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'रूपसिंह चन्देल' का संस्मरण 'एक परंपरा का अन्त था डॉ० शिवप्रसाद सिंह का जाना'



डर...एक ऎसा डर जो किसी भी बड़े व्यक्तित्व से सम्पर्क करने, मिलने से पूर्व होता है। सच कहूं तो मैं उनके साहित्यकार...एक उद्भट विद्वान साहित्यकार जिनकी बौद्धिकताए तार्किकता और विलक्षण प्रतिभा सम्पन्नता ने प्रारम्भ से ही हिन्दी साहित्य को आन्दोलित कर रखा था ... से संपर्क करने से वर्षों तक कतराता रहा आज हिन्दी साहित्य में लेखकों की संख्या हजारों में है, लेकिन डॉ० शिवप्रसाद सिंह जैसे विद्वान साहित्यकार आज कितने हैं आज जब दो चार कहानियां या एक.दो उपन्यास लिख लेने वाले लेखक को आलोचक या सम्पादक महान कथाकार घोषित कर रहे हों तब हिन्दी कथा.साहित्य के शिखर पुरुष शिवप्रसाद सिंह की याद हो आना स्वाभाविक है।  

कहते हैं सपूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं, डॉ० शिवप्रसाद सिंह की प्रतिभा और विद्वत्ता ने इण्टरमीडिएट के छात्र दिनों से ही अपने वरिष्ठों और मित्रों को प्रभावित करना प्रारम्भ कर दिया था। वे कॉलेज की पत्रिका के सम्पादक थे और न केवल विद्यार्थी उनका सम्मान करते थेए प्रत्युत शिक्षकों को भी वे विशेष प्रिय थे। पढ़ने में कुशाग्रता और साहित्य में गहरे पैठने की रुचि के कारण कॉलेज में उनकी धाक थी। 

डॉ० शिवप्रसाद सिंह का जन्म १९ अगस्तए १९२८ को बनारस के जलालपुर गांव में एक जमींदार परिवार में हुआ था। वे प्रायः अपने बाबा के जमींदारी वैभव की चर्चा किया करते लेकिन उस वातावरण से असंपृक्त बिलकुल पृथक संस्कारों में उनका विकास हुआ। उनके विकास में उनकी दादी मां, पिता और मां का विशेष योगदान रहा। इस बात की चर्चा वे प्रायः करते थे। दादी मां की अक्षुण्ण स्मृति अंत तक उन्हें रही और यह उसी का प्रभाव था कि उनकी पहली कहानी भी दादी मां थी जिससे हिन्दी कहानी को नया आयाम मिला। दादी मां से नई कहानी का प्रवर्तन स्वीकार किया गया... और यही नहीं यही वह कहानी थी जिसे पहली आंचलिक कहानी होने का गौरव भी प्राप्त हुआण् तब तक रेणु का आंचलिकता के क्षेत्र में आविर्भाव नहीं हुआ था। बाद में डॉ० शिवप्रसाद सिंह ने अपनी कहानियों में आंचलिकता के जो प्रयोग किए वह प्रेमचंद और रेणु से पृथक...एक प्रकार से दोनों के मध्य का मार्ग था और यही कारण था कि उनकी कहानियां पाठकों को अधिक आकर्षित कर सकी थीं। इसे विडंबना कहा जा सकता है कि जिसकी रचनाओं को साहित्य की नई धारा के प्रवर्तन का श्रेय मिला हो, उसने किसी भी आंदोलन से अपने को नहीं जोड़ा। वे स्वतंत्र एवं अपने ढंग के लेखन में व्यस्त रहे और शायद इसीलिए वे कालजयी कहानियां और उपन्यास लिख सके। 

शिवप्रसाद सिंह का विकास हालांकि पारिवारिक वातावरण से अलग सुसंस्कारों की छाया में हुआ, लेकिन उनके व्यक्तित्व में सदैव एक ठकुरैती अक्खड़पन विद्यमान रहा। कुन्तु यह अक्खड़पन प्रायः सुशुप्त ही रहता जाग्रत तभी होता जहां लेखक का स्वाभिमान आहत होता। शायद मुझे उनके इस व्यक्तिव्त के विषय में मित्र साहित्यकारों ने अधिक ही बताया था और इसीलिए मैं उनसे संपर्क करने से बचता रहा। उनकी रचनाओं..दादी मां, कर्मनाशा की हार, धतूरे का फूल, नन्हो, एक यात्रा सतह के नीचे, श्राग गूजरी, मुरदा सराय आदि कहानियों तथा अलग.अलग वैतरिणीश और श्गली आगे मुड़ती है से एम०ए० करने तक परिचित हो चुका था और जब लेखन की ओर मैं गंभीरता से प्रवृत्त हुआ मैंने उनकी कहानियां पुनः खोजकर पढ़ीं क्योंकि मैं लेखन में अपने को उनके कहीं अधिक निकट पा रहा था। मुझे उनके गांव.जन.वातावरण ऎसे लगते जैसे वे सब मेरे देखे-भोगे थे। 

लंबे समय तक डॉक्टर साहब ;मैं उन्हें यही सम्बोधित करता था; की रचनाओं में खोता, डूबता, अंतरंग होता आखिर मैंने एक दिन उनसे संपर्क करने का निर्णय किया। प्रसंग मुझे याद नहीं लेकिन तब मैं श्रमला बहू ;उपन्यास लिख रहा था। मैंने उन्हें पत्र लिखा और एक सप्ताह के अंदर ही जब मुझे उनका पत्र मिला। मेरी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। लिखा था...मैं तुम्हे कब से खोज रहा था!.... आज तक कहां थे। 

डॉक्टर साहब का यह लिखना मुझ जैसे साधारण लेखक को अंदर तक आप्लावित कर गया। उसके बाद पत्रों,  मिलने और फोन पर लंबी वार्ताओं का जो सिलसिला प्रारंभ हुआ वह १५.१६ जुलाई १९९८ तक चलता रहा। मुझे याद है अंतिम बार फोन पर उनसे मेरी बात इन्हीं में से किसी दिन हुई थी। उससे कुछ पहले से वे बीमार थे।  डाक्टर प्रोस्टेट का इलाज कर रहे थे। लेकिन उससे उन्हें कोई लाभ नहीं हो रहा था। जून में जब मेरी बात हुई तो दुखी स्वर में वे बोले कि इस बीमारी के कारण अनहद गरजे उपन्यास पर वे कार्य नहीं कर पा रहे ;जो कबीर पर आधारित होने वाला था। उससे पूर्व एक अन्य उपन्यास पूरा करना चाहते थे और उसी पर कार्य कर रहे थेण् यह पुनर्जन्म की अवधारणा पर आधारित था। मैं कहां.कहां खोजूं फोन पर उसकी संक्षिप्त कथा भी उन्होंने मुझे सुनाई थी। लेकिन अनहद गरजे की तैयारी भी साथ.साथ चल रही थी। 

डॉ० शिवप्रसाद सिंह उन बिरले लेखकों में थे जो किसी विषय विशेष पर कलम उठाने से पूर्व विषय से संबंधित तमाम तैयारी पूरी करके ही लिखना प्रारंभ करते थे। नीला चांद, कोहरे में युद्ध, दिल्ली दूर है या शैलूष इसके जीवंत उदाहरण हैं। वैश्वानरश् पर कार्य करने से पूर्व उन्होंने संपूर्ण वैदिक साहित्य खंगाल डाला था और कार्य के दौरान भी जब किसी नवीन कृति की सूचना मिली उन्होंने कार्य को वहीं स्थगित कर जब तक उस कृति को उपलब्ध कर उससे गुजरे नहीं श्वैश्वानरश् लिखना स्थगित रखा। किसी भी जिज्ञासु की भांति वे विद्वानों से उस काल पर चर्चा कर उनके मत को जानते थे। १९९३ के दिसंबर में वे इसी उद्देश्य से डॉ० रामविलास शर्मा के यहां गए थे और लगभग डेढ़ घण्टे विविध वैदिक विषयों पर चर्चा करते रहे थे। 

जून में जब मैंने उन्हें सलाह दी कि वे दिल्ली आ जाएं जिससे प्रोस्टेटश् के ऑपरेशन की व्यवस्था की जा सके तब वे बोले डॉक्टरों ने यहीं ऑपरेशन के लिए कहा है गरमी कुछ कम हो तो करवा लूंगा दरअसल वे यात्रा टालना चाहते थे जिससे उपन्यास पूरा कर सकें डॉक्टरों ने कल्पना भी न की थी कि उन्हें कोई भयानक बीमारी अंदर.ही अंदर खोखला कर रही थी। 

उनका शरीर भव्य आंखें बड़ीं..यदि अतीत में जाएं तो कह सकते हैं कि कुणाल पक्षी जैसी सुन्दर लालट चौड़ा चेहरा बड़ा और पान से रंगे होंठ सदैव गुलाबी रहते थे। मैंने उन्हें सदैव धोती पर सिल्क का कुरता पहने ही देखा जो उनके व्यक्तित्व को द्विगुणित आभा ही नहीं प्रदान करता था बल्कि दूसरे पर उनकी उद्भट विद्वत्ता की छाप भी छोड़ता था। हर क्षण चेहरे पर विद्यमान तेज और तैरती निश्च्छल मुकराहट ने डॉक्टरों को धोखा दे दिया था और वे आश्वस्त कर बैठे कि मर्ज लाइलाज नहीं है। साहित्यकार मैं कहां.कहां खोजूं को पूरा करने में निमग्न हो गया जिससे अपने अगले महत्वाकांक्षी उपन्यास अनहद गरजे पर काम कर सकें। डॉक्टर साहब कबीर पर डूबकर लिखना चाहते थे क्योंकि यह एक चुनौतीपूर्ण उपन्यास बनने वाला था; कबीर सदैव सब के लिए चनौती रहे हैं...लेकिन शरीर साथ नहीं दे रहा था। जुलाई में एक दिन वे बाथरूम जाते हुए दीवार से टकरा गए। सिर में चोट आई लेकिन इसके बावजूद वे मुझसे पन्द्रह.बीस मिनट तक बातें करते रहे थे। मैं उनकी कमजोरी भांप रहा था और तब भी मैंने उन्हें कहा था कि वे दिल्ली आ जांए नहीं ठीक हुआ तो आना ही पड़ेगा.. ठंडा सा स्वर था उनका, सदैव से पृथक थी वह आवाज। अन्यथा फोन पर भी उनकी आवाज के गांभीर्य को अनुभव करना मुझे सुखद लगता था... कहो रूप क्या हाल हैं? बात का प्रारंभ वे इसी वाक्य से करते थे। 

डॉक्टर साहब दिल्ली आए लेकिन देर हो चुकी थी। आने से पूर्व उन्होंने मुझे फोन करने का प्रयत्न किया रात में  लेकिन फोन नहीं मिला। तब मोबाइल का चलन न था। उन्होंने डॉ० कृष्णदत्त पालीवाल को फोन कर आने की बात बताई। पालीवाल जी ने उन्हें एयरपोर्ट से रिसीव किया। कई दिन डॉक्टरों से संपर्क करने में बीते। अंततः १० अगस्त को उन्हें राममनोहर लोहिया अस्पताल के प्राइवेट नर्सिंग होम में भर्ती करवाया गया। मैं जब मिलने गया तो देखकर हत्प्रभ रह गया... क्या ये वही डॉ० शिवप्रसाद सिंह हैं? डॉक्टर साहब का शरीर गल चुका था। शरीर का भारीपन ढूंढ़े़ भी नहीं मिला। कंचन.काया घुल गई थी और बांहों में झुर्रियां स्पष्ट थीं। मेरे समक्ष एक ऎसा युगपुरुष शय्यासीन था, जिसने साहित्य में मील के पत्थर गाडे़ थे, जिधर रुख किया..शोध, आलोचना, निबंध, कहानी, उपन्यास, यात्रा संस्मरण या नाटक...उल्लेखनीय काम किया। मैं यह बात पहले भी कह चुका हूं और निस्संकोच पुनः कहना चाहता हूं कि हिन्दी उपन्यासों के क्षेत्र की उदासीनता उनके नीला चांद से टूटी थी। इसे इस रूप में कहना अधिक उचित होगा कि नीला चांद से ही उपन्यासों की वापसी स्वीकार की जानी चाहिए। नई पीढ़ी जो कहानियों और अन्य लघु विधाओं में मुब्तिला थी, उसके पश्चात उपन्यासॊं की ओर आकर्षित हुई। बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक को यदि उपन्यास दशक के रूप में रेखांकित किया जाए तो अत्युक्ति न होगी। अनेक महत्वपूर्ण उपन्यास इस दशक में आए यह अलग बात है कि साहित्य की निकृष्ट राजनीति और तत्काल.झपट की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण जिन उपन्यासों की चर्चा होनी चाहिए थी नहीं हुई या अपेक्षाकृत कम हुई और जिनकी हुई वे उस योग्य न थे। डॉ शिवप्रसाद सिंह के उपन्यासों . शैलूष श्हनोज दिल्ली दूर अस्त जो दो खंडॊं .. कोहरे में युद्ध एवं दिल्ली दूर है के रूप में प्रकाशित हुए थे एवं औरत और उनके अंतिम उपन्यास वैश्वानर की अपेक्षित चर्चा नहीं की गई। ऎसा योजनाबद्ध रूप से किया गया डॉ० शिव प्रसाद सिंह इस बात से दुखी थे। वे दुखी इस बात से नहीं थे कि उनकी कृतियों पर लोग मौन धारण का लेते थे, बल्कि इसलिए कि हिन्दी में जो राजनीति थी उससे वह साहित्य का विकास अवरुद्ध देखते थे। उनसे मुलाकात होने या फोन करने पर व साहित्यिक राजनीति की चर्चा अवश्य करते थे। 

डॉक्टर साहब के अनेक पत्र हैं मेरे पास हैं। जिनमें उन्होंने मुझे सदैव यही सलाह दी कि लेखन में न कोई समझौता करूं न किसी की परवाह और उन्होंने भी किसी की परवाह नहीं की जीवन में कभी व्यवस्थित नहीं रहे। रहे होते तो वे दूसरे बनारसी विद्वानों की भांति बनारस में ही न पड़े रहे होते। कहीं भी कोई ऊंचा पद ले सकते थे। ऎसा भी नहीं कि उन्हें ऑफर नहीं मिले। लेकिन वे कभी कैरियरिस्टश् नहीं रहे। जीवन की आकांक्षाएं सीमित रहीं। बहुत कुछ करना चाहते थे। वैश्वानर लिख रहे थे उन दिनों एक बार कहा था .यदि जीवन को दस वर्ष और मिले तो सात.आठ उपन्यास और लिखूंगा। 
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१९४९ में उदय प्रताप कॉलेज से इंटरमीडिएट कर शिवप्रसाद जी ने १९५१ में बीएचयू से बीए और १९५३ में हिन्दी में प्रथम श्रेणी में प्रथम एमए किया था। स्वर्ण पदक विजेता डॉ शिवप्रसाद सिंह ने एमए में कीर्तिलता और अवहट्ठ भाषा पर जो लघु शोध प्रबंध प्रस्तुत किया उसकी प्रशंसा राहुल सांकृत्यायन और डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने की थी हालांकि वे द्विवेदी जी के प्रारंभ से ही प्रिय शिष्यों में थे किन्तु उसके पश्चात द्विवेदी जी का विशेष प्यार उन्हें मिलने लगा। द्विवेदी जी के निर्देशन में उन्होंने सूर पूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य विषय पर शोध संपन्न किया जो अपने प्रकार का उत्कृष्ट और मौलिक कार्य था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में १९५३ में प्रवक्ता नियुक्त हुए जहां से ३१ अगस्त १९८८ में प्रोफेसर पद से उन्होंने अवकाश ग्रहण किया था।  भारत सरकार की नई शिक्षा नीति के अंतर्गत यूजीसी ने १९८६ में उन्हें हिन्दी पाठ्यक्रम विकास केन्द्र का समन्वयक नियुक्त किया था। इस योजना के अंतर्गत उनके द्वारा प्रस्तुत हिन्दी पाठ्यक्रम को यूजीसी ने १९८९ में स्वीकृति प्रदान की थी और उसे देश के समस्त विश्वविद्यालयों के लिए जारी किया था। वे श्रेलवे बोर्ड के राजभाषा विभाग के मानद सदस्य भी रहे और साहित्य अकादमी बिरला फाउंडेशन उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान जैसी अनेक संस्थाओं से किसी.न.किसी रूप में संबद्ध रहे थे। 

डॉक्टर साहब प्रारंभ में अरविंद के अस्तित्ववाद से प्रभावित रहे थे और यह प्रभाव कमोबेश उन पर अंत तक रहा भी लेकिन बाद में वे लोहिया के समाजवाद के प्रति उन्मुख हो गए थे और आजीवन उसी विचारधारा से जुड़े रहे। एक वास्तविकता यह भी है कि वे किसी भी प्रगतिशील से कम प्रगतिशील नहीं थे लेकिन प्रगतिशीलता या मार्क्सवाद को कंधे पर ढोनेवालों या उसी का खाने.जीनेवालों से उनकी कभी नहीं पटी इसका प्रमुख कारण उन लोगों के वक्तव्यों और कर्म में पाया जानेवाला विरोधाभास  डॉ शिवप्रसाद सिंह को कभी नहीं रुचा वे अंदर.बाहर एक थे। जैसा लिखा वैसा ही जिया भी इसीलिए तथाकथित मार्क्सवादियों या समाजवादियों की छद्मता से वे दूर रहे और इसके परिणाम भी उन्हें झेलने पड़े। १९६९ से साहित्य अकादमी में हावी एक वर्ग ने यह दृढ़ निश्चय कर लिया था कि उन्हें वह पुरस्कृत नहीं होने देगा... और लगभग बीस वर्षों तक वे अपने उस कृत्य में सफल भी रहे थे लेकिन क्या सागर के ज्वार को अवरुद्ध किया जा सकता है? शिवप्रसाद सिंह एक ऎसे सर्जक थे जिनका लोहा अंततः उनके विरोधियों को भी मानना पड़ा। 

डॉक्टर साहब ने जीवन में बहुत उतार.चढ़ाव देखे लेकिन उनके जीवन का बेहद दुःखद प्रसंग था उनकी पुत्री मंजुश्री की मृत्यु। उससे पहले वे दो पुत्रों को खो चुके थे लेकिन उससे वे इतना न टूटे थे जितना मंजुश्री की मृत्यु ने उन्हें तोड़ा था। वे उसे सर्वस्व लुटाकर बचाना चाहते थे। बेटी की दोनों किडनी खराब हो चुकी थीं। वे उसे लिए दिल्ली से चेन्नई तक भटके थे। अपनी किडनी देकर उसे बचाना चाहते थे, लेकिन नहीं बचा सके थे। उससे पहले चार वर्षों से वे स्वयं साइटिका के शिकार रहे थे जिससे लिखना कठिन बना रहा था मंजुश्री की मृत्यु ने उन्हें तोड़ दिया था। आहत लेखक लगभग विक्षिप्त.सा हो गया था। उनकी स्थिति से चिंतित थे डॉ हजारीप्रसाद द्विवेदी... और द्विवेदी जी ने अज्ञेय जी को कहा था कि वे उन्हें बुलाकर कुछ दिनों के लिए कहीं बाहर ले जाएं स्थान परिवर्तन से शिवप्रसाद सिंह शायद ठीक हो जाएंगे। डॉक्टर साहब ने यह सब बताया था इन पंक्तियों के लेखक को मंजु की मृत्यु के पश्चात वे मौन रहने लगे थे.... कोई मिलने जाता तो उसे केवल घूरते रहते  साहित्य में चर्चा शुरू हो गई थी कि अब वे लिख न सकेंगे ...बस अब खत्म। 

लेकिन डॉक्टर साहब का वह मौन धीरे.धीरे ऊर्जा प्राप्त करने के लिए था शायद उन्होंने अपने को उस स्थिति से उबारा था। समय अवश्य लगा था लेकिन वे सफल रहे थे और वे डूब गए थे मध्यकाल में। यद्यपि वे अपने साहित्यिक गुरु डॉ हजारीप्रसाद द्विवेदी से प्रभावित थे लेकिन डॉ नामवर सिंह के इस विचार से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि डॉ. शिवप्रसाद सिंह को ऎतिहासिक उपन्यास लेखन की प्रेरणा द्विवेदी जी के चारुचंन्द्र लेख से मिली थी द्विवेदी जी का चारुचंद्र लेख भी ग्यारहवीं.बारहवीं शताब्दी के राजा गहाड़वाल से संबधित है ;राष्ट्रीय सहारा १८ अक्टूबर १९९; नामवर जी के इस कथन को क्या परोक्ष टिप्पणी माना जाए कि चूंकि द्विवेदी जी ने गहाड़वालों को आधार बनाया इसलिए शिवप्रसाद जी ने चंदेल नरेश कीर्तिवर्मा की कीर्ति पताका फरहाते हुए नीला चांद और त्रलोक्य वर्मा पर आधारित कोहरे में युद्ध एवं दिल्ली दूर है लिखा। नीला चांद जिन दिनों वे लिख रहे थे साहित्यिक जगत में एक प्रवाद प्रचलित हुआ था कि डॉ शिवप्रसाद सिंह अपने खानदान ;चन्देलों पर पर उपन्यास लिख रहे हैं; मेरे एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा था...मैं नहीं समझता कि मैंने ऎसा लिखा है। मैंने तो जहां तक पता है, उनके वंश पर लिखा है...मेरी मां गहाड़वाल कुल से थीं और वे भी गहाड़वाल हैं ;शायद यह बात उन्होंने नामवर जी के संदर्भ में कही थी। क्या मैं अपने मातृकुल का अनर्थ सोचकर उपन्यास लिख रहा था जो सत्य है वह सत्य है उसमें क्या है और क्या नहीं है यही सब यदि मैं देखता तो चंदबरदाई बनता । 

डॉक्टर साहब ऊपर से कठोर लेकिन अंदर से मोम थे। जितनी जल्दी नाराज होते उससे भी जल्दी वे पिघल जाते थे। वे बेहद निश्छल, सरल और किसी हद तक भोले थे। उनकी इस निश्च्छलता का लोग अनुचित लाभ भी उठाते रहे। सरलता और भोलेपन के कारण कई बार वे कुटिल पुरुषों की पहचान नहीं कर पाते थे। कई ऎसे व्यक्ति जो पीठ पीछे उनके प्रति अत्यंत कटु वचन बोलते किन्तु सामने उनके बिछे रहे थे और डॉक्टर साहब उनके सामनेवाले स्वरूप पर लट्टू हो जाते थे। हिन्दी साहित्य का बड़ा भाग बेहद क्षुद्र लेखकों से भरा हुआ है, जो घोर अवसरवादी और अपने हित में किसी भी हद तक गिर जाने वाले हैं। यह कथन अत्यधिक कटु किन्तु सत्य है। डॉक्टर साहब इस सबसे सदैव दुःखी रहे। वे साहित्य में ही नहीं, जीवन में भी शोषित, उपेक्षित और दलित के साथ रहे ...शैलूषश हो या औरत या उनकी कहानियां इतिहास में उनके प्रवेश से आतंकित उनका विरोध करनेवाले साहित्यकारों.आलोचकों ने क्या उनके नीला चांद के बाद के उपन्यास पढ़े हैं? क्या इतिहास से कटकर कोई समाज जी सकता है? जब ऎतिहासिक लेखन के लिए हजारीप्रसाद द्विवेदी के प्रशंसक डॉ शिवप्रसाद सिंह की आलोचना करते हैं तब उसके पीछे षड्यंत्र से अधिक डॉ शिवप्रसाद सिंह की लेखन के प्रति आस्थाए निरंतरता और साधना से उनके आतंकित होने की ही गंध अधिक आती है। वास्तव में उनका मध्ययुगीन लेखन वर्तमान परिप्रेक्ष्य की ही एक प्रकार की व्याख्या है। इस विषय पर बहुत कुछ कहने की गुंजाइश है, लेकिन इस बात से अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि उनकी कृतियों का मूल्यांकन अब होगा.. हिन्दी जगत को करना ही होगा। उनकी साधना की सार्थकता स्वतः सिद्ध है। नीला चांद जैसे महाकाव्यात्मक उपन्यास कभी.कभी ही लिखे जाते हैं .... और यदि उसकी तुलना तॉल्स्तोय के युद्ध और शांति से की जाए तो अत्युक्ति न होगी। 

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साहित्य के महाबली डॉ शिवप्रसाद सिंह को अस्पताल की शय्या पर पड़ा देख मैं कांप गया था। वर्षों से मैं उनसे जुड़ा रहा था। वे जब.जब दिल्ली आए, शायद ही कोई अवसर रहा होगा जब मुझसे न मिले हों। बिना मिले उन्हें चैन नहीं था। मेरे प्रति उनका स्नेह यहां तक था कि दिल्ली के कई प्रकाशकों को कह देते...जो कुछ लेना है रूप से लो अर्थात उनकी कोई भी पांडुलिपिण् कई ऎसे अवसर रहे कि मैं सात.आठ.. दस घंटे तक उनके साथ रहा और उस दिन वे इतना अशक्त थे कि मात्र क्षीण मुस्कान ला इतना ही पूछा ..कहो रूप!! 

डॉक्टर साहब अस्पताल से ऊब गए थे। उन्हें अपनी मृत्यु का आभास भी हो गया था शायद। वे अपने बेटे नरेंद्र से काशी ले जाने की जिद करते जिसके सामाजिक.सांस्कृतिक जीवन को वे अपने तीन उपन्यासों .. नीला चांद, गली आगे मुड़ती है और वैश्वानर में जी चुके थे, जिसे विद्वानों ने इतालवी लेखक लारेंस दरेल के एलेक्जेंड्रीया क्वाट्रेट की तर्ज पर ट्रिलॉजी कहा था। वे कहते ...जो होना है वहीं हो और वे ७ सितंबर को सहारा की नौ बजकर बीस मिनट की फ्लाइट से बनारस उड़ गए थे.... एक ऎसी उड़ान के लिए जो अंतिम होती है। ६ सितंबर को देर रात तक मैं उनके साथ था। बाद में १० सितंबर को नरेंद्र से फोन पर उनके हाल जाने थे। नरेंद्र जानते थे कि वे अधिक दिनों साथ नहीं रहेंगे। उन्हें फेफड़ों का कैंसर था, लेकिन इतनी जल्दी साथ छोड़ देंगे यह हमारी कल्पना से बाहर था। २८ सितंबर को सुबह चार बजे साहित्य के उस साधक ने आंखें मूंद लीं सदैव के लिए और उसके साथ ही हजारीप्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, यशपाल एवं भगवतीचरण वर्मा की परंपरा का अंतिम स्तंभ ढह गया था। निस्संदेह हिन्दी साहित्य के लिए यह अपूरणीय क्षति थी। 

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9 टिप्पणियाँ

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  2. " हिंदी साहित्य के इतिहास के पुरोधाओं की याद को सचित्र करता चंदेल जी का यह संस्मरण मन के भीतर श्रद्धा को उपजाता हुआ, एक अपने के खोने की कचोटन पैदा करता है यह सही है की साहित्य के महाबली डॉ शिवप्रसाद सिंह का निधन हिन्दी साहित्य के लिए यह अपूरणीय क्षति है । लेकिन यह भी सत्य है की अपने लेखन कौशल के साथ , पूर्व की महान परिपाटी को साथ लेकर , वर्तमान में भी कुछ हैं जो साहित्यक योगदान के लिए अपना बहुत कुछ न्योछावर कर रहें हैं जरुरत उस मेकेनिज्म की है जो उनसे उनका सर्व श्रेष्ठ ले सके ताकि कुछ आभाव में बहुत कुछ दम न तोड़ दे "

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  3. ROOP SINGH CHANDEL MERE PRIY RACHNAKAAR HAIN .
    APNE SAMKAALEENON KO YAAD KARNA UNKEE NEK
    AADTON MEIN EK HAI . UNKE SANSMARAN AVISMARNIY
    HOTE HAIN . DR . SHIV PRASAD SINGH PAR LIKHA UNKAA
    YAH SANSMARAN SAAKSHEE HAI . ADBHUT !

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  4. ROOP SINGH CHANDEL JI KAA SANSMARAN DOBAARAA PADH
    GAYAA HUN . IS SHIDDAT SE UNHONNE DR. SHIV PRASAD
    SINGH KE VYAKTITV V KRITITV PAR PRAKAASH DAALAA
    HAI UNKEE MAHAANTA KO DARSHAATAA HAI . MAINE UNKE
    KAEE SANSMARAN PADHEN HAIN . LAGHBAGH HAR SANSMARAN
    MEIN UNKEE SHRIDAYTA JHALAKTEE HAI . UNKO EK SHER
    SAMARPIT HAI -

    AAP KARTE HAIN HAMESHA YAAD HAR IK KO
    LOG VARNA EK DIN MEIN BHOOL JAATE HAIN

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  5. आदरणीय प्राण जी के शेर ने मन मुग्ध हो उठा. प्रतिक्रिया देने के लिए उनका आभार.

    भाई अवधेश कुमार की टिप्पणी, जिसे उन्होंने किसी कारण हटा दिया, पढ़ा था. उनके प्रति भी आभार.

    रूपसिंह चन्देल

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  6. शिवप्रसाद सिंह मेरे प्रिय उपन्यास कारों में रहे हैं | उनका नीला चाँद मुझे बेहद प्रिय है | १९९३ के बनारस के पुस्तक मेले में मैंने पहली बार उनको सुना था | उनकी गंभीर आवाज देर तक पीछा करती रही थी | तब यह समझ नहीं थी कि आज कुछ विशिष्ट पा लिया है जो आने वाले वर्षों में प्रेरणा तो बनेगा ही, विस्मृति से परे भी होगा |
    रूप जी का यह संस्मरण प्रकाशित करके साहित्य शिल्पी ने मेरे जैसे पाठकों को अपने प्रिय लेखक के व्यतित्व को जानने का अवसर दिया है| उन्हें और साहित्य शिल्पी को बधाई!
    सादर
    इला

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  7. आदर्णीय रूप सिंह चन्देल जी का डा० शिव प्रसाद सिंह पर लिखा यह संस्मरण उनके व्यक्तित्व और कतित्व का एक सार्थक शब्द-चित्र है जो मानस पटल पर गहरा प्रभाव छोडता है । रूप सिंह जी के लिखे अनेक संसमरण इस विधा में उनकी अपार क्षमता का प्रतीक हैं । कमल

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  8. हिन्दी के जिस पाठक या लेखक ने शिवप्रसाद जी की उपन्यास त्रयी नहीं पढ़ी, वह अच्छी रचनाओं से वंचित रह गया। मैंने उनके उपन्यास न सिर्फ़ ख़ुद पढ़े थे, बल्कि कई लोगों को पढ़ने के लिए उपहार में भी दिए थे। रूपसिंह चंदेल जी की इस बात से सहमत हूँ कि उनके 'नीला चांद की तुलना यदि तलस्तोय के उपन्यास'युद्ध और शान्ति' से की जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।

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  9. अनिल भाई, आपका आभारी हूं कि आपने मेरी बात को प्रमाणित किया. वर्ना तो लोग चुप्पी साध लेते हैं.

    रूपसिंह चन्देल

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