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अर्चना "राज" की कवितायें


सपने

मिटटी की सतह पर फसल के साथ
 उगा करते हैं तमाम सपने भी
पलतें हैं जो उसी की
खाद पानी की उर्वरता के साथ ,

भोलू के सपनों में अक्सर दीखता है
 घर पे चमचमाता टीन का छप्पर
कि जिसके होने से
इस साल बारिश में 
राधा भीग भीगकर बीमार नहीं पड़ेगी,
तो मनसुख की आँखों में
बच्चों के पैरों में रंग बिरंगी चप्पलों और स्कूल
ड्रेस का सपना है
जो उनकी फटी बिवाइयों और स्कूल न जा पाने की
विवशता से उसे हरदम कचोटता रहता है ,
धनुआ बेटी की शादी इस साल कर ही देना चाहता है
नहीं तो एक साल और पार करना होगा
और फिर बात उसके रोटी -पानी की ही नहीं
बल्कि धोती वगैरह के यक्ष प्रश्न
से लड़ने की भी तो है,

कईयों के सपने ऐसे ही
फसलों संग हरियाते हैं, फूलते - फलते हैं,
कभी - कभार पक भी जाया करते हैं
पर अक्सर ऐसा होता है कि
फसलों के काटने से पहले ही
सपने अपनी जड़ों से उखड़ जाया करते हैं,
और सपनों की जगह
भूख उपज आया करती है
और वो टिक्कड़ भी जो वो चटनी के आभाव में
नमक से ही खा लिया करते हैं
और भरपेट पानी पीकर सोते हैं
अगले सपने के जन्मने की चाह लिए,

दरअसल हमारे सपने शहर की चकाचौंध में नहीं
बल्कि गाँव के सन्नाटों में जन्मा करते हैं,
सरकार की किन्हीं नीतियों में नहीं
पेट पर कपड़ा बांधे सोने की
नाकाम कोशिश करती हुई आँखों में पलते हैं,
किसी भी जीडीपी ग्रोथ या सालाना टर्न-ओवर से नहीं
बल्कि फसल काटने की उम्मीद में आगे बढ़ते हैं,
और किसी भी एनुअल रिपोर्ट से नहीं बल्कि
एक बारिश या सूखे से ही अपने अंजाम को पहुँचते हैं,

ये मेरे और आपके सपने हैं
जो भूख से उपजते हैं और मरोड़ पर
आकर ख़त्म हो जाते हैं,

एक बार फिर से जन्मने के लिए
क्योंकि ये तो सपने हैं जिन्हें देखना अब तक  टैक्स-फ्री हैं !!

व्यथा

मेरे दर्द की अदृश्य सतह से गुजरकर
मेरी रूह को इस कदर ज़ख़्मी किया है तुमने
की मेरी रूहानियत भी अब
गहन पीड़ा के तबस्सुम से नम हो गयी है,

पर मैं अब भी तुम्हारे अक्स को
हवाओं के कोरे पन्नों पर उकेरकर
यूँ ही लगातार घंटों अपलक निहारती रहती हूँ
और अनायास ही एक लहर न जाने कब
आहिस्ता से मेरी धडकनों में उतर आती है
और मै सिहर उठती हूँ,

सदियों तक मैंने तिरस्कृत धरती का भाग्य जिया है
बस एक तुम्हारी उम्मीद की ऊँगली थामे
कि कभी तो तुम बरसोगे....मेरे लिए
पर जब भी तुम बरसे तो यूँ लगा
की ज़ज्ब होने से पहले ही
तुम भाप बनकर जुदा हो गए,

फिर भी तुम्हारी सारी उपेक्षाओं से  ही मैंने
अपनी सतह पर फैली तमाम दरारों को पाटने की पूरी कोशिश की है
पर तुम न जाने क्यों उन्हें भी रह-रहकर अग्नि में परिवर्तित कर देते हो,
शायद अंतहीन पीड़ा से ही कभी सुख का अभ्युदय हो
यही सोचकर मै सारा दावानल अंतस में सहेज लेती हूँ,

इस अग्नि को मै खुद में
परत दर परत इकट्ठा करती रही हूँ
उस दिन के इंतज़ार में जब
मै बेसाख्ता अपनी सतह से
बाहर निकल कर फट पडूँगी
और तब तुम चाहकर भी खुद को
बरसने से रोक नहीं पाओगे
और उस दिन ये तमाम कायनात भी
उस बर्फीले ज्वालामुखी के सैलाब में सराबोर
हो जाएगा,

धरती के व्यथा की परिणति
तब उसके चरम सुख की अनुभूतियों में होगी
और तब उस दिन
एक नए इतिहास की भी रचना होगी !!

तुम्हारी ख़ामोशी

तुम अब भी खामोश हो ...........
ख़ामोशी क्या अब भी तुम्हें शब्दों से ज्यादा सुकून देती है
या फिर इसकी ओट में तुम मुझसे वो सब कहने से
खुद को रोक पाते हो जो मै बहुत शिद्दत से सुनना चाहती हूँ ,

क्या मेरा चाहना तुम्हारे लिए रेत के उस घरौंदे की तरह है
जो बनते हुए ही बार-बार, न जाने कितनी बार बिखर जाया करता है
या फिर सहरा में उडती उस अदृश्य लहर की तरह
जिसका न थमना भी रेत के समन्दर के लिए कोई मायने नहीं रखता ,

बासंती हलचलों से तुम क्यों इस कदर घबरा जाया करते हो
और क्यों पक्षियों का कलरव भी तुम्हें शोर सा लगता है ,
दिन की गुनगुनी धुप भी तुम खुद में नहीं संभाल पाते
और न ही चाँद की आशिकमिजाजी को नज़र भर देखने की चाह रखते हो ,

आसमान पर लहराता सिन्दूरी आँचल
भी क्यों कभी तुममे उमंगें नहीं जगाता
और क्यों तुम तमाम
प्राकृतिक हरियाली को मेरी साड़ी के किनारे पर
गोटे सा लगाने की ख्वाहिश नहीं रखते ,

क्या मै तुम्हारे लिए
इस कदर अस्तित्वहीन हूँ कि
तुम्हारी ठहरी हुई आँखों में
मुझे देखकर कभी कोई विचलन नहीं होती
या फिर तुम्हारी भावनाएं ही
 इस कदर नियंत्रित और जड़ हैं
कि जिनमें मेरी बेचनी भी
कभी कोई हलचल नहीं जगा पाती,

परन्तु तुम तो अब तक भी खामोश हो
शायद तुम्हें खुद का मेरे साथ होने से
मेरा सामने होना ज्यादा सुकून देता है
और ये भी तो हो सकता है
कि तुम्हारा तटस्थ मौन ही तुम्हारे प्रेम का सबसे
सबल प्रमाण हो.
पर न जाने क्यों एक बार फिर  तुम्हारी ख़ामोशी
मुझे दर्द के समन्दर में तब्दील करती जा रही है !!

उलझन

ठहरी हुई उन दो आँखों की तासीर
अब भी जगा देती है मुझमें
वो तमाम हलचल
जो मुझे लगा था
मै वर्षों पीछे छोड़ आई हूँ,

उन दो अदृश्य कदमों की आहट
अब भी सुनाई पड़ती है मुझे
जो मेरे पीछे न जाने कितने पलों की
परछाई में बदल जाती थी
जब भी मैं भटकती थी यहाँ से वहां
अनायास ही ...बेमकसद ,

थमी हुई हवाओं की सरहद
अब भी हमारे बीच
सदियों के फासले सी मौजूद है
पर तुम्हारा स्पर्श
तुम्हारी भिंची हुई मुट्ठियों में
मुझे महसूस हो ही जाता है
जो तुमने पलटकर जाने से पहले
मेरे दर्द के आसमान पर
सितारे सा टांक दिया था,


और तुम्हारे अक्स में झलकती वो जिद्द भी
मुझे प्रश्नों के सिहरन से भर देती है
जो बार - बार तुम्हें मुझ तक लाती तो रही थी
पर हर  बार तुमने खुद को
पूरी शिद्दत से थामे रक्खा था
न जाने क्यों,

तुम्हारे अहसासों की धूप
जिसे टुकड़े-टुकड़े जोड़कर
मैंने एक साये में तब्दील कर दिया है
अब भी मेरी सर्द तन्हाई को
अपनी बेचैन गुनगुनी तपिश से भर देता है,

तुम अब भी मुझमें ही
धड़कते और बिखरते हो
सिमटने और खुद को संयमित करने की
अनेकों कोशिशों के बावजूद भी
और तब मै उस बर्फीले
पहाड़ सी हो जाती हूँ
जो लगातार पिघलता तो है
पर कभी भी
पूरी तरह दरिया नहीं बन पाता,

यही कशमकश धीरे-धीरे मुझे तुम्हारी
और तुम्हें खुद की तल्ख़ उलझनों में
बदल दिया करती है
हमनफज मेरे !!

सप्तपर्णी

सप्तपर्णी के सातों पत्ते
तुम्हारे अदृश्य नाम की तपिश से भी
सुलगने से लगे हैं,
फिरती रहती है हर वक्त
मेरे आस-पास
उन पत्तों की चिकनी चमकीली
पर सहमी सूरत,

उसकी छाँव में बैठे हुए
मैंने ही तो लिखा था
 हर एक पत्ते पर तुम्हारा नाम
अनायास ही
बस अपनी उँगलियों के हलके दबाव से ,

सहलाए जाने की नमी ने ही
बस उसको संभाल रक्खा है
वरना तो वो कब का झुलस गया होता ,

तुम्हारे नाम की तपिश को
झेलना भी क्या आसान होता है
सम्पूर्ण ताकत भी चुकने लगती है
तुम्हारे नाम के  अहसास को  जीते रहने में ,

अक्षरों की रेखाएं तो
लिखते वक्त ही सुलग उठी थीं
पर बेहद मीठे अहसास भी जन्मे थे
बिखर गए थे जो मेरे अंतर्मन तक
और मै सराबोर हो गयी थी
उसकी  नारंगी तपिश में ,

अधमुंदी पलकों से देखा मैंने
उन पत्तियों को कंपकंपाते हुए
और थाम लिया फिर इसके सहमेपन को
अपनी हथेलियों में भींचकर ,

तुम्हारे नाम की वो तप्त रवानगी
अब  मुझमे बिखरने लगी है
बेपनाह दर्द में डूबी मेरी आहें भी जिसे
अब लौटा नहीं सकतीं  ,
क्योंकि अब वो
मेरी हर संभव कोशिश के दायरे से बाहर है ,

तुम्हारा नाम
जो अब तक
सप्तपर्णी के चिकने चमकीले
पत्तों की सतहपर ही
 दहकता रहा था
उसकी आंच अब मेरे
अहसासों में भी सुलगने लगी है
हमनफज मेरे ....!!

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3 टिप्पणियाँ

  1. कम से कम मेरे शब्दों में तो आपके इतने खुबसूरत कविताओं का सही-सही बयां कर पाना मुमकिन नहीं पर सरल शब्दों में कहूं अर्चना जी तो ये शब्द जो आपने इन कविताओं में पिरोये हैं उसके सहारे पूरी ज़िन्दगी जी जा सकती है...

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  2. Archanaji aapki kavitaye bahot marmik hai dil ko chu jane wali hai.. main to ye sochkar ki hairan ho jati hu ki aap ne Zindagi ke pahluo ko kavitai me kaise dhala hai..........suche you are great........

    जवाब देंहटाएं

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