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भाषा सेतु में 'सीताकांत महापात्रा' की 'रेल यात्रा'



प्रस्तोता की बात:- 

मित्रो, मैं ओडिशा में रहती हूँ. मायके से पंजाबी हूँ और ससुराल से ओडिया। मैं बहुत ज्ञानी तो नहीं हूँ पर जितना भी मैंने ओडिया साहित्य का अध्ययन किया है तो मैं यह कहना चाहूंगी की " ओडिया साहित्य" संसार के किसी भी साहित्य से कम नहीं है।  एक से एक विद्वान साहित्यकार यहाँ मौजूद हैं जिन्होंने विश्व पटल पर अपनी पहचान बनाई है। इसी माटी के लाल हैं गोपीनाथ महंती, सच्चिदानंद राउतराय और सीताकांत महापात्र जिन्हें पाकर स्वयं " ज्ञानपीठ पुरस्कार" गोरान्वित हुआ।  यहीं के हैं मनोज दास, रमाकांत रथ और जगन्नाथ प्रसाद दास जिन्हें " सरस्वती सम्मान " से नवाजा गया और यहीं की हैं माँ सरस्वती की वरद पुत्री प्रतिभा राय जिन्हें" मूर्ती देवी सम्मान" से सुशोभित किया गया. इनके आलावा शांतनु कुमार आचर्य, रामचंद्र बेहेरा, विभूति पटनायक, महापात्र नीलमणि साहू, जयंत महापात्र, राजेंद्र किशोर पंडा, वीनापानी महंती आदि अनगिनत (सबके नाम लिखना यहाँ संभव नहीं है) ऐसे नाम हैं ओड़िसा साहित्य आकाश के आज भी टिमटिमाते , दीप्तिमान सितारे हैं। 

मित्रो, मेने अपने हिंदी के लेखन के साथ साथ, अपने स्वल्प ज्ञान को एक और भाषा, यानि ओडिया की सेवा में कुछ कुछ लगाने की कोशिश की है। मेरा सेतु बन जाने का मन है मैं बीच बीच में ओडिया लेखकों की कुछ कुछ रचनाओं प्रस्तुत करूंगी।  आप सब के स्नेह, आशीर्वाद का लोभ मुझे जरूर रहेगा. इससे ओडिया और हिंदी के विद्वान आपस में साहित्य का आदान - प्रदान कर पाएंगे।  मणि मुक्तकों को चुनना आप सभी के हाथों में होगा। ज्ञानपीठ विजेता सीताकांत महापात्र जी की कविता में आज यहाँ दे रही हूँ। - मंजू शर्मा महापात्रा। 

रेल यात्रा 

सारा दिन भागती रहती है, पागलों सी 
जैसे कोई दौड़ा रहा हो उसे 

प्रतीक्षारत 
छोटे स्टेशनों को तो 
वो देखती तक नहीं, चली जाती है 
थरथराती धरती को, अपने रास्ते, बेइज्जत कर उन्हें 
वे पड़े रहतें हैं, दलितों से, वैसे ही,
जैसे चला गया हो कोई उच्च ब्राहमण, सामने से 
और अब, उनके स्तर की ही कोई ट्रेन 
रुक सकती है वहां पर।

काले बादलों तले, अचानक चमकती बिजली सा 
दिख जाता है, सोया कोई अकेला
सीमेंट की बेंच पर,प्लेटफार्म की 
और एक जन, लालटेन लिए हाथ में 
दिखा रहा है रास्ता, ट्रेन को 
ट्रेन के जाने के बाद, छिप जाता है वो 
दूर तारों की तरह, अँधेरे में 

लोग अलग जगहों के,.... गंतव्य भी अलग सबका 
पर फिर भी हैं, पडौसी, उस बोगी में
जैसे गांववाले अपने.... गपशप, अख़बार ,
खाकर भोजन , घर से लाया हुआ 
लगते हैं, ऊंघने, सब अपराहन में 

सांझ ढली और आयी रात 
बीच- बीच में ट्रेन की सीटी, बेचैन सी 
जैसे कोई स्वर, रूदन का 
लगती है गहराने रात,...अचानक ...रुक जाती है ट्रेन 
खेत-खलिहान, सुनसान और अनजान जगह पर 

पेड़-पौधे, खेत और फसलें 
पूछने से लगते हैं, खिड़की से 
आगमन का कारण , इस नए अतिथि का 
और यहाँ तक की तारे दूर आकाश के 
उतरने लगते हैं, हमारी बोगी की ओर
कुछ अशरीरी भी छाया से,..... क्या ये भी चढ़ेंगे इस गाड़ी में !
बिना टिकिट ...... अनजान जगह में !

में....में....आया कहाँ ...से ?
और ...जा रहा हूँ ... क्यों.....कहाँ पर....?
नहीं आ रहा याद मुझे, आधी नींद में 
यहाँ.....उतरना होगा ..क्या ?
कितना सुन्दर और भयंकर 
ये अँधेरा.....और ये निर्जन धन के खेत 

सीताकांत महापात्र

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