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'भगवान पुस्तकालय' पर 'राजीव रंजन प्रसाद' प्रस्तुत एक विमर्श


क्या भगवान पुस्तकालय को केवल भगवान ही बचा सकते हैं?
[भागलपुर, बिहार से] 


स्तब्ध और आवाक रह गया हूँ। जितनी उम्मीद से और तैयारी के साथ मैं भागलपुर के प्राचीन ‘भगवान पुस्तकालय’ पहुँचा था उतनी ही मायूसी से बुनियादी सुविधा-विहीन इस पुस्तकालय के एक कोने में हिलती हुई कुरसी पर बैठा सोच रहा हूँ कि भगवान अगर तुम सचमुच हो तो तुमने अपनी आँखे भारतीय कानून की तराजू वाली प्रतिमा से उधार में ली होंगी? अभी कुछ ही महीने हुए जब भगवान पुस्तकालय में पाण्डुलिपि संरक्षण केन्द्र के कुछ अधिकारियों को एक अलमारी में झोले में रखी हुई कुछ दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुई जिनकी संख्या छ सौ से अधिक थी। इसी दौरान प्राप्त दस्तावेजों में से एक भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की हस्तलिखित वह चिट्ठी भी है जिसमें उन्होंने भगवान पुस्तकालय की मरम्मत के लिये भागलपुर के धनाड्य लोगों से अपील की है। यह पत्र 1934 का है जब भागलपुर में आये भूकम्प के कारण पुस्तकालय को भी नुकसान हुआ था; तब राजेंद्र बाबू बिहार सेंट्रल रिलीफ कमेटी की ओर से भूकंप पीडि़तों की सेवा करने में जुट गये थे। भूकंप में भगवान पुस्तकालय के मुख्य भवन का गुंबद लटक गया था। इसकी मरम्मत के लिए तत्कालीन पुस्तकालयाध्यक्ष स्व. पंडित उग्र नारायण झा ने मुंगेर में उनसे मुलाकात कर मदद का अनुरोध किया। इस पर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद नें भागलपुर के धनाढ्य परिवारों के नाम पत्र लिखकर पुस्तकालय को आर्थिक सहायता करने का अनुरोध किया था। आज लगता है कि राजेन्द्र बाबू की अपील निरर्थक रह गयी है, यहाँ तक कि उनके हाँथों के लिखे कागज हमसे संभाले नहीं संभलते? आखिर कहाँ व्यस्त हो गये हैं हम? यह स्थिति तब है जब कि रजत जयंती, स्वर्ण जयंती एवं हीरक जयंती मना चुके इस गौरवशाली पुस्तकालय मे आगामी 7 दिसम्बर 2013 को इसकी स्थापना की 100 वीं जयंती मनाया जाना है।

मुख्यद्वार से पुस्तकालय तक पहुँचते हुए ही बदहाली का अंदेशा हो जाता है। भीतर प्रवेश करता हूँ तो सन्नाटा पसरा हुआ है। तलाशने पर एक कर्मचारी मिलता है जो बेचारा उमस और गर्मी का मारा बनियान चढाये पुस्तकालय के पीछे बैठा हुआ है। वह भीतर अपनी मेज कुर्सी पर बैठ कर भी क्या करता अगर किसी पाठक को आना ही नहीं हो? इस पुस्तकालय सहायक को संदर्भ बताता हूँ जिनपर सामग्री की मुझे तलाश है तो वह पहले सोचने की गंभीर मुद्रा बनाता है फिर एक मोटा सा रजिस्टर ला कर सामने रख देता है जो कि उपलब्ध पुस्तकों का कैटलॉग है। मैं कुछ किताबें चुनता हूँ तो वह तलाश कर मुझे देने की बजाय एक अलमारी की ओर उंगली दिखाता है जिसपर एक पीला साकागज चिपका है ध्यान से देखने पर ही अंदाजा होगा कि भीतर इतिहास की पुस्तकें रखी हैं। अलमारी खोलने में ताकत लगानी पडी; क्या इन्हें महीनों या सालों से खोला ही नहीं गया है? किताबों की हालात भी शर्मसार करने वाली है। यह किस किस्म का पुस्तकालय चल रहा है? आज के दौर में जहाँ पुस्कालय प्रबन्धन को विज्ञान कहा जाता है वहाँ साहित्य, इतिहास, कला हर किस्म की किताबों की एसी दुर्दशा कि देखी भी नहीं जाती?        मेरे चिन्हित संदर्भ तो मुझे नहीं मिले किंतु मैंने एक एक कर कई किताबें टटोली और आवाक रह गया इतने पुराने और दुर्लभ संकलनों को देख कर। जल्दी जल्दी और जितना अपनी डायरी में उतार सकता था मैं जुट गया। हालात इतने खराब है कि बहुतायत पुस्तके न तो क्रम से व्यवस्थित हैं न ही सभी की कैटलॉगिंग ही पूरी हुई है। कई टेबलों पर किताबें गट्ठर की शक्ल में रखी हुई हैं और आप नीचे दबी हुई पुस्तकें तो निकाल ही नहीं सकते। कई हजार किताबें जो उपर की अलमारियों में इस तरह रखी गयी हैं कि उनतक पाठकों के हाँथ तो नहीं पहुँच सकते अलबत्ता दीमक और चूहों की उनको उपलब्धता हो सकती है। कई संदर्भ पुस्तकें जिन्हें मैने उठाया उनपर दीमक नें छेद कर दिये थे। मैंनें पुस्तकालय सहायक से इस पुस्तकालय के अध्यक्ष से संपर्क करने के लिये कहा जिससे कि यहाँ उपलब्ध उन पाण्डुलिपियों को देख सकूं जिनके विषय में हालिया जानकारी प्रात हुई है। थोडी ही देर में कोई महिला अधिकारी आती हैं किंतु वे गर्दन हिलाकर इन पाण्डुलिपियों को दिखा पाने में असमर्थता जाहिर कर देती हैं। मै इन्हे देखने का निर्धारित शुल्क देने के लिये प्रस्तुत हूँ फिर इनकार क्यों? तो पता चलता है कि चाबी सेक्रेटरी साहब से मिलेगी। सेक्रेटरी साहब से संपर्क की कोशिश होती है तो पता चलता है कि वे शहर से बाहर हैं इस लिये अब चाहे सर पीट लीजिये आपको दो सप्ताह के बाद ही आना होगा; अगर इन पाण्डुलिपियों में आपकी रुचि है। मुझे देहरादून लौटना है और इतना समय नहीं है, मन मसोस कर रह जाना होगा। 

मुझे इन पाण्डुलिपियों को न देख पाने का अफसोस क्यों नहीं होना चाहिये? लगभग दो सौ साल का इतिहास इनके भीतर छिपा हुआ है। एक पाण्डुलिपि एसी भी है जिससे पता चलता है कि औरंगजेब की बेटी जैबुन्निशा की तालीम व तरबियत (शिक्षा-दीक्षा) भागलपुर के कुतुबखाना पीर शाह दमड़िया बाबा शाह मंजिल, खलीफ़ाबाग में हुई थी। वे 1665 ई के आसपास यहाँ रहा करती थीं। इसी स्थल से सम्बन्धित बादशाह अकबर का एक फ़रमान पत्र पुस्तकालय में उपलब्ध है जिसमे उन्होंने आदेश दिया था कि दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाले बादशाह यहाँ दुआ मांगने आयेंगे। एक अन्य प्राप्त जानकारी रोचक है अंगरेजी शासनकाल में हाकिम उसी दरख्वास्त के पिछले पृष्ठ पर फ़ैसला लिखा करते थे, जो उन्हें पीड़ितों के द्वारा सौंपा जाता था; 1824, 1865, 1903 व 1904 ई की मिली पांडुलिपि (हस्तलिखित) से इस तथ्य की जानकारी मिली है। कई दुर्लभ ग्रंथ और कविता संकलन भी यहाँ उपलब्ध हुए है इनमें श्यामसुंदर द्वारा अवधि में लिखी गयी चतुप्रिया ग्रथांतर्गत भूल वर्णन, मथुरा प्रसाद चौबे व रामकृष्ण भट्ट की कविता मिली है। कविता की पाण्डुलिपि 150 साल पुरानी है। सच्चिदानंद सिन्हा द्वारा 1934 में लिखी गयी पुस्तकालय परिदर्शन टिप्पणी मिली है, जो अंगरेजी में लिखी गयी है। मानीदेव की रचना काशीवासी सिंहराज का युद्ध वर्णन भी मिली है। कवि रघुनाथ की लिखी वसंत ऋतु कविता भी मिली है। सौभाग्य से पांडुलिपियों का तैयार डाटा बेस पटना पहुंचा दिया गया है। कई पाण्डुलिपियाँ अच्छी हालत में नहीं बतायी जाती हैं। इनकी समुचित स्कैनिक आदि कर के आधुनिक तकनीकों के माध्यम से अध्येताओं तक पहुँचाने की व्यवस्था राज्य सरकार को करनी चाहिये।  

उपसंहार में कुछ बाते भगवान पुस्तकालय के बहाने सरोकारों के प्रति हमारी उपेक्षा की। भगवान पुस्तकालय की स्थापना 7 दिसम्बर 1913 को भागलपुर के जमींदार सह ऑनरेरी मजिस्ट्रेट पंडित भगवान प्रसाद चौबे  एवं उनके भतीजे पंडित अलोपी प्रसाद चौबे  ने संयुक्त रूप से अपनी निजी भूमि, भवन एवं संसाधनों को समाज को समर्पित कर के किया था। इस पुस्तकालय का उद्घाटन भागलपुर के तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर एच जे मेकेन्टोस ने किया था। पुस्तकालय की स्थापना का एक उद्देश्य हिन्दी के प्रचार-प्रसार के साथ स्वतंत्रता आन्दोलन को गति देना भी था। भगवान पुस्तकालय से लम्बे अर्से तक पुरुषोत्तमदास टंडन, डा. रामचन्द्र शुक्ल, डा. राजेन्द्र प्रसाद, डा. जाकिर हुसैन, भागवत झा आजाद, डा. जगजीवन राम, डा. जगन्नाथ कौशल, डा. ए. आर. किदवई, राहुल सांकृत्यायन जैसे दिग्गज राजनेताओं और साहित्यकारों का जुड़ाव बना रहा है। वर्ष 1955 में बिहार सरकार द्वारा इसका अधिग्रहण करने के बाद इसे प्रतिवर्ष 25,000 रुपये अनुदान मिलना प्रारंभ हुआ, जो अब बढ़कर 49,740 रुपये हुआ है; सही मायनों में यह नितांत अपर्याप्त राशि है। तथापि क्या अपने गौरवशाली अतीतका संरक्षण केवल सरकार का ही दायित्व है? अगर एसा होता तो 1934 में इसी पुस्तकालय के पुनरुद्धार के लिये राजेन्द्र बाबू आम जनता से अपील नहीं करते। केवल समय बदला है किंतु उनकी वही अपील आज भी कायम है। यह पुस्तकालय भागलपुर वासियों की दृष्टि और पहल की प्रतीक्षा कर रहा है। एक पहलू यह भी देखें कि भागलपुर जिले की कुल आबादी 2011 की जनगणना के अनुसार 3,032,226 है। यह बिहार की कुल आबादी का 2.92 फीसदी है। मैने पुस्तकालय में वर्तमान सदस्य संख्या को जानना चाहा तो क्षोभ से भर उठा उत्तर मिला – “अब साठ लोग पुरने वाला है”।

नहीं!! इतना संवेदनहीन शहर तो नहीं हो सकता भागलपुर। मुझे उम्मीद है कोई आवाज तो उठेगी इस अराजकता के खिलाफ, कुप्रबन्धन के खिलाफ और इस धरोहर को अपनी पीढी के लिये बचाने की कोशिश में। तब तक यह सवाल जिन्दा है कि क्या भगवान पुस्तकालय को केवल भगवान ही बचा सकते हैं?     

- राजीव रंजन प्रसाद 

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4 टिप्पणियाँ

  1. सिर्फ भागलपुर के लोगो को क्यों दोष देना...ये तो हमारी नाकामी है जो हम अपने अतीत को नही सभाल पा रहे है

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  2. यह पुस्तकालय सरकार द्वारा अधिग्रहण किया गया है जैसा ऊपर वर्णित है,इसलिए सरकारी अनुदान की आवश्यक राशि पुस्तकालय को मिलना चाहिए, साथ ही हमलोगो को भी आगे बढ़ कर अतीत की दुर्लभ पुस्तकों की सुरक्षा मेँ योगदान करना चाहिए. इसमें प्रशासन की यदि मदद मिल जाये तो सफलता मिलने मेँ आसानी होंगी, जिला पदाधिकारी एवं आयुक्त महोदय का ध्यान आकर्षित करना उचित होगा.

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  3. सुभाष चंद्र दास, भागलपुर

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  4. Mere nanaji swargiya Abhyanand Mishra, Vice Principal, Bhagalpur Law college, bhagwan pustakalaya ke prernadayi pramarshdata rah chuke hain. Ye article padhne se unke saath bitayi amulya yadein taaja ho gayi.

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