैं; कश्मीर की बमबारी के सवाल नहीं हैं; चीन के साम्यवाद का प्रश्न नहीं है; रूस के टूटने के सवाल नहीं हैं। बस्तर का अपना दृश्यबन्ध है और अपने ही सुलगते सवाल हैं जिसे ताकत के साथ उठा कर बाहर लाने में बहुत ही कम कलम सक्रिय हैं। इस दृष्टि को केन्द्र में रख कर मैं त्रिजुगी जी के उठाये गये प्रश्नों को समय का महत्वपूर्ण दस्तावेजीकरण मानता हूँ। कुछ सवाल देखिये:-
शहर से माड का/ वनोपज से नमक का
शोषित रिशता/ जोडती हैं पगडंडियाँ
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जंगल में/ पगडंडियाँ होती हैं/ सडके नहीं
जंगल में सडक के जाते ही/ जाता है विनाश
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हाट/ क्या लेन देन की जगह भर है
यहीं से होता है/ शोषण का सिलसिला
खत्म भी यहीं से होगा
क्योंकि वे हाट में सिर्फ सल्फी-लांदा नहीं पीते
पीते हैं/ एक कडुवा घूँट भी।
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मांदर की थाप पर/ नाचते हैं वे भी
वैसे तो दुनिया भी नाचती है
किसी न किसी के इशारे पर
नक्सलवाद और सलवाजुडुम की धांय-धमक के बीच आदिवासी कहाँ है? यह बात बहुत स्पष्टता से त्रिजुगी कौशिक नें अपनी कविताओं में रखी है। बस्तर में न तो शोषण पहले कम था न ही विचारधारा की जंग नें उसे शोषित होने से बचाया। इस सब के बीच एक आम आदिवासी क्या करूं और कहाँ जाउं की स्थिति में आ गया है। यह कविता देखिये :-
हिडमा देखता आ रहा है बाजार, सत्ता और अब/ वैचारिक शोषण
बस्तर वहीं है/ जस का तस शोषित
और अब सलवा जुडुम क्या करे?/ क्या ना करे?
सोचता है हिडमा।
मुर्गा लडाई के इस बिम्ब के बहुत गहरे और बहुत सारे मायने हैं लेकिन बस्तर के सम्बन्ध में और वहाँ जारी सशस्त्र युद्ध को केन्द्र में रख कर ये पंक्तियाँ देखिये आपको ठहर कर सोचना ही होगा: -
मुर्गे को क्या मालूम
कि लडाने वाले दो हाँथो के पीछे/ कितने हाँथ हैं
उन्हें तो बस मालिक के लिये लडना है
और कहलाना है/ एक दिन शहीद
कवि का अपना ही सौन्दर्य बोध है। वह जंगल की प्यारी लडकी से कहता है: -
तुम्हारी आँखों में/ हरा भरा जंगल है
मैं इन्हीं आँखों से/ देखना चाहता हूँ
दुनियाँ हरी भरी
अथवा तीरथगढ जलप्रपात के सौन्दर्य की यह परिभाषा देखिये: -
दूध की तरह/ छलकती शिल्प शिलाओं में
प्रपाती तीरथगढ की धारा
अबोध बाला का प्रेम है/ या गृहणी का धैर्य है
त्रिजुगी कौशिक की कवितायें कई स्थलो पर दार्शनिक हो उठती हैं। उनके बिम्ब तो वही जंगल, नदी और पहाड ही हैं लेकिन कथन बहुत व्यापक:-
जब जब बढने लगते हैं/ अहं में पहाड
किसी ऋषि को लांघना पडता है
और रुक जाता है पहाड का बढना
पहाड को सिर्फ पहाड होना चाहिये/ न कि आकाश
आकाश होने के लिये भी चाहिये/ व्यापक चिंतन
त्रिजुगी कौशिक की बस्तर पर केन्द्रित कविताओं का यह संग्रह आप हाँथ में लेते ही एक प्रवाह में पढते चले जायेंगे और परत दर परत कहीं बस्तर के सौन्दर्य से अभिभूत होंगे, कभी यहाँ के भूमकाल को जान कर गौरवांवित होंगे तो कभी यहाँ के शोषण को समझ कर विचलित। ये कवितायें आप पर विचार थोपती नहीं हैं अपितु आपके सम्मुख एक छायाचित्र ही उपस्थित करती हैं। यह निश्चित हैं कि इन्हें पढने के बाद आपके विचार मथने लगेंगे आपको बाध्य हो कर कहना होगा कि आह!! बस्तर यहाँ कब होगी सुबह।
समीक्षा: - राजीव रंजन प्रसाद
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[काव्य संग्रह वैभव प्रकाशन, अमीनपारा चौक, पुरानी बस्ती, रायपुर (छत्तीसगढ) से प्रकाशित है तथा मूल्य है 50 रुपये]
1 टिप्पणियाँ
अच्छी समीक्षा...पुस्तक पढ़्नी पडेगी..
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