हम-तुम इतने उत्थान में हैं
भूमि से परे, आसमान में हैं।
तारे भी उतने क्या होंगे,
दर्द-गम जितने इंसान में हैं।
सोना उगल रही है माटी,
क्योंकि हम सुनहले विहान में हैं।
मोम तो जल जल कर गल जाता,
ठोस जो गुण हैं, पाषाण में हैं।
मौत से जूझ रहे हैं कुछ,
तो कुछ की नज़रें सामान में हैं।
मुर्दों का कमाल तो देखो,
जीवित लोग श्मशान में हैं।
मन में बैठा है कोलाहल,
और हम बैठे सुनसान में हैं।
किसने कितना कैसे चूसा,
प्रश्न ही प्रश्न बियाबन में हैं।
सोचता हूँ, उनका क्या होगा?
मर्द जो अपने ईमान में हैं।
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उन्मन हैं मनचीते लोग,
वर्तमान के बीते लोग ।
भीतर-भीतर मर-मर कर,
बाहर-बाहर जीते लोग ।
निराधार ख़ून देख कर
घूँट ख़ून के पीते लोग ।
और उधर जलसों की धूम
काट रहे हैं फीते लोग ।
भाव-शून्य शब्दों का कोश,
बाँट रहे हैं रीते लोग ।
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इस धरती के राम जंगली,
इसके नमन-प्रणाम जंगली ।
कुडई, कुंद, झुईं सम्मोहक,
वन-फूलों के नाम जंगली ।
वन्याओं-सी वन छायाएँ,
हलवाहे-सा घाम जंगली ।
भरमाते चाँदी के खरहे,
स्वर्ण-मृगों के चाम जंगली ।
यहाँ प्रभात ‘पुष्पधंवा’-सा,
मीनाक्षी-सी शाम जंगली ।
शकुंतला-सी प्रीति घोटुली,
दुष्यंती आयाम जंगली ।
दिशाहीन, अंधी आस्था के,
जीवन का संग्राम जंगली ।
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दर्द ने भोगे नहीं जिस दिन नयन,
मिल गया उस दिन हृदय को गीत धन ।
जब अँधेरा पी चुके सूरजमुखी,
तब दिखाई दी उन्हें पहली किरन ।
नींद टूटी जिस सपन की शक्ति से,
चेतना के घर मिली उसको दुल्हन ।
फूल जब चुभ गए, तो मन को लगा,
है बडी विश्वस्त काँटों की चुभन ।
देखते ही बनी बिजली की चमक,
जब घटाओं से घिरा उसका गगन ।
छाँह के अहसान से जो बच गया,
धूप के दुख नें किया उसको नमन ।
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2 टिप्पणियाँ
बहुत ही अनुभवी फजलें हैं |
जवाब देंहटाएंलालजी को २-३ बार पहले भी पढ़ा है |
अवनीश तिवारी
मुंबई
बहुत ही अनुभवी फजलें हैं |
जवाब देंहटाएंलालजी को २-३ बार पहले भी पढ़ा है |
अवनीश तिवारी
मुंबई
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