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कविता |
जाते-जाते उसे लगा कि उसकी यह कोशिश भी जाया गई.
कोशिशें यूं भी बेकार जाने के लिये ही होती हैं. बेकार होते-होते कहीं कोई साकार हुई तो हुई ... हुई तो समझो सब नकार भी सार्थक हो लिया. पर इस बार उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह फिर-फिर उठे... फिर एक कोशिश करे. और अब वक्त भी कहां था उसके पास . उम्र के कितने बरस यूं ही बिता दिये इसी एक आस में कि अब कुछ हुआ... अब कुछ होगा... पर क्या होना था और क्या होता...मामला क्यों न बाबूजी का ही हो, उन्हीं बाबूजी का जो उसे पढ़ कर सुनाते रहते थे -
नरम काई उग आती है, कड़ी चभन पर / पानी काट देता है बड़े से बड़े पत्थर को / और हाथ जो शरीर का कमोबेश कोमल हिस्सा है / कठोर संगमरमर पर तराश देती है फूल और पत्तियां.
हमेशा से स्थिति ऐसी ही नहीं थी, जब उम्र कम थी उसकी, जब वह भी इसी घर के बाशिन्दों में से एक थी जोश और हिम्मत थी उसमें बेपनाह. वह सोचती थी अक्सर, वह बदल सकती है सबकुछ. और वह कोशिश करती रहती लगातार. एक के बाद एक, अनथक.
तब शायद उसे इतनी अक्ल नहीं थी कि वो यह सोचती या कि पूछ पाती कि आपकी तमाम कोशिशें फिर क्यों बेकार हो जाती हैं? मसलन बाबूजी कभी मां के लिये साड़ी खरीद लाते तो यही कहती वे... रहने दीजिये, यह साड़ी लाकर क्या जताना चाहते हैं आप? क्या साबित करना चाहते हैं कि आपको मेरा बहुत ख्याल है. सारी ज़िंदगी किस तरह मैंने एक-एक, दो-दो सूती साड़ियों में काटी है. तब तो कभी आपको मेरा ख्याल नहीं आया , ढोर-ढंगरों की तरह घर में डाला और भूल गये... और मां की आंखों से सचमुच आंसू निकल आते. उसे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता मां का यूं रोना. मां का अतीत कंकड़ीला था, लहुलूहान था उनका पूरा शरीर पर बाबूजी फिर भी धैर्य के साथ पेश आते कि कभी न कभी तो ये सारे दाग धुल जायेंगे. कभी न कभी यह सारी कड़वाहट निकलते-निकलते निःशेष हो लेगी. पर कब, उन्हें नहीं पता था. ... उन्हें तो बस उस कल की प्रतीक्षा थी.
उन्होंने एक दिन उससे कहा था जानती हो विनी, जब मेरी शादी हुई तो मैं पढ़ता ही था. फिर जब कमाने लगा तो तीन छोटे भाई-बहनों का दायित्व.बाद में जब कमाई थोड़ी बढ़ी और केवल अपना परिवार बचा तो तुम बच्चों का दायित्व... कुछ भी कभी भी अपनी पत्नी के लिये अलग से कर सकूं इसकी कोई गुंजाइश ही कहां थी. और सीता कभी खुश भी न हो सकी मेरी पसन्द से. उसकी पसन्द बहुत ऊंची और कलात्मक थी. कुछ भी तो कभी उसे उसके मन लायक नहीं दे सका.... सो बाद में जब साड़ी लेने का वक्त होता पैसे ही थमा देता. मेरी औकात में ही सही उसकी पसन्द के कपड़े तो होंगे न... वह गलत कहां कहती है...
वह लाड़ से बाबूजी के कन्धों पर अपनी हथेलियां दबा देती जैसे कि वह समझ रही है सब कुछ... ठीक उसी तरह जिस तरह सुबह उसने मां के छलछलाये आंसू को अपने दुपभ के कोर में थाम लिया था. मुश्किल था यह सब कुछ पर उसे इन चीजों को सम्भालने का लम्बा अभ्यास था. यह एहसास वैसा ही था जैसे किसी नट का तनी रस्सी पर सम्भल-सम्भल कर चलने का अभ्यास. मां-बाबूजी मानो रस्सी के दो छोर थे उसे दोनों के दुःख छूते. वह दोनों की पीड़ा की सहभागी थी. वह दोनों को खुश रखना चाहती थी. वह दोनों की थी और दोनों की बनी रहना चाहती थी. यह कम दुर्गम न था, पर था तो था...
हालांकि मां कहने लगी थी तबतक - उसे तो बस अपने बाबूजी की फिक्र रहती है... कि वह तो हमेशा अपने बाबूजी का ही पक्ष लेगी...शायद जाने अनजाने हो जाता हो ऐसा. अब मां तो झूठ नहीं बोलती होंगी न... वह जानती थी समय के साथ बदला था बहुत कुछ उसके भीतर भी.
छुटपन में वह जब भी मां की आंखों में आंसू देखती उसे बाबूजी पर बेइन्तहा गुस्सा आता. उसे लगता मां रोती है तो बस बाबूजी के कारण. वह मां के पास ही डोलती रहती लगातार. उनके पुनःव्यवस्थित हो लेने तक. उसे बाबूजी बहुत बुरे लगते, बहुत-बहुत बुरे जो मां को इस कदर रुलाते हैं...
पर बड़े हो कर जाना था यह सच कि जरूरी नहीं है कि आंसू जिसकी आंखों में हो बेकसूर भी वही हो. खास कर तब जब शादी के लायक उम्र हो चली थी उसकी. छोटे और बड़े दोनों भाई अपनी पढ़ाई और नौकरी के ख्वाब में डूबे रहते और मां बाबूजी के पीछे दिन रात पड़ी रहती उसके लिये योग्य वर की तलाश के लिये. वक्त-बेवक्त की हदें जैसे टूटती जा रही थी. बाबूजी के हाथ का कौर वहीं का वहीं थमा रह जाता. तैयार होते-होते वे बिना शर्ट बदले या बगैर दाढ़ी बनाये ही दफ्तर निकल जाते.
और मां...? मां भी कब खा-पी पाती कुछ फिर... और उसका उपवास तो अपने आप हो जाता. ग्लानि भाव से आंखें सूजी. उभरे पपोटे और खुले-बिखरे केश जैसे उसके स्थायी स्वरूप का हिस्स हो चले थे.. वह एक स्थायी अपराधबोध से ग्रसित रहने लगी थी. वही है इस सब के पीछे, वही है मां-बाबूजी के बिगड़े रिश्तों का सबब... सारे कलह-द्वेष की जड़ सिर्फ वही है, वही... सोचती है अब तो आश्चर्य भी होता है. क्यों नहीं किसी कुएं-नदी में छलांग लगाई उसने. घर में ही पड़ी नींद की गोलियों तक को नहीं छुआ. हद था उसका धीरज. पर उसके धीरज तो उसके बाबूजी थे. बाबूजी सामने होते तो सारा दुख, सारी उदासी यूं उड़ जाती फुर्र से खुशगवार हो कर, जैसे रंग बिरंगी तितलियां... वह फिर से फुदकने-उड़ने लगती. अपनी पढ़ाई और अफसरी के सपने देखने लगती. पर कब तक? सिर्फ अगले युद्धघोष तक.
बाबूजी ने कह दिया था एक दिन मैं नहीं ढूंढ़ पा रहा कोई रिश्ता, मैं नाकारा और नाकाबिल पिता हूं... और मैं अब ढूढ़ूंगा भी नहीं...
बाबूजी ने कहने को तो कह दिया होगा पर इसका परिणाम सपने में भी सोच न पाये होंगे वे. क्षणों की देरी में मां बिछावन से उतर कर जमीन पर लेट गई थी और चारपाई के पाये उनके सिर पर बजने लगे थे ताबड़तोड़. वे दोनो हतप्रभ थे; पर उसने संभल के मां को खींचा था बाहर. बाबूजी ने पाये पर से मां की पकड़ छुड़वाई थी - यह क्या कर रही हो सीता... तुम जीती मैं हार गया. बाबूजी पहली बार फफक-फफक कर रो रहे थे बच्चों की नाई. तुम जो कहोगी वही करूंगा, पर ऐसा कुछ न करना फिर कभी.
वे उससे कह रहे थे, विनी... विनीता, जरा डेटाल और पभ्ी तो ला दो... पर वह नहीं हिली थी, बाबूजी के पुकारते रहने पर भी. उसे ऐसा खयाल क्यों नहीं आया? करना तो उसे चाहिये था यह सब...आखिर सारे कलह की जड़ वही तो थी, एक मात्र वही.
बाबूजी सुनी-अनसुनी करते देख उस पर चीखे थे, शायद पहली बार - सुनती नहीं क्या विनी, बहरी हुई जाती है बिल्कुल... मैं कब से कह रहा हूं... वह फिर भी नहीं हिली थी. खीज कर खुद उठ कर सब कुछ लाये थे. वे सुबकते हुये मां की मरहम पभ्ी करते रहे थे, उनके सिरहाने बैठे रहे थे चुपचाप उनका हाथ थामे हुये. वे शायद तब पहली बार टूटे थे...
सबसे अजीब बात तो यह कि मां चुप हो गई थी बिल्कुल. एक शब्द भी नहीं. यह हैरत की बात थी उसके लिये. मां और इस तरह चुप, वह भी जब बाबूजी उसके सामने बैठे हों... उसने होठ बिचकाये थे अपने... कुछ भी हो उसे क्या.
उसके मन में गहरी वितृष्णा जाग उठी थी... अपने लिये... मां के लिये... और तो और बाबूजी के लिये भी. क्यों सुनते हैं वह यह सबकुछ...क्यों सहते हैं वे सब चुपचाप... ऐसी कौन सी मजबूरी है.
भीतर की सारी वितृष्णा जैसे इकम्ी हो चली थी, एक गोला गुबार का घुमड़ने लगा था उसके भीतर कि जिस बात के लिये लड़ते-झगड़ते हैं वे, वो हक तो उसका अपना है और वह हक वह उन्हें कभी नहीं देने वाली. उसने अपने सीने के अन्दर संचित सारे आक्रोश को इकम कर जैसे निर्णय का जामा पहना दिया था.... गजब यह कि क्रोध और दुख इस हद तक घुलमिल कर बह रहे थे उसके भीतर कि उस क्षण जो कोई भी दिख जाता उसके आगे वह उसका हाथ थाम चल देती.
बाबूजी जानते थे वह भीतर ही भीतर सुलग-धधक रही है. गहरा अवसाद है उसके भीतर. वे फिक्र में रहते यह ज्वालामुखी फूटे नहीं. मां और घर के दायित्वों से फुरसत पाते ही उसके गुस्से में बाकोशिश पानी उलीचते... विनी सुन तो... वह अनसुना कर देती. वे फिर-फिर पुकारते. उस दिन वे उसे कन्धे से पकड़ कर ले गये थे अपने कमरे तक. बिठाया था उसे अपने सामने - बहुत नाराज हो मुझ से...? अरे सुन तो बेटा... मेरी बिटिया मुझसे भी नाराज हो जायेगी फिर कैसे जियूंगा मैं...तेरे साथ का, तेरे प्यार का ही लोभ था वह; जो तुम्हारे मां की जली-कटी सुनने के बावजूद गंभीरता से तेरे लिये रिश्ता ढूंढने से डरता था. बिल्कुल अकेला हो जाऊंगा मैं, तेरी पढ़ाई तो बस एक बहाना थी. तुम नहीं रही तो कौन होगा जिससे मैं दो बातें मन की कर पाऊं, जो मेरा खयाल रखे, तुम्हारी तरह. इसीलिये उनकी बात एक कान से सुनता और दूसरी से निकाल देता. पर भूल गया था मैं शायद, ओस की बूंदों से प्यास बुझाऊंगा तो आखिर कब तक...? तुझे तो जाना ही है बेटा अभी नहीं तो फिर कभी...वह उनकी गोद में ऐसे सिमट आई थी जैसे चिड़िया घोसले में दुबक आई हो. अपने भीतर जमे क्रोध और अवसाद के थक्कों को परे धकेलती हुई, अपने ही निर्णय के खिलाफ... मुझे आपको छोड़ कर कहीं नहीं जाना बाबूजी, कहीं नहीं. और वह यह सब बिल्कुल भी उस तरह से नहीं कह रही थी जिस तरह इस उम्र की अधिकांश लड़कियां कहती है शादी के ठीक पहले, ऊपर-ऊपर या झूठी-मूठी. पर बाबूजी अपने आप में ही लिप्त थे. सोचो तो तुम्हारी मां गलत नहीं कह रही थी... उसके मन का कड़वाहट जाते-जाते फिर एकजुट हो गया था. कपाट भीतर ही जड़ लिये थे उसने - बस कीजिये बाबूजी... उसकी आवाज बहुत दृढ़ थी.
बाबूजी ने शायद उसके कहे को गौर से नहीं सुना था. या कि सुना था भी तो कुछ इस तरह कि जैसे हर बेटी का बाप सुनता या समझता है. वे बेतरह रिश्ते की तलाश में जुट पड़े थे. वह ऊपर-ऊपर संयत थी, भीतर से बिल्कुल भी नहीं. और इस सब की कसूरबार उसकी नजर मे मां थी, बस मां.
यही वह वक्त था जब मां के बारे में या मां की तरफ से सोचना चाहती वह तो जबरन, मन मार कर या फिर दिमाग से. यही वह समय था जब वह बाबूजी के साथ न होते हुये भी उनके पक्ष में जा खड़ी हुई थी चुपचाप. मां कहती थी तो शायद ठीक ही कहती थी. वह तो बाबूजी का ही पक्ष लेगी. पर मां के साथ उसके दो बेटे थे, बाद में दो बहुएं भी... और फिर उनके बच्चे भी. अकेले तो बाबूजी को ही होना था हर हाल में.
यही वह वक्त था उसकी ज़िंदगी का जब उसने किसी भी मुद्दे पर एकजुट और एकमत देखा था मां- बाबूजी को. देर रात जब बाबूजी लौटते तस्वीरों , रिश्तों पर बतियाते आधी रात तक, खुसुर-फुसुर. उस एक दिन ने बदल दिया था सब कुछ... मां बाबूजी का रिश्ता भी जिसके लिये उसका अब तक का सारा प्रयास निरर्थक गया था. तो क्या वही खड़ी थी उनके रिश्तों के बीचमबीच. वही थी जो उन्हें नजदीक नहीं आने देती थी? बाबूजी मां के हिस्से का भी वक्त उस पर ही खर्च कर डालते थे या कि वही छीन लेती थी मां के भी हिस्से का अधिकार? मां-बाबूजी को एक साथ पा कर उसने ऐसा ही सोचा था. मां की तकलीफ को भी महसूस किया था उसने उसी क्षण.
अब बाबूजी के पास उसके लिये वक्त कम गया था. उसे चिढ़ होती, नफरत होती. मां से... बाबूजी से...अपने लिये आनेवाले रिश्तों से... मां-बाबूजी की एकमत खुशी से. जबकि वे एकजुट हो कर उसके लिये बेहतर से बेहतर वर तलाशने में लगे हुये थे.
इसी खुशी से जलकर उसने एक घोषणा की थी. मैं शादी करने जा रही हूं, जल्दी ही. क्यों...किससे... कब...??? दोषारोपण के, कलह के सिलसिले फिर शुरु हो गये थे. मां बाबूजी पर इल्जाम लगाती फिरती - लड़की का दिमाग खराब कर रखा था. सब कुछ तो इन्हीं का किया धरा है.
मैं डरती थी इसी दिन से. मुझे पता था... बाबूजी भागने लगे थे उनसे, घर से.
वह खुश होती बाबूजी के पास फिर वक्त हो चला था उसे समझाने-बहलाने के लिये. .... और अजीब बात यह कि घर का माहौल इस तरह एक बार फिर बिगड़ जाने से दुखी नहीं थी वह इस बार. उसे अच्छा लग रहा था, भीतर तक अच्छा. पिता घेरते उसे, घेर-घूर कर पूछते कौन है वह... कैसा है... क्या करता है...??? वह बोलती भी तो क्या. पिता उसकी चुप्पी को उसकी जिद समझने लगे थे, पर स्वभाववश उन्होंने धैर्य नहीं छोड़ा था.
सबकुछ बिल्कुल पहले जैसा हो चला था. कुहुकता... कसकता... सुलगता... और तिल-तिल जलता, सिवाय उसके और बाबूजी के रिश्ते के.
अविनाश से पूछा था उसने एक दिन ऐसे में ही - मुझ से शादी करोगे? वह जानती थी अविनाश उसके लिये कमजोर है. वे और अविनाश साथ-साथ प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते थे. चौंक उठा था वह अचानक हुये हमले की तरह इस अप्रत्याशित सवाल से. विनीता उसे अच्छी लगती थी, बहुत अच्छी. वह उसके साथ एक खूबसूरत ज़िंदगी बिता सके यह उसका सपना था, पर यह भी सच है कि इस बावत विनीता से उसने कभी कुछ भी नहीं कहा था. यह सपना पूरा हो इसके लिये पहले पढ़ाई जरूरी थी फिर नौकरी और फिर शादी.
विनीता ने चिढ़ कर पूछा था - बोलो, बोलते क्यों नहीं... उसने सोचा, अब तक तो वह यह सोचता रहा था सब कुछ कर लिया तो फिर विनीता को कहां ढूंढ़ेगा? ढूंढ़ भी लिया तो क्या हालात सब कुछ कहने के लायक होंगे...? अब जब कि विनीता खुद कह रही थी उससे... उसे लगा सपने तो फिर भी पूरे हो सकते हैं, साथ-साथ और धीरे-धीरे भी. पर विनीता अगर चली गई तो...उन्होंने उसी रोज मंदिर में जा कर शादी कर ली थी. शादी कर लेने के बाद होने वाले विस्फोट को देखने के लिये अपने घर रुकी भी नहीं थी वह.
एक लम्बा वक्त लगा था सब कुछ पूर्ववत होने में... पर शायद सब कुछ पूर्ववत नहीं होता, कभी भी.
बाबूजी रिटायर हो चुके थे. परिवार भरा-पूरा हो चुका था. मां की सत्ता-महत्ता बढ़ी ही थी दिनों दिन. वह बेटों पर राज करती, बहुओं पर राज करती. और उस राज करने के लिये दिन-रात मेहनत में जुटी रहती उस उम्र में भी और इस क्रम में बाबूजी से और और दूर होती जाती. ऊपर का हिस्सा उनका राजमहल था, नीचे का हिस्सा पिता की दीन-हीन कुठरिया सी, उपेक्षित, दयनीय निचाट सा. जहां गीजर नहीं, कूलर नहीं, सुख-सुविधायें नहीं. था तो उनका निपट-निचाट एकांत. वह देखती और देख कर भी कुछ कर नहीं पाती.
बाबूजी ने अपनी ज़िंदगी के खालीपन को दूर करने के लिये कई नये शौक पाल लिये थे... बागवानी, हां बागवानी में वे दिन भर जुटे रहते. दिन-दिन भर. शायद वक्त कट जाता हो इस तरह. वर्ना जब अच्छी खासी नौकरी थी नौकर-चाकर थे घर में, बाबूजी ने बागवानी में कभी रुचि नहीं ली थी.
दूसरे, अब वे डायरी में अपने पसन्द की कविता की पंक्तियां लिखने लगे थे... दिन, महीने और तारीख डाल कर. अब वह कहां थी जिसे बाबूजी कवितायें सुनाते पहले की तरह. खुद को अभिव्यक्त करने का उन्होंने यह नया तरीका ईजाद किया था.
वह हैरत में थी, वह दुखी थी. बाबूजी की पसन्द की कवितायें बदल रही थी -
दूध के दांतों से तूने चभन को तोड़ना चाहा / मूर्ख क्या सपने देखने के लिये कोई रात काफी नहीं थी.
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दुखान्त यह नहीं होता कि लहू-लुहान पैरों से हम जहां खड़े हों / उस राह में आगे भी बस कांटे ही कांटे हों/दुखान्त यह होता है कि हम एक ऐसी जगह आ खड़े हों जो जमीन का आखिरी टुकड़ा हो और जहां से कोई राह आगे नहीं जाती.
यह सब कुछ जिस तरफ संकेत कर रहा था वह उस ओर गौर करने से भी डरती थी. वह फोन जल्दी-जल्दी करती, पता चलता बाबूजी घर में है ही नहीं. और अगर होते तो बच्चे भी उन्हें बुलाने नीचे नहीं जाना चाहते. ऐसे में उसे और ज्यादा घबड़ाहट होती. मां से जब भी बाबूजी का हाल पूछो, रटा रटाया जवाब मिलता - क्या होगा उन्हें? ठीक ही हैं... बाहर का खाते-पीते रहते हैं, उम्र हुई, अब पचेगा यह सब...? वह मन ही मन सोचती घर में है ही कौन उन्हें वक्त पर बना कर देने वाला. बचा खुचा वह भी बेवक्त नीचे भेज दिया जाता है खा लें बला से न खायें...
पिछली बार उसने अपना मोबाईल सेट वहीं छोड़ दिया था - मैं जा कर दूसरा ले लूंगी, इस तरह आप से बात तो कर सकूंगी. वे हंसे थे खुल कर ... तू भी न...
बातें भी होने लगी थी उनसे. वे अक्सर अपनी उदासी ढांपते, लेकिन जितना हीं वह उसे ढांपना चाहते अचके में उतना ही उभर-उभर आता वह; किसी सिकुड़ चुके चादर से बाहर निकल आये अंगों की तरह.
वह मां को फोन करती - थोड़ा तो वक्त बाबूजी के लिये भी रखो, वे बिल्कुल अकेले... वे उधर से धीरता से कहतीं - वक्त ही कहां बचता है, दो रोटियां खाने तक का वक्त तो मुश्किल से निकाल पाती हूं...पांच-पांच बच्चों की जिम्मेदारी, चूल्हे-चौके सबका खयाल, तू तो जानती है तेरी भाभियों से नहीं संभलने वाला है यह सब... वह प्रतिरोध करती, फिर भी मां... तू जो मांग रही है विनी वह बहुत मुश्किल है...
बच्चों को भेज दिया करो उनके पास... मैने रोक रखा है उन्हें? वे नहीं जाते तो मैं क्या करूं... मां तल्ख हो उठतीं... कुछ काम ही दे दो घर के, तुम्हारी जिम्मेदारियां भी बंट जायेंगी... मैं नहीं कह सकती. कहूंगी तो कहेंगे...जिसने सारी उम्र जिम्मेदारियों को मेरे सिर थोपा रहा वह इस उम्र में क्या जिम्मेदारी निभायेगा.
वह लाजवाब की लाजवाब... उसकी इल्तजा, उसके तर्क, उसकी कोशिशें हमेशा की तरह उन पर ऐसे बेअसर जैसे पुरईन के पत्ते से बूंदें ढलक गई हों.
वह हार कर बाबूजी से ही कहती - ऊपर जा कर बैठा कीजिये कभी-कभी. इससे आपको भी अच्छा लगेगा और मन भी हल्का होगा... इससे बहुओं की असुविधा बढ़ जायेगी और... जाता था पहले पर तेरी मां ने ही संकेत में कहा कि बच्चों को परेशानी होती है. बाबूजी बहुत उदास लगे. मैंने बात बढ़ाने की खातिर ही कहा बच्चों को ही नीचे बुला कर खेल लिया कीजिये.... बच्चे तुम जैसे थोड़े ही है, घर भी आये तो ये ट्यूशन, वो होम वर्क... ज्यादा दिल्चस्पी ली तो उनके मां-बाप और... सब यही सोचेंगे उनकी ज़िंदगी भी तबाह कर रहा हूं मैं. ’भी’ शब्द पर जोर दे कर बाबूजी जिस तथ्य को इंगित करना चाह रहे थे , मैं भूली कहां थी वह बात. वे चुप हुये थे कुछ देर फिर संयत हुये थे - अजीब है न विनी पुरूष उम्र होने के साथ-साथ या यूं कहो कि रिटायर होने के बाद परिवार के लिये बेकार हो जाता है. और औरत बढ़ती उम्र के साथ और ज्यादा उपयोगी.
उसने कहा था फोन रखती हूं बाबूजी. उनकी उदासी जैसे उस तक भी तैर आई थी. उसके खयालों में उनका उदास निचुड़ा चेहरा था. उसका मन हो रहा था वह भाग कर उन तक पहुंच जाये, अभी की अभी. पर अभी बच्चों की परीक्षायें थी और उसको अपना मन मारना ही था. मन तो मार लिया था उसने पर अविनाश से जोर दे कर कहा था - बच्चों के एक्जाम खत्म होते ही बाबूजी के पास जाऊंगी और जब तक जी चाहे रहूंगी... और बच्चे?... बच्चे यहीं रहेंगे तुम्हारे पास. अविनाश हंस दिये थे... जैसा आप उचित समझें.
बाबूजी को यह खबर देते वक्त वह चहक रही थी. बाबूजी की आवाज़ भी हल्की थी. वह सोते-सोते सोच रही थी, बाबूजी के साथ कुछ बहुत अच्छे और प्यार भरे दिन बिताने हैं उसे...बिल्कुल छुटपन के जैसे. वह उनका वैसे ही खयाल रखेगी. जिद करेगी. और उनके लिये जरूरत की कुछ चीजें इकम करेगी...और किसी के भी बगैर जीना और खुश रहना सिखायेगी उन्हें. और अब तो मां भी टोका-टोकी नहीं करती करें पहले की तरह. इस खयाल से ही उसका मन हल्का हुआ जा रहा था. यह सोचे बगैर कि बीच में पन्द्रह दिन और थे. पन्द्रह छोटे दिन... पन्द्रह लम्बी रातें.
उन्हीं लम्बी रातों में से एक में हुआ था कुछ... अवसाद के घेरे घेरने लगे होंगे उन्हें. अपनी कोशिशें... अपनी नाकामयाबियां... अपना अकेलापन जकड़ने-पकड़ने लगा होगा उन्हें. वे बीच सड़क बेसुध पाये गये थे. कोई अन्जान देखे तो पियक्कड़ समझ ले. पर वह कोई परिचित था... यह खबर सुनाते वक्त भी मां की आवाज़ कांपी थी या नहीं, वह अपनी जड़ता में महसूस नहीं कर पाई. उसने कुछ भी नहीं कहा था, कुछ भी, प्रतिक्रिया में. फोन रख दिया था बस...
वह सामान बांध रही थी कि अविनाश ने कहा था - अभी जा कर भी क्या कर लोगी... अस्पताल में किसी को रुकने भी कहां देते हैं, वहां की अलग हीं व्यवस्था होती है. घर आ जायें तो जितना जी चाहे साथ रह लेना और देख-भाल भी कर लेना. मैंने मना कब किया है. फिर धीमे से कही थी उन्होंने अपने मन की बात - बच्चे एक्ज़ाम के वक्त तुम्हारे बगैर नहीं रह पायेंगे. मेरे पास तो वक्त...तुम जानती हो दफ़्तर...
अविनाश ने ज़िंदगी में जो कुछ भी चाहा था सब कुछ पाया था, क्रम भले ही थोड़ा उलट-पुलट जाये. वह एक बार आई तो उनकी ही हो गई. पर रोज नई सफलता और रोज नये शिखर... इनके लिये हर दिन एक युद्ध लड़ना था उन्हें और वे लड़ते भी थे. फिर और बातों के लिये समय कब और कितना बचता उनके पास.
उसे तो मानना ही था अन्ततः... बाबूजी के होश में आने के बाद वह उन से रोज बतियाती. हंसाती उन्हें चाहे उसके प्रयास थोथे और बौड़म से ही क्यों न होने लगे. चार दिन बीत जाने थे और बीत गये.
वह उतर कर सीधे बाबूजी के कमरे की तरफ लपकी थी. वे वहां नहीं थे. उसे अजीब लगा था वह आने वाली थी और बाबूजी अपने कमरे में नहीं थे. फिर उसने सोचा था हो सकता है मां और भाई अस्पताल से लौटने के बाद उन्हें ऊपर ही ले गये हों. उसे सोच कर अच्छा लगा. वह ऊपर ही चली गई थी. मां पूर्ववत थी, हमेशा की तरह ढेर सारा बतियाती... जिसमें से आधी बाबूजी की शिकायतें ही थी अभी भी... उनकी जिदें... उनकी लापरवाहियां. कोइ दूसरा सुने तो उसे लगे कि कितने गहरे जुड़े हैं वे एक दूसरे से. मां को बाबूजी का कितना खयाल है. पर सामने वह थी. उसने उकता कर पूछा था- मां , बाबूजी हैं कहां? मां चौंकी थी - और कहां होना है, नीचे ही होंगे, मिले नहीं तुमसे...?
वह फिर नीचे उतर आई थी और एक बार फिर छान मारा था घर का कोना-कोना.
हां एक चीज जरूर बची रह गई थी उसकी दृष्टि से. बाबूजी की पढ़ाई की मेज पर उनकी डायरी खुली रखी हुई थी.
शाम होने पर / पक्षी लौटते हैं / पर वही नहीं जो गये थे / रात होने पर जल उठती है दीप-शिखा / पर वही नहीं जो बुझ चुकी थी.
जो जुड़ा होता है टूटता भी ज्यादा वही है. बाबूजी ने अनथक विश्वास किया था उस पर. पर उसने क्या दिया था बदले में.
उनकी दुर्गति का एक सबब वह भी तो थी... तो क्या उसकी लाख कोशिशों के बावजूद भी बाबूजी अब उससे वह जुड़ाव नहीं पाते थे? क्या उन्हें उसके आने का औचित्य पसन्द नहीं आया था? यह खयाल ही तोड़ने वाला था उसके लिये...
क्या इसीलिये वे नाराज थे कि वो अस्पताल में थे और वह आ भी नहीं सकी थी. वह खुद को एक भरोसा दे रही थी. उसके बाबूजी उसकी मजबूरी समझते हैं. और फोन पर उसके आने की बात से कितना तो खुश थे वे.
वह और परेशान होती कि बाबूजी आ गये थे कहीं से, मैले-कुचैले से. लग रहा था कितने दिनों से नहाये तक न हों. वह लिपट पड़ी थी उनसे. फिर लाड़ से कहा था - क्या हाल बना लिया है आपने... बगीचे से आ रहा हूं, हाल-चाल बिल्कुल दुरुस्त है. अभी नहाकर आता हूं फिर तुमको अपना बगीचा भी दिखलाऊंगा. बहुत सारे पौधे... कहते हुये वे बाथरुम में घुस गये थे.
नहा कर निकले तो बाबूजी सचमुच बिल्कुल ठीक लगे. बीमारी की परछाईं तक नहीं थी चेहरे पर, हां, थोड़े दुबले जरूर हो गये थे.
वह बगीचे को देख कर खुश हुई. पौधे बहुत सारे थे, नये भी. सीजनल, डहेलिया, गुलदाऊदी ,गेन्दे और ढेर सारे सदाबहार पौधे भी. बाग का वह कोना सचमुच खिल उठा था.
आप कितनी मेहनत करते हैं, बीमारी से उठे हैं फिर भी. .. अरे मेहनत क्या करनी है, थोड़ा ध्यान देना है बस... वे बचपन की तरह उसकी ऊंगलियां पकड़ उसे बगीचे के पिछले हिस्से में ले गये थे. .. और इनको तो इतने ध्यान की भी जरूरत नहीं. वह देख कर घबड़ा उठी थी, सैकड़ों पौधे कैक्टस के... न जाने कितनी प्रजातियां. कुछ अजीब सा प्रभाव था उनका. उसे जैसे घबड़ाहट और बेचैनी होने लगी. उसने संभल कर कहा था - एक साथ इतने सारे... यह नया क्या कर दिया आपने? यहां तो कभी आम और अमरुद का खूब फलने वाला पेड़ हुआ करता था. हम तीनों भाई-बहनों ने न जाने कितना वक्त बिताया है यहां पर. हम फल तोड़ कर खाते थे, लड़ते-झगड़ते थे, खेलते थे साथ-साथ. बाबूजी रुक कर बोले थे - तुम्हें अच्छा नहीं लगा...? अमरुद तो कब का सूख गया, पिछले साल की आंधी में वह आम का पेड़ भी गिर गया. वीरान पड़ा था यह तब से... वह चुप हो चली थी.
उसने बाबूजी के कमरे में पहले एक हीटर रखवाया था और फिर स्टोर से ढूंढ़ कर एक पुराना गैस स्टोव. फिर मां के ही किचेन के कुछ पुराने-धुराने बर्तन. वह चाय बनाने लगी थी, बाबूजी के पसन्द की पकौड़ियां और कभी-कभार मूंग की खिचड़ी. वह दिन-दिन भर बाबूजी से बैठ कर बतियाती; धूसर पुरानी यादें धुल-पुंछ कर बैठ जाती उनके संग... वे खेलते शतरंज, ताश और कभी-कभी लूडो भी. उसने बाबूजी को अकेले भी यह सब खेलना सिखाया. उसे अविनाश ने सिखाया था पिंटू के गर्भ मे होने के दिनों में. अविनाश के पास उन दिनों वक्त कहां होता था. उसने बाबूजी से कहा था सीख लीजिये, काम आयेंगे.
वह कहती - देखियेगा, मैं इस बार जब जाऊंगी आपको ऐसा बना कर जाऊंगी कि आपको किसी की कमी नहीं खले, मेरी भी...बाबूजी कहते - देखूंगा... फिर जोड़ते वैसे देख तो रहा हूं... पर कब तक...? जब तक आप उकता कर भगा नहीं देते मुझे.
अब बाबूजी उसके पसन्द की चाय भी बनाने लगे थे अदरख और मसाले वाली. मां देखतीं तो बहुत घूर कर पर कहती कुछ नहीं. पता नहीं उसके कुछ भी नहीं कहने से वे आहत थी वह या राहत की सांस ले रही थी.
उस दिन बाबूजी की बनाई मूंग की पकौड़ियां खा रही थी वह, करारी पकौड़ियां मां और औरों के लिये वह ऊपर भी दे आई थी. वे हंस रहे थे किसी बात पर खूब खिलखिल कि बाबूजी की फोन की घंटी बजी थी.
बाबूजी के चेहरे पर चिंता का भाव आया था, उदासी भी. उन्होंने कहा था - जरूर... आप विनी से बात कर लीजिये.
अविनाश ने कहा था उससे कल ही चली आओ, बन्टू का हाथ टूट गया है... वह लिपट पड़ी थी उनसे, उसने सोचा था मन में ...यह सब अचानक ही होना था और अभी ही... अभी-अभी तो वह आई थी, अभी तो... पर कहा था उसने इतना ही - जाना होगा बाबूजी.
तो इसमें परेशानी की कौन सी बात है. आ जाना फिर... उन्होंने उसके कन्धे थपथपाये थे. वह चाहती थी, एक बार बाबूजी के चेहरे को देखे पर देख न सकी थी. बाबूजी के कहने को ही उसने अपना भरोसा, अपना संबल मान लिया. रात में उसने अपने सामान पैक किये थे. सुबह वह बाबूजी के पास गई थी.
वो कमरे में नहीं थे, बगीचे में भी नहीं. वह चिढ़ी थी... ये बाबूजी भी न...
उसे चिंता होने लगी थी. वह बार-बार बाबूजी को कमरे में तलाश रही थी. उसने दरवाजे के पीछे भी देखा. कहीं बचपन की तरह उसे परेशान करने के लिये कहीं छिप गये हों.
आटो आ गया, मां ने बताया था... वह बाबूजी को फोन लगा रही थी. घंटी घनघना रही थी दूसरी तरफ... वे उठा क्यों नहीं रहे. भाईयों ने सामान आटो में रख दिया था और कहा था वे तो हमेशा से ऐसे ही.... तू जा बंटू को संभाल, हम हैं न...
भाई और मां की ये बातें उसे आश्वस्त नहीं कर पा रही थी. वह सब के मना करने के बावजूद एक बार फिर उनके कमरे तक गई थी, फिर उनकी मेज की तरफ. उसने डायरी का वह पृष्ठ फाड़ कर अपनी हथेलियों में ले लिया था... वह बाबूजी द्वारा दी गई आश्वस्ति और इन पंक्तियों के भरोसे वैसा सब कुछ भी सोचना-समझना नहीं चाह रही थी जो उसके मन को भय के घुमेड़ों की तरह उमेठ रहा था -
तुम चले जाओगे / पर थोड़ा सा यहां भी रह जाओगे / जैसे रह जाती है / बारिश के बाद / हवा में धरती की सोंधी गंध...
कहानी में प्रयुक्त कविताओं के लिये क्रमशः राजेश जोशी, अमृता प्रीतम और कैलाश बाजपेई का आभार.
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1 टिप्पणियाँ
अच्छी कहानी...बधाई
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