अचानक ब्रेक लगने से एक के पीछे एक अनेक गाड़ियाँ रुकती गई। एक झटके के साथ। कुछ गाड़ियाँ एक-दूसरे से टकरायीं तो कुछ टकराते-टकराते बचीं... तो कुछ को उनके मालिकों ने सुरक्षित बचा लिया।
‘क्या हुआ...? हरेक की जुबान पर एक ही सवाल था... जिज्ञासा थी... यहाँ क्यों रोक दिया? क्या कोई वी.आई.पी. (राज्यपाल, मुयमंत्री वगैरह) निकल रहा है... या एक्सीडेन्ट हो गया है... ट्रेफिक सेंस तो लोगों में है ही नहीं। ओव्हर टेक करके आगे निकलने के चक्कर में! सब हवा में दौड़ते हैं...।’ लोग आपस में आगे-पीछे, अगल-बगल में बात कर रहे थे। बार-बार घड़ी पर बैचेन निगाहें दौड़ा रहे थे क्योंकि किसी को दतर पहुँचना था, तो किसी को हॉस्पिटल, तो किसी को स्कूल-कॉलेज। बैचेन लहर सी चल रही थी। फिर शुरू से लेकर आखिर तक यह खबर फैल गयी कि किसी की गाड़ी की टक्कर से एक छोटी बच्ची उछलकर दूर जा गिरी थी। उसका सर फट गया है... उसकी माँ जो कि पागल है... बीच सड़क पर बच्ची को ज़मीन पर डालकर बैठी है और किसी को भी निकलने नहीं दे रही है।’
‘ओह गॉड! उसकी बच्ची को इसी वक्त सड़क पर आकर मरना था। मेरा बॉस जान खा जायेगा। मीटिंग का समय निकला जा रहा है। बच्चों और जानवरों में क्या अन्तर है? जहाँ देखो वहाँ दौड़ते, सड़कों पर खेलते, घिसटते, भीख माँगते मिल जायेंगे... कई बार तो अचानक गाड़ी के सामने से निकल जायेंगे। ब्रेक लगाओ तब तक गायब... ये ट्रेफिक पुलिस क्या कर रही है...? क्यों नहीं पगली को पकड़कर अलग करती है। यहाँ तो सबका राज चलता है, जो चाहे सो धरना दे, जो चाहे सो रैलियाँ निकालें। जो चाहे सो प्रदर्शन करे... कानून है कोई या नहीं। फालतू लोग...।’ एक अफसरनुमा व्यक्ति गुस्से में बोले जा रहे थे। इस अन्दाज में कि आसपास वाले उनकी बातें सुनें।
‘वह पगली उठने को तैयार नहीं...।’
‘पुलिस को बुलाया है...?’
पुलिस तो नहीं आई। कैमरामैन और टी.वी. वाले जरूर आ गये हैं।
‘आजकल तो मीडिया वालों को खबर चाहिए। जब तक वे उसे शूट नहीं कर लेंगे तब तक हटेंगे नहीं। किसी का नुकसान हो तो हो...।’
कुछ लोग गाड़ी से उतरकर घटनास्थल तक चले गये थे। चारों तरफ अच्छी खासी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। टी.वी. वाले शूट कर रहे थे... वह किसी तरह भीड़ को चीरते हुए, धक्का खाते हुए धक्का देते हुए सामने की लाईन में जा पहुँची... सामने दृश्य देखा तो अनायास ही आँखों पर उँगलियाँ चली गयीं... दूसरे क्षण स्वयं पर काबू पाकर उसने देखा एक अधेड़ उम्र की औरत जो कमर तक निर्वस्त्र थी, जिसने नीचे पेटीकोट पहना हुआ था... जिसके बाल पुरुषों के समान कटे थे। जो आधे काले और आधे सफेद थे... जिसके कन्धे चौड़े-चौड़े थे। जिसके स्तन दूध भरा होने के कारण लटके हुए थे, जिन पर नीली धारें दीख रही थी... और जिसका पूरा बदन... फफूद-सा लगा शुष्क था... लगता था उसकी देह और उसकी चेतना का सबन्ध अनन्तकाल से टूटा हुआ है। चौड़ा चेहरा... हल्की सी कंजी आँखें... दोनों होठ फैले हुए और नीचे के दाँत पीले। वह फटी-फटी आँखों से चारों तरफ चेहरा घुमा-घुमाकर भीड़ को देख रही थी...। बहुत से लोग उसके उघड़े हुए बदन को शरारती निगाहों से देख रहे थे, तो बहुत सहानुभूति और दया से उसके भावशून्य चेहरे को...!
‘क्या चीज़ रही होगी... अपने ज़माने में!’ किसी ने पीछे से फिकरा कसा...
‘आज भी शक्ल-सूरत कितनी अच्छी है।’
‘चेहरे से तो भले घर की लगती है।’
‘भले घर की होती तो क्या यहाँ होती? पता नहीं किसने इसे सताया होगा? किसने उसकी ऐसी हालत बना दी उफ... लोग तरह-तरह की बातें कर रहे थे पर वह सबकी बातों से निर्लिप्त-बेअसर बैठी थी। कैमरों की चमक, टी.वी. कैमरों की आँखों का भी उस पर कोई असर नहीं पड़ रहा था। हाँ, जब भी कोई उसकी बच्ची के नजदीक जाता तो वह झपट्टा मारने के अंदाज में पलटवार करने को तैयार हो जाती। चौकन्नी हिरणी की तरह तो कभी शेरनी की तरह!’
‘हाथ नहीं लगाने दे रही है बच्ची को।’
‘पता नहीं किसका पाप होगा यह।’
‘कोई तो होगा... हरामी।’
‘माँ की ममता देखो... पागल होकर भी कैसे अपनी बच्ची को बचाकर बैठी है।’
‘अरे भई हटाओ... क्या तमाशा है...? आप लोगों को मज़ा आ रहा है, यह सब देखने में?’ लेकिन दिल दहला देने वाली चीत्कार से लोग थरथरा गये और थोड़ा पीछे हट गये।
तभी किसी ने उसके पास जाने की हिमत दिखाई... लेकिन वह मारने दौड़ पड़ी।
‘पुलिस को बुलाया है...।’
पता नहीं कब पुलिस आयेगी... आकर वह भी तो तमाशा देखे... झुँझलाते, बड़बड़ाते अब तक कुछ लोग अपनी गाड़ियों की तरफ लौट चुके थे। दूसरा रास्ता पकड़कर जाने के लिए अपनी बेशकीमती चमकीली गाड़ियाँ मोड़ रहे थे।
लगभग एक घंटे तक यह तमाशा जारी रहा। तब कहीं पुलिस आई। साथ में महिला कान्स्टेबल भी। पुलिस ने हवा में डंडे घुमाना शुरू कर दिए... सीटियाँ बजने लगीं भीड़ को एक तरफ करते हुए ताकि रुकी हुई गाड़ियाँ निकल सके...। महिला कान्स्टेबल उसकी बच्ची के पास गयी तो... पगली उसी तरह चीखी - आसमान को थर्रा देने वाली चीख के साथ...। इस समय इतनी ताकत उसकी देह में कहाँ से आ गयी थी कि... वह उनकी पकड़ में नहीं आ रही थी...। ‘बच्ची को मत छुओ... किसी ने कहा- पहले उसको कंट्रोल में करो...।’ बच्ची का सिर एक तरफ से फट गया था। चेहरा नीला पड़ गया था- खून का काला थक्का जमा था... धूल मिट्टी से सनी उसकी नन्हीं सी देह जैसे... तपकर सूखने लगी थी। पगली को जबरदस्ती पकड़ा जा रहा था कि तभी एक युवक दौड़ता हुआ आया - ‘रुकिए... रुकिए साब... रुकिए...।’
उसने बच्ची को टटोला, थपथपाया... ऊपर नीचे किया, जैसे किसी मटके को उलट-पुलट कर ठोक-बजाकर उसके साबूत होने की जाँच कुहार करता है, फिर चारों तरफ देखकर चीखा- ‘किसने मारी... टक्ककरर... बेसहारा समझकर मार दिया...’ कहते हुए कंधे पर पड़ी टॉविल में उसने मृत पड़ी बच्ची को लपेटा... और पगली के पास जाकर बोला- ‘कुछ नहीं हुआ... ठीक हो जायेगी...। उठो...। छोड़ दीजिए साहब। वह मान जायेगी... मैं ले जा रहा हूँ... छेड़ना मत... बस।’ टी.वी. कैमरा सामने आ गया। माइक लेकर टी.वी. वाला पूछने लगा-
‘आप कौन हैं? कैसे जानते हैं? ये पगली आपकी कौन है? कहाँ से आयी?’ मीडिया वाले उससे सवाल किए जा रहे थे। लड़का हॉफ रहा था...। पसीना-पसीना हो रहा था। विस्फारित नेत्रों से देखती पगली का मिजाज कब आपे से बाहर हो जाये... उसे खुद अंदाज नहीं था...। उसकी गोद में बच्ची थी और पीछे पगली!
‘पहले रोड खाली करिए... बाद में बात करना।’ पुलिस वालों ने अख़बार वालों को डपटते हुए कहा। गोद में उठाये लड़के के पीछे पगली चल रही थी... आसपास के लोगों को गुस्से में देखती। उसकी आँखों में एक बूँद आँसू नहीं था पर निगाहें... निगाहों से लगता था... गोया सबको हिलाकर भस्म कर देगी।
‘यही होगा इसका बाप...।’ किसी ने उसकी तरफ शरारत से देखते हुए कहा।
‘शक्ल से तो सीधा लगता है पर देखो... कैसा कलियुग आ गया। लोग पगली तक को नहीं छोड़ते हैं। फिर किसी का ठहाका सुनाई दिया... और अश्लील मजाक भी...।’
युवक बता रहा था- ‘साब मेरी चाय की दुकान है... जहाँ मेरी दुकान है, वहीं एक खाली जगह पड़ी है। डेढ़ साल पहले मैंने इस औरत को वहीं देखा था...। वहाँ आकर यह चुपचाप कुछ बड़बड़ाती रहती थी। कभी गाती तो कभी हँसती तो कभी कुछ नाम लेकर कुछ-कुछ बोलती रहती थी...। इसका बढ़ा हुआ पेट देखकर हम लोगों ने इसे कुछ-कुछ खाना देना शुरू किया। चाय पाव भाजी या ब्रेड...। फिर मैंने और मेरी मिसेज ने... इसकी डिलीवरी करवायी...। आपने देखा कितनी सुन्दर बच्ची थी... यह अपनी बच्ची को लेकर बैठी रहती थी। इसे तो कोई होश रहता नहीं था। मैं ही उसकी देखभाल करता। बच्ची को नहलाना, धुलाना, कपड़े पहनाना। उसकी देखभाल करना। वह कहीं भी जाती पर बच्ची के कारण लौट आती थी। बच्ची को दूध भर पिला देती थी। बस...। इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं जानता। उसने कभी कुछ नहीं बताया... हाँ कभी-कभी एकाएक चीखने लगती थी... भागने लगती थी... या हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगती थी... छोड़ दो छोड़ दो मत मारो... मत मारो... पता नहीं क्यों ऐसा बोलती थी। इस बच्ची के बिना... वह कैसे रहेगी... और अभी तो मेरे हाथों में बच्ची को देख रही है... सोच रही होगी बच्ची जिंदा है...। मैं दफनाने ले जाऊँगा तब क्या करेगी... नहीं बता सकता।’ एक तमाशे का अन्त टी.वी. वालों, पत्रकारों और तमाशबीनों के लिए इतना ही हो सकता था और अखबार पढ़ने वालों के लिए सहानुभूति के दो शद बोलकर अफसोस जाहिर करने का, लेकिन उसके बाद क्या हुआ? क्या हुआ उस युवक का और क्या हुआ होगा पगली का? यह जानने का न तो किसी के पास समय था न जिज्ञासा... कुछ दिन बाद यह घटना भी स्मृतियों में चली जायेगी और खत्म हो जायेगी पगली की कहानी। पगली की दिल दहला देने वाली चीखों को भूल जाएँगे लोग दूसरे मस्ती भरे शोरों में, ठहाकों में, जीवन की तेज ऱतार में धरती और आकाश के बीच ठहरीं उन चीखों का वजूद किन्हीं हवाओं के बीच पैवस्त हो गया तो यह अलग बात है।
उन दोनों के बीच गहरी उदासी भरी खामोशी पसर गई थी। हवाएँ... धूप... पंछी... सड़कें... आकाश... वृक्ष... पत्ते... शाखें... फूल... ध्वनि... सब एकाएक खामोश हो गये थे... सुनने वाले का दर्द इतना था कि वे संज्ञाहीन हो गये थे या सामने वाले की दास्तां इतनी मारक थी कि उसने ज़बान बंद कर दी। मैडम... मैडम... रमेश सामने खड़ा था... यह देखिए... उसका सामान पड़ा था, उसमें ये काग़ज़-पत्तर भरे थे... इन काग़ज़-पत्तरों को वह अक्सर उलटती-पुलटती रहती थी...। उसने काँपती हथेलियों से दो उँगलियों के सहारे जिनके नाखूनों में लाल रंग की नेल पॉलिश लगी थी... उनसे उन कतरनों को जो दबी होने के कारण पीली पड़ गयी थी... तह की हुई जगहों पर दरारें पड़ने से काग़ज़ चटक गया था... उन मुड़ी-तुड़ी चटकती... झरती कतरनों के मैले पड़ते लगभग न पढ़ने लायक हरफों के बीच छपी तस्वीरों को सामने... ज़मीन पर फैला लिया... करीने से बिछाते हुए... उन्हें जोड़ते हुए... जैसे इस्तरी करने के लिए इस्तरी करने वाला पानी के छींटे देकर तरतीब से जमाता है वैसे ही जमाते हुए... अपनी आँखों से नज़रें गढ़ाते हुए... पढ़ा- ‘‘पाँच लोगों की गोली मार हत्या।... एक ही परिवार के पाँच लोगों की आतंकवादियों ने गोली मारकर हत्या कर दी। एकमात्र बच्ची... गर्भवती महिला इसलिए ज़िन्दा बच गयी क्योंकि उस समय वह घर से बाहर थी...।’’ तस्वीर... धुँधली तस्वीर... में छः लोग थे... दो पुरुष... दो महिलाएँ और दो बच्चियाँ... उसने आँखों को मलते हुए पुनः तस्वीर को गौर से देखा, उसे लगा... उन सारी कतरनों पर पगली का चेहरा फैलता जा रहा है...
लेकिन... उसे याद रहा... याद रहा इसलिए कि वह... उस पगली को भूल नहीं पा रही थी... उसकी आँखों को, उसके खुले थरथराते पपड़ाये होठों को, उसके कंधों को, उसके ताजा-ताजा दूध भरे स्तनों को! उसकी नन्ही बच्ची को... कोई छू न ले... इस भय में निकली उसकी अन्तहीन चीख को। इसलिए उस रोड से गुजरी तो निगाहें रमेश की दुकान पर पड़ गयी। रमेश ग्राहकों को चाय दे रहा था। उसके हाथ मशीन की तरह चल रहे थे।
‘वह पागल औरत... कहाँ गयी... है...’ उसके पूछने पर रमेश ने प्रश्नसूचक निगाहों से उसको देखा...। क्या फिर अखबार में खबरों की कमी हो गयी है या मजेदार किस्सा सुनने की इच्छा लेकर आए हैं।
‘क्या फायदा पूछने से? आप लोगों को पागल औरत में दिलचस्पी क्यों है?’
‘क्यों! क्यों नहीं हो सकती?’ उसने आत्मीयता से कहा।
‘‘जिसने टक्कर मारकर एक नन्हीं बच्ची को मार दिया वह तो आज तक पकड़ा नहीं गया न किसी ने... कोशिश की उसे ढूँढने की...। क्योंकि वह पगली की बच्ची थी? किसी मंत्री, अफसर या पैसे वाले की नहीं।’’ रमेश ने गुस्से से कहा।
उसके बहुत आग्रह करने पर रमेश ने बताया... कि जब वह बच्ची को दफनाने के लिए ले जा रहा था... वह नहीं चाहता था कि पगली उसके पीछे आये और उस स्थान को देखे जहाँ बच्ची को दफनाना था, बच्ची का शव बदबू मारने लगा था। मक्खियाँ और चीटियाँ लग गयी थीं...। उसे भय था पगली बच्ची का शव न निकाल ले। लगभग दूसरे दिन की शाम से पहले... क्योंकि वह एक पल के लिए उसे नहीं छोड़ रही थी। किसी तरह वह छुपते-छुपते... दफनाकर आया... तो देखा... वह मुझसे नाराज है... उसके ऊपर सामान फेंककर मार रही है... चीख रही है... लोट लगा रही है। दो-तीन दिन तक यह नाटक चला फिर उसने खाना-पीना छोड़ दिया...। बीच में वह गायब हो गयी और फिर जब आई तो उसके हाथों में दो देसी पिल्ले थे... उन पिल्लों के साथ वह कुछ दिन दिखाई देती रही लेकिन रात-दिन अपनी बच्ची की खोज में भटकती वह एक दिन उस पेड़ के नीचे मरी पड़ी थी। अन्त तक उसने मुझे माफ नहीं किया। बच्ची को मारा किसी ने और उसकी नजरों में अपराधी था मैं! बताइए, पगली और उसकी बच्ची के जीवन की इस दुर्दशा के लिए कौन जिमेदार है?’
1 टिप्पणियाँ
मार्मिक् कहानी
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.