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‘शील निगम’ की कहानी ‘अंतिम विदाई’



राजू बी. ए. पास होते हुए भी टैक्सी चलाने का काम करता था। बी .ए. पास करके दर दर की ठोकरें खाने के बाद भी जब नौकरी नहीं मिली तो उसने बैंक से लोन ले कर अपनी नयी टैक्सीखरीद ली जिसे बड़े प्यार से नाम दिया 'रानी'। रानी के रख रखाव में वो कोईकोताही नहीं बरतता था.हर समय उसकी साफ – सफाई का धयान रखता। उसे सच में रानी बना कर रखा था उसने। उस दिन राजू किसी सवारी को सेन्ट्रल जेल तक छोड़ कर वापसी कर रहा था। एक अधेड़ उम्र की महिला उसके पास आई और एक पता लिखी चिट उसे थमा कर उसे उस पते पर ले चलने के लिए कहने लगी। राजू ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा, फटी धोती में लिपटी थी वो, बगल में एक पोटली भी दबा रखी थी। राजू ने उसे प्रश्नसूचक नज़रों से देखा, मानो वो उसके दिल की बात समझ गयी, झट से बोली, "किराये की चिंता न करो बेटा. मेरे पास पैसे हैं। "अपनी मुट्ठी में से मुडे -तुड़े नोट दिखाती हुई बोली। राजू ने उसे टैक्सी में बैठने का इशारा किया.वो जल्दी से आकर पीछे की सीट पर बैठ गयी, जैसे उसे पहुँचने की बहुत जल्दी थी।  राजूचिट में लिखे पते से वाकिफ था। 

 कमला नगर कालोनी कई बार आ चुका था पहले। मकान नंबर २१ के सामने ही टैक्सी रोकी उसने। मकान के बाहर एक कबाड़ वाला अपने ठेले पर पुराना सामान लाद रहा था। एक खूबसूरत औरत घर के अंदर से सामान ला ला कर उसके सामने पटक रही थी। जैसे ही वो सामान भर कर वहाँ से जाने को हुआ उस औरत ने भड़ाक से दरवाज़ा बंद कर दिया। तभी ठेले पर से एक ब्रीफ केस नीचे गिर कर खुल गया। ठेले वाला बिना कुछ जाने आगे बढ गया। टैक्सी में बैठी महिला अब तक हैरान परेशान सी यह नज़ारा देख रही थी। जैसे ही ब्रीफ केस गिरा वो दौड़ कर गयी और उसने वो ब्रीफ़ केस उठा लिया, उस पुराने ब्रीफकेस से शायद पुरानी पहचान थी उसकी। बिखरे हुए कागजों को ब्रीफकेस में डाला और वापस टैक्सी में आ कर बैठ कर ब्रीफकेस खोल कर सारा सामान खोल कर देखने लगी राजू अब तक ये तमाशा देख रहा था। बुढ़िया को कागजों में उलझा देख कर उससे रहानहीं गया वो बोल उठा - "उतरना नहीं है क्या माता जी? आपका घर आ गया है”। 

कागजों में से एक प्रमाण -पत्र दिखाते हुए वह बोली, "किसका घर बेटा?" उनकी मौत हो चुकी है।"

"किसकी?" राजू पूछ बैठा।

"मेरे पति की। अब वो इस दुनिया में नहीं रहे" कहते कहते वह अपने फटे आँचल से आँसू पोंछने लगी।

राजू ने अपनी पानी की बोतल उसे देते हुए पूछा, "अब कहाँ जाना है माता जी ?"

"अपनी बेटी के घर। बहू का हाल तो तुमने देख ही लिया कितनी बेरहमी से मेरे पति का सामान फेंका है। अब मैं यहाँ कैसे रह पाऊँगी?" बोतल से दो घूँट अपने गले के नीचे उतारते हुए वह बोली."तीन बेटियाँ हैं मेरी। चलो उनमें से किसी के घर? इस डायरी में पते है उनके” ब्रीफकेस में से एक डायरी में लिखे पते
दिखाते हुए वह बोली। 

राजू ने डायरी में लिखे पते देखे। पहला पता वहीँ आस-पास की गीता कालोनी का था। जैसे ही वो वहाँ पहुँचा, मकान नंबर दस से एक युवती को बाहर निकलते देखा। राजू ने पता दिखा कर जानने की कोशिश की, कि वो सही जगह पर आया था कि नहीं, पर उस युवती ने पता देखते ही बता दिया कि वह सही पते पर आया था पर उस मकान में रहने वाले सभी लोग छुट्टियाँ मनाने गोवा गए थे वो तो उनकी नौकरानी थी जो घर की देखभाल करती थी। अब राजू टैक्सी लेकर दूसरे पते पर पहुँचा। यह एक ऊँची बिल्डिंग थी वो हाथ में डायरी लेकर अकेला ही अन्दर चला गया.फ्लैट नंबर २०१, पहले माले पर ही घर था. दरवाज़े की घंटी बजाने पर एक नौजवान व्यक्ति ने दरवाज़ा खोला। 

राजू ने उसे बताया, नीचे उसकी टैक्सी में एक महिला बैठी है जो उससे मिलना चाहती है। वो नौजवान शायद नींद से उठा था आँखें मलते हुए राजू का साथ हो लिया। जैसे ही उसने  टैक्सी में उस महिला को देखा उसका पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। वो गुस्से में थरथराते हुए बोला, "तुम शान्ति? मीना की माँ? तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई हमसे मिलने की?" फिर राजू की ओर मुड़ कर बोला,"ले जाओ इसे वहीँ, जहाँ से लाये हो, मैं नहीं चाहता कि इस ख़ूनी औरत का साया भी मेरे घर और मेरे बच्चों पर पड़े."वह तेजी से मुडा और अपने घर की  तरफ बढ गया। 

राजू हक्का- बक्का रह गया। उसने शांति कि और देखा वो सिसक -सिसक कर रो रही थी। उसे समझ में नहीं आया कि वो क्या करे। उसने इधर उधर देखा। सामने एक चाय की  दुकान थी। वह जल्दी से गया और  दो गिलास चाय ले आया.एक गिलास शांति को देते हुए बोला, “शांत हो जाइये माता जी, चाय पी लीजिये जी हल्का हो जायेगा" दूसरा गिलास खुद ले  कर राजू टैक्सी की ड्राइविंग सीट पर बैठ गया। आखिर उससे रहा नहीं गया और पूछ ही बैठा, "वो नौजवान शायद आपका दामाद था। उसनेआप को ख़ूनी क्यों कहा? आपको देख कर ऐसा तो नहीं लगता कि आपने कोई खून किया होगा।"

"हाँ बेटा, श्रीकांत मेरा दामाद है वो सच ही कह रहा था। मैने खून किया था और आज ही चौदह साल की सजा काट कर आ रही हूँ।"

राजू को विश्वास नहीं हुआ पर उसे विश्वास करना पड़ा। शांति ने खुद ही अपनी कहानी उसे सुना दी। शांति ने बताया कि आज से करीब चालीस  साल पहले उसका विवाह हुआ था। पति सिंचाई विभाग में इंजीनीयर थे। जिंदगी बहुत सुखमय थी। शादी के बाद जल्दी जल्दी चार बच्चे भी हो गए। एक बार उसके पति का तबादला उनके अपने शहर में हो गया जहाँ उनकी पैतृक हवेली थी। उन्होंने सोचा कि सरकारी मकान में रहने की बजाय अपनी हवेली में ही रहा जाए पूरा परिवार सारा सामान लेकर सीधा हवेली पहुँच गया। पर वहाँ पहुँच कर देखा तो कुछ रिश्तेदारों ने पूरी हवेली अपने कब्जे में कर रखी थी। बड़ी मुश्किल से रहने के लिए दो कमरे मिले। पति चाहते थे कि रिश्तेदार हवेली खाली कर दें पर वह संभव नहीं हुआ। उल्टे वो लोग यह चाहते थे कि हमारा परिवार ही हवेली छोड़ कर वहाँ से चला जाये। इस विषय में उन लोगों ने काफी धमकियाँ भी दीं। जब उन्हें लगा कि हम लोग हवेली नहीं छोड़ने वाले तो एक दिन उन्होंने कुछ गुंडे भेजे। उस समय घर में शांति अकेली थी अपनी सबसे छोटी बच्ची के साथ। बाकी बच्चे स्कूल और पति दफ्तर में थे। बच्ची सो रही थी, गुंडों ने आते ही घर का सामान उठा उठा कर फेंकना शुरू किया। 

शांति ने बहुत कोशिश की उन्हें रोकने की पर गुंडे उसी के साथ अभद्र व्यव्हार करने को उतारू होने लगे। वहाँ उसकी अस्मत बचiने वाला कोई नहीं था। जब उसे कुछ न सूझा तो उसने पास पड़े सिल के बट्टे को एक गुंडे के सिर पर दे मारा। वह गुंडा वहीँ पर ढेर हो गया। बाकी सब लोग भाग खड़े हुए। फिर तो पुलिस, कत्ल का मुक़दमा और जेल...कोई भी उसके पक्ष में गवाही देने नहीं आया। उसके पति ने काफी कोशिश की उसे बचाने की, पर  वो कुछ न कर सके। उन्हें सदा इस बात का मलाल रहा कि वो क्यों अपने परिवार को उस पैतृक हवेली में लाये?

 उन्होंने वहाँ से अपना तबादला करवा लिया। अकेले ही दूर की किसी मौसी की सहायता से बच्चों कापालन पोषण किया। वो मौसी भी अब इस दुनिया में नहीं है। पिछले वर्ष तक उसके पति जेल में मिलने आते रहते थे, पर बच्चों को उसने वहाँ कभी न आने दिया। एक साल से वो बहुत बीमार चल रहे थे इसलिए उनका मिलना नहीं हुआ पर उसे खबर न थी कि उनका देहांत हो चुका है। अगर यह प्रमाण –पत्र न मिलता तो वो न जान पाती, कि अब वो इस दुनिया में नहीं रहे। कहते कहते वो जोर से खाँसी। खाँस खाँस कर उसका दम घुटने लगा। राजू जो अब तक यह सब सुनता जा रहा था और टैक्सी चलाये जा रहा था, अचानक रुक गया उसने पीछे मुड़ कर देखा। शांति रुक- रुक कर कह रही थी, " बेटे मुझे अस्पताल ले चल, मेरी तबियत ख़राब हो रही है।" 

संयोग से पास ही सरकारी अस्पताल था।  राजू ने टैक्सी वहीँ मोड़ ली। अस्पताल में स्ट्रेचर पर  डालने से पहले ही शांति दम तोड़ चुकी थी। उसे दिल का दौरा पड़ा  था। राजू ने ही अस्पताल की  सारी औपचारिकताएं निबाहीं। श्मशान घाट पर शांति की तीनों बेटियाँ मौजूद थीं पर उसकी चिता को आग देने वाला कोई नहीं था। बेटा वतन से दूर था और दामाद उससे घृणा करता था तो कैसे आता? तभी राजू शांति की पोटली लेकर  वहाँ पहुँचा। उसने पोटली बेटियों को थमा दी। पंडित जी ने बेटे को शांति के शव को  मुखाग्नि देने के लिए पुकारा। 

राजू सीधे पंडित जी के पास पहुँचा और शांति की अंतिम क्रिया की सारी रस्में निभायीं। 

लौटते समय राजू की आँखों में आँसू थे मानो वह अपनी माँ का अंतिम संस्कार करके आ रहा हो। 
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