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'प्रेम रंजन अनिमेष' की 'गज़लें'



दिल की  किताब में  हूँ बंद  फूल की तरह
दामन से  साफ़ कर मुझे  न धूल की तरह।

धड़कन न हो सका भी तो रहूँगा दिल में ही
इक याद की तरह  नहीं तो  भूल की तरह।

बिखरी  वरक़  वरक़  तुम्हारे पीछे  जि़्ांदगी
छुट्टी  के  बाद  बंद  एक  स्कूल  की तरह।

अच्छी किसी वफ़ा से  तेरी  बेवफ़ाई  दोस्त
तूने उसे  निभाया  तो  उसूल  की  तरह।

चुन कर उसी से  जि़ंदगी बना किसी ने ली
बिखरा जो  तेरे पास था  फिज़ूल की तरह।

मैं  लम्हा लम्हा  चुक रहा हूँ ब्याज सा  उसे
पूरा वो  मेरे  पास  अब भी  मूल की तरह।

दो नर्म से लबों पे किस कदर सहल सी थी
जो बात दिल को  लग रही है शूल की तरह।

ये पहले प्यार तक  कहाँ  है  जानता  कोई
होती है  ना  भी  प्यार में  क़बूल  की तरह

अब क्या बनाये और क्या निभाये कोई आज
रिश्ते भी  हो  गये  जमा  वसूल  की  तरह।

शायद  वो हो सके  किसी के  मज़र की दवा
बोया  गया है  जो  कहीं  बबूल  की  तरह।

‘अनिमेष’ पड़ रहा है क्या रह रह के कान में
कुछ  हिल रहा है  जि़्ांदगी में  चूल की  तरह।

**********

दिल  की  पहली  भूलों  में  जो  शामिल होता है
उसको  सारी  उम्र   भुलाना   मुश्किल  होता है।

सोचो मत क्या प्यार की अपनी कोशिश कर पायी
आज  फ़क़त  बुनियादें  पड़ती  हैं  कल  होता है।

शहर  की  परतों  में  झाँको  तो  पाओगे  सहरा
खेतों  के  नीचे   जैसे   कुछ   जंगल  होता  है।

चलता  हूँ  काँधे पे  लिये   इस  सोये  बच्चे को
यादों  का   हर  लम्हा  कितना बोझिल  होता है।

धीरे  धीरे    साफ़  हो  रहा   रस्ता  आगे  का
धीरे  धीरे   वो  आँखों   से ओझल  होता  है।

होंठों  तक  होंठों को  लाकर  ठिठका  है  कबसे
सोहबत  में   क्या  कोई  ऐसे  ग़ाफ़िल  होता है।

और   चूमने  की  चाहत  बढ़  जाया  करती  है
सुर्ख़  लबों के  पास अगर  काला  तिल होता है।

मेंहदी  जैसे  मेंहदी  होती  पिस  जाने  के  बाद
दिल ये  खाकर  चोट  टूट कर ही  दिल होता है।

आधी  दुनिया  आधे सपने  पूरा  कर  दे  प्यार
पास  सभी के  आधा  आधा  ही  दिल होता है।

हर  इनसां में  कोई  ख़ूबी  और  न हो भी  तो
प्यार के वो क़ाबिल और प्यार से क़ाबिल होता है।

मिट्टी में  जो  ख़ून  सानते  लगे  हुए  दिन रात
पूछो  उनको  इससे क्या  कुछ  हासिल होता है।

मारने  वाले  को  अपने  को  मरना ही  पड़ता
क़त्ल से पहले क़त्ल तो ख़ुद भी क़ातिल होता है।

रथ से  जाने  वालों  को  तो  जाने ये  दुनिया
जीवन  जानने  वाला   लेकिन  पैदल  होता  है।

यही  सोच कर  अपनी  रह पर  बढ़ते  जाते हैं
चलते  चलते  रस्ता  इक दिन  मंजि़्ाल  होता है।

उस लम्हे  इसका  इक सुंदर चेहरा  सामने रख
जब  नन्हा  कोई  दुनिया  में  दाख़िल  होता है।

अपनी  सोच से दुनिया  बदले  रूप नया जो दे
कोई  आशिक़  दीवाना   या  पागल  होता  है।

जैसे  फूल में ख़ुशबू  सपना आँखों में  ‘अनिमेष’
दिल में  साथ गुज़ारा प्यार का हर पल  होता है।

**********

एक बारिश में  उसके साथ  भीगने  का मन
उसकी  बातों में  कोई रात  जागने  का मन।

उसके बालों को आगे ला के उसके कंधों पर
अपने हाथों से  हर धड़कन  सहेजने का मन।

महके फूलों को यूँ बिखरा के देह भर उसकी
अपने होंठों  उसे   हर फूल  देखने  का मन।

आँखें नीची किये ख़ुद हो गयी है धरती सी
बाँहों में भर के अब आकाश सौंपने  का मन।

पाँव  रस्ते  तो   सारे   नापते  अकेले  ही
थक के होता  किसी के साथ लौटने का मन।

प्यार  हूँ तो  वहाँ जाऊँ   जहाँ  नहीं  कोई
सिहरे तन में कहीं  है मन को  चूमने का मन।

जि़्ांदगी हो के सब पाना हैे मन की बात कहाँ
प्यार रहकर ही  कुछ उससे है माँगने का मन।

अपने  सोचे हुए  कुछ नाम  उसको  देने का
नाम  सारे  भुलाकर  उसको सोचने का मन।

इसी मिट्टी में दब कर बीज सा उगूँ फिर से
इसी  पानी में  है  सूरज सा  डूबने का मन।

जि़्ांदगी साथ दे और साथी वो जिसे ‘अनिमेष’
अपना सब कुछ हो अपने आप सौंपने का मन।

**********

पहले  प्यार का  हर  चुंबन  पहला  पहला
पहले  दर्द का   हर  आँसू  उजला उजला।

आधी  रात को  भीगी  इस  पगडंडी  पर
जोड़ रहा  कोई  रुक कर  अगला पिछला।

चूम  न  ऐसे  सोये  हुए  इस  बच्चे  को
मोती कितने  लुटा कर है  ये दिल  बहला।

चलता  जाता  हूँ  इस  चलते  रस्ते  पर
आँख भरी है और सब कुछ धुँधला धुँधला।

तेरे  पीछे    ठहरे   पानी  सा    चुपचाप
पहले  कुछ निथरा  फिर और हुआ  गँदला।

ख़त्म  हुए   मेरे   सारे   दुख  तो  देखो
अपने ग़म का लुत्फ़ वो ले दिखला दिखला।

देख के चलना  हो तो  प्यार में मत आओ
सबसे अधिक इस राह पे जो सँभला फिसला।

अश्क़ों  से  लिख  कर  फिर होंठों से चूमा
कैसा  ये  काग़ज़ है  जो न जला  न गला।

तेल  है  कम   बाती  छोटी   शीशा  टूटा
लंबी  रात में  इसी  दिये  से  काम  चला।

कुछ तो  प्यार में  होना था  इस मिट्टी का
आह लगी किस रूह की तन ये कहीं न ढला।

मन की आँख से जीवन सा पढ़ना ‘अनिमेष’
बंद  लिफ़ाफ़े के  भीतर  ये  ख़त है  खुला।

**********

बिछड़ के भी  कहीं  अपनी  वफ़ाओं में रखना
अगर भुला भी दो  दिल की दुआओं में रखना।

वो आशना हो  या अनजान  कोई  रस्ते  पर
गुलों का  काम है  ख़ुशबू  हवाओं में  रखना।

हुई है  शाम  चलो  डूब  जाने  दो  अब  तो
मगर  सवेरे  की  पहली  शुआओं में  रखना।

कहा था किसने कि सपनों में कोई नाम कहो
तुम्हें  पसंद  है  ख़ुद को  सज़ाओं में  रखना।

बहुत  सँभाल  से   पौधे  ये   सूख  जायेंगे
हाँ  सींचना इन्हें  लेकिन  न  छाँवों में रखना।

गुज़्ार गया है जो  तसवीर  मत बना  उसको
बिखेर  कर  उसे  मौजों  घटाओं  में  रखना।

है  जीती  जागती  औरत  न  क़ैद कर ऐसे
हया  के  परदों  बनावों  अदाओं  में  रखना।

दुखों  से ही  है भरा  तन  ग़रीब लड़की का
न और दुख  मगर उसके  भरावों में  रखना।

हो  दोस्ती  या  मुहब्बत   हो  हाथ  हाथों में
कभी  न  भूले  से  ज़ंजीर  पाँवों में  रखना।

वो  बचपना  था  हमारा  कि बस दिवानापन
दिये  जला के  यूँ काग़ज़ की नावों में रखना।

ज़रा सी  ज़िन्दगी  हर पल को  बाँटते  जाना
ज़रा  सी  मंजि़्ालें   जैसे  पड़ावों  में  रखना।

बढ़े  जो  आगे  कहीं  पीछे  छोड़  आये उन्हें
वो गाँव  यादों में  और  यादें गाँवों में रखना।

तू बूढ़ी  हो गयी है माँ  हूँ फिर भी  मैं  बच्चा
सहेज कर मुझे  आँचल की  छाँवों में  रखना।

तमाम   बंदिशों  को   तोड़ता   चला  आऊँ
मत इस तरह मुझे  दिल की सदाओं में रखना।

हुआ  न ठीक  अगर  मज़रे इश्क़  ये ‘अनिमेष’
मिला  के  ज़्ाहर भी  कोई  दवाओं में  रखना।

**********

हैं  हम  तो  इश्क़  मस्ताने   हमें  है  होशियारी  क्या
मुहब्बत  अपनी दुनिया है  तो फिर ये दुनियादारी  क्या।

किसी के दुख में हो लेना  किसी के सुख को गा लेना
यही  है  जि़दगी  सबकी  हमारी  क्या  तुम्हारी  क्या।

ये  पैसे  पदवियाँ  पहचान   अपने  पास  रख  प्यारे
हमारा  यार  है   हममें    हमारी  इनसे  यारी  क्या।

हुआ  जब  दूसरों  पर  ज़ुल्म   हम  चुपचाप  बैठे  थे
तना  ये कैसा  सन्नाटा  अब आयी  अपनी बारी क्या।

वो सिर  कट जाता है करता यहाँ  उठने की जो जुर्रत
झुकी  इन  गरदनों  की  हो  भला  मर्दुमशुमारी  क्या।

हूँ शायर  सीधा सादा तो  कहूँ  क्या  सीधे सीधे सब
नहीं  परिवार घर  रखना  नहीं  है जान  प्यारी  क्या।

भरोसे  पर  दिया है  दाँव  पहला   खेल  में  दिल के
चला  जायेगा  लेकर फिर  न  देगा  मेरी  बारी  क्या।

जो  उसके  होंठों  से  पाया उसे  लौटा दो  होंठों को
मिलाकर  रखना  हर  खाता  रहे उल्फ़त  उधारी क्या।

सभी  आये हैं  ख़ाली  हाथ  जायेगा न कुछ भी साथ
न  इक गठरी की गुंजाइश  महल  कोठे  अटारी क्या।

ये  ऐसा  घाट है  जिस पर  नहाना  साथ है  सबको
यहाँ क्या  आदमी  औरत  यहाँ  राजा  भिखारी क्या।

हम  आये   देखने  बाज़ार कुछ  लेना  न  देना है
नहीं  जब  शौक़  बिकने का  नकद  चाहे उधारी क्या।

परिंदे  लौटकर  आये   मगर  घर  ख़ाली  ख़ाली  है
उठे है शोर  रह रह कर  है अब तक खेल जारी  क्या

सहर मत  झाँक कर देखो तुम अपने  दिल से ये पूछो
कि हमने साथ मिलकर रात की क़िस्मत  सँवारी क्या।

मुअय्यन  मौत का है  दिन  ज़्ारा समझा इन्हें  ग़ालिब
फिर ऐसी अफ़रातफ़री क्यों  तो ऐसी  मारामारी क्या।

न कोई  साज़  ना  सामां  बुलावा  जब भी  आयेगा
चले  जायेंगे  उठकर  ख़ुद  हमें  कोई  सवारी  क्या।

नहीं हो  आग सीने में  न पानी  आँखों  का ‘अनिमेष’
न धड़कन हो न सिहरन हो तो इस मिट्टी से भारी क्या।   


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7 टिप्पणियाँ

  1. PREM RANJAN ANIMESH ACHCHHE GAZALKAR HAIN LEKIN
    UNKEE EK - DO GAZALON NE NIRAASH KIYAA HAI . VE
    KAEE JAGAHON PAR QAAFIYA KO NIBHA NAHIN PAAYE HAIN. EK GAZAL MEIN ` SHAAMIL ` AUR ` MUSHKIL `
    KE SAATH ` JANGAL ` AUR ` OJHAL ` KE QAAFIYE
    SAHEE NAHIN HAIN . UNKEE EK ANYA GAZAL KAA MATLA
    HAI -

    EK BAARISH MEIN USKE SAATH BHEEGNE KAA MAN
    USKEE BAATON MEIN KOEE RAAT JAAGNE KE MAN

    BHEEGNE KE SAATH JAAGNE KAA QAAFIYA SAHEE
    NAHIN , ` GNE ` KEE PUNRAVRITI KE KAARAN .

    जवाब देंहटाएं
  2. Pran ji, kafiye ko lekar tangdil na hon. Paani kahin thahre nahin islke liye aisi nayi lahren zarooi hain. Animesh ki ye koshishen ghazal ko aage le jaati hain. Varna aisi bemisal ghazalen kahan milti :

    एक बारिश में उसके साथ भीगने का मन
    उसकी बातों में कोई रात जागने का मन

    पाँव रस्ते तो सारे नापते अकेले ही
    थक के होता किसी के साथ लौटने का मन

    **********

    दिल की पहली भूलों में जो शामिल होता है
    उसको सारी उम्र भुलाना मुश्किल होता है

    सोचो मत क्या प्यार की अपनी कोशिश कर पायी
    आज फ़क़त बुनियादें पड़ती हैं कल होता है

    Vaah! Kammal ki Ghazale hain !! Aur Kabir ki zameen par jo khoobsoorat ghazal kahi hai (हैं हम तो इश्क़ मस्ताने…) wah to nayab aur lajwab ! Ikka dukka logon ne kabhi kabhar aisi kashish ki hai, lekin yahan to har sher shandar hai ! Bhai vakai. Bahut bahut badahai !!

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  3. बड़े भाई की गजलों ने हमेशा सकून दिया है, कई बार ज़िन्दगी की कई सीखें ..
    बहुत सारी सुभकामनाएँ बड़े भाई को :-)

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  4. आलोक की बात से मैं सहमत हूँ । इतनी सी आजादी अगर कोई आजादखयाल शायर लेता है तो वह गजल के हक में
    है । ‘शामिल’ ‘मुश्किल’ और ‘जंगल’ ‘ओझल’ या ‘भीगने’ और ‘जागने’ के एक साथ आने से यदि ऐसे बेहतरीन अशआर और बेमिसाल गजलें मिलती हैं तो किसे तकलीफ है ? भाषाशास्त्रर से अपने जुड़ाव के नाते इतना ही कहना है कि भारतीय ही नहीं, संभवत: दुनिया की किसी कविताप्रिय भाषा में इस बात पर एतराज नहीं होगा । किसी विधा के लिए व्याकरण और अनुशासन अपनी जगह ठीक है लेकिन रूढि़यॉं नहीं । लेकिन दुर्भाग्यववश इतने बरसों में गजल ने कई रूढि़यों की बेडि़यों को गहनों की तरह पहन लिया है । अनिमेष बड़ी गहरी सोच और समझ रखने वाले रचनाकार हैं । इन रूढि़यों से वे पहले भी टकराते रहे हैं । मसलन गजलों की एक ऐसी ही रूढि़ है कि उसके शेर चूँकि एक दूसरे से असंबद्ध माने जाते हैं इसलिए वे किसी विषय पर केंद्रित नहीं हो सकतीं । मुझे याद है इस रूढि़़को तोड़ते हुए औरतों की जिंदगी की जद्दोजहद से जुड़ी अनिेमेष की कई लाजवाब गजलें गये साल ‘पाखी’ में एक साथ आयी थीं और उससे भी पहले ‘अक्षर पर्व’ पत्रिका के एक अंक में ( कोई मासूम ख्वा ब है लड़की… जिल्द वाली किताब है लड़की ) । इसी तरह गजलों की एक और रूढि़़ चंद बहरों में सिमट कर रहना है । अनिमेष ने यहॉं भी उनके फलक को विस्तृत करते हुए कई जगह नयी अप्रचलित बहरों या प्रचलित बहरों के परिवर्तित रूप (वेरियेशन) का प्रयोग किया है । अनिमेष जैसे रचनाकार जो कहना चाहते र्हैं उससे समझौता नहीं करते । बने बनाये सॉंचे अगर उसमें आड़े आयें तो वे बड़े ही अदब और सलीके से उन सॉंचों को तराश देते हैं । यह एक सुलझे फनकार की तरक्की पसंद और खुली सोच है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए । दिल को छू लेने वाली और जहन को झकझोरने वाली इन गजलों के लिए अनिमेष को जितनी मुबारकबाद दी जाये कम है ।

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  5. बिखरी वरक़ वरक़ तुम्हारे पीछे ज़िन्दगी
    छुट्टी के बाद बंद एक स्कूल की तरह।

    अच्छी किसी वफ़ा से तेरी बेवफ़ाई दोस्त
    तूने उसे निभाया तो उसूल की तरह।

    मैं लम्हा लम्हा चुक रहा हूँ ब्याज सा उसे
    पूरा वो मेरे पास अब भी मूल की तरह।
    ______________________________________

    अपने सोचे हुए कुछ नाम उसको देने का
    नाम सारे भुलाकर उसको सोचने का मन।

    इसी मिट्टी में दब कर बीज सा उगूँ फिर से
    इसी पानी में है सूरज सा डूबने का मन।
    __________________________________

    तेरे पीछे ठहरे पानी सा चुपचाप
    पहले कुछ निथरा फिर और हुआ गँदला।

    अश्क़ों से लिख कर फिर होंठों से चूमा
    कैसा ये काग़ज़ है जो न जला न गला।
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    तू बूढ़ी हो गयी है माँ हूँ फिर भी मैं बच्चा
    सहेज कर मुझे आँचल की छाँवों में रखना।
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    बेहतरीन ग़ज़लें।

    अब रही बात तकनीक की - तो ग़ज़ल की तकनीक पर प्राण जी की समझ सभी जानते हैं और उसका सम्मान भी करते हैं। किंतु आलोक और पुरनेन्दु की बातों को नकारा नहीं जा सकता - यदि ग़ज़ल में जोडने को कुछ नया चाहिये तो। मुझे भी लगता है यदि क़फियों में नये और अप्रचलित प्रयोगों से बेहतरीन शेर मिलते हैं तो कोई हर्ज नहीं।
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  6. गजलों की जितनी तारिफ की जाए कम हैं । जहां तक सवाल प्रेम जी का हैं तो मैने उनकी किताब अच्छा आदमी पढी हैं। इस लिए कह सकता हूँ की वो एक अच्छे कवि हैं। गज़ले पढ कर अच्छा ......आभार

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