किशोर ,
आज की इस रात में जब घर के सब लोग बाहर चौक में नवरात्रि के डांडिया रास में मस्त होकर सब कुछ भूले हुए हैं, मैं घर पर बैठी तुम्हारे पत्र का जवाब लिख रही हूँ. मेरे ना चाहते हुए भी मेरी एकाग्रता को तोड़ते हुए डांडिया के गीत के स्वर कमरे के भीतर सरक आ रहे हैं," हूँ तो कागडिया लखी लखी थाकी कानुड़ा तारा मन मा नथी" . इसके अतिरिक्त राधा और कह भी क्या सकती है कि मैं तो पत्र लिख लिख कर थक गयी लगता है कि कृष्ण तेरे मन में मेरे लिए प्यार ही नहीं है.है न, कितनी सरल और करुण पुकार राधा के मन की .ऐसा लगता है जैसे प्यार का अथाह समुद्र चट्टान से टकरा कर हताश वापस लौट रहा हो. कितना व्यापक है राधा का संतोष जो पत्र लिख लिख कर थकने के बाद भी क्रोध में नहीं बदलता है, बल्कि सिर्फ यही सोच कर रह जाता है कि कृष्ण के मन में मेरे लिए प्यार नहीं रहा. क्यों किशोर, कितनी अजीब बात है, जो अपने बीते कल को स्वीकार ना कर सका , समय ने उसी को दायित्व दिया आने वाले कल को दिशा देने का.शायद प्यार को सहज रूप से स्वीकार ना कर पाने की कमी के कारण ही कृष्ण अंततः विनाश के सूत्रधार बने.
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संजीव निगम |
खैर जाने दो, इस तरह से सोच विचार करते रहने के कारण तुम तो पहले से ही मुझे फिलॉसफर कहते रहे हो. लेकिन सच बताऊँ तो यदि मैं इस प्रकार से न सोच पाती तो शायद आज तुम्हारे पत्र का जवाब ना दे पाती. इस पत्र के द्वारा तुमने दूसरी दफा मेरे सामने विवाह का प्रस्ताव रखा है. तुम्हे याद तो होगा कि पहली बार तुमने ये प्रस्ताव कब रखा था?
तुम कुछ ही मुलाकातों में मुझ पर इतने आकर्षित हो गए थे कि अपनी दो साल पुरानी मंगेतर से सम्बन्ध तोड़ कर मुझसे विवाह करना चाहते थे. मैं मानती हूँ कि मैं भी तुम्हारे प्रति आकर्षित थी. सच तो यह है कि मैं पहली ही मुलाक़ात में तुम्हारे सोचने के ढंग से प्रभावित हो गयी थी. ओह, कितने प्रगतिशील विचार ओढ़ रखे थे तुमने? तुमने वही कहा जो मैं किसी पुरुष के मुंह से सुनना चाहती थी. नारी स्वतंत्रता और स्त्री पुरुष समानता की बातें किताबों में पढ़ते पढ़ते मैं तंग आ चुकी थी. अपने आस पास के जीवन में इन बातों को एक छलावे की तरह ही पाया था. किन्तु तुमने इतनी गंभीरता से इन बातों को मेरे सामने रखा था कि अचानक ही मुझे ये सब कितनी व्यवहारिक लगने लगी थीं.
मैं ये सोच कर बहुत खुश थी कि आखिरकार मैंने एक ऐसे पुरुष का साथ पा लिया जिसका साथ मेरे व्यक्तित्व को सार्थकता प्रदान करेगा और मैं तुम्हारी ओर खिंचती चली गयी थी. पर उस दिन होटल के फैमिली केबिन में साथ बैठ कर चाय पीते हुए तुमने अचानक मुझसे कहा ," दिव्या, मैं अपनी मंगेतर को छोड़ कर तुमसे विवाह करना चाहता हूँ." चाय के प्याले में घूमता चम्मच ज़ोर से ठक करके बजा और रुक गया. मेरे आस पास सब कुछ जैसे थम गया था. मुझे याद है कि कितना अटकते हुए मैंने तुमसे पूछा था, " तुम्हारी.......मं..गे ..तर......? तो ....तुम्हारी सगाई हो चुकी है ! " उसके बाद तुमने भावुकता से भीगे स्वरों में ना जाने क्या क्या कहा था ! पर मैं उन्हें नहीं सुन रही थी बल्कि अपने अन्दर की दृढ़ता को आवाज़ दे रही थी.
तुम्हे तो ज़रूर याद होगा कि मैंने तुमसे क्या कहा था? मैंने कहा था," तुमने अपनी मंगेतर की बात को छिपाया इसका मुझे दुःख नहीं है.दुःख है तो इस बात का कि तुम भी औरों जैसे ही निकले. उतने ही आत्म केन्द्रित, उतने ही पाशविक. सिर्फ अपना ही सोचा." और मैं वहां से उठ कर चली आई थी. उसके बाद हमारे संबंधों ने वापिस मित्रता का जामा पहन लिया था. मैं तुमसे नफरत करके स्वयं को कमज़ोर नहीं करना चाहती थी. किन्तु तुम नही जानते , तुम्हारी इस एक बात ने मेरे मन में बने तुम्हारे व्यक्तित्व के चित्र में कितनी गहरी लकीर खींच दी थी. आज मुझे याद आ रहा है कि एक बार मेरे गोरे रंग की प्रशंसा करते हुए तुमने कहा था, " गोरे रंग को लेकर मेरे मन में हमेशा एक ग्रंथि रही है . गोरा रंग मेरी कमजोरी है जोकि ईश्वर ने मुझे नहीं दिया है."
अब मुझे लगता है कि मेरे शरीर का गोरा रंग ही तुम्हारे आकर्षण का केंद्र रहा है और मैं समझती रही थी कि तुमने मेरे भीतर झाँक कर मेरी गहराईयों को पहचाना है.किन्तु फिर भी सच मानना किशोर , यदि तुम आरम्भ से ही अपनी वास्तविकता के साथ मुझसे मिलते तो शायद आज मुझे इतनी तकलीफ ना होती. कम से कम तुम्हारे आकर्षण का केंद्र तो स्पष्ट रहता. उस पर किसी लफ्फाजी का आवरण तो न पड़ा होता.
धीरे धीरे रात गहराने लगी है और साथ साथ डांडिया के स्वर भी तीव्र होते जा रहे हैं . ये सधे हुए स्वर बता रहे हैं कि नाचने वाले कितनी तन्मयता से नाच रहे हैं. लेकिन मेरे विचार भटकने लगते हैं, बहुत मुश्किल से रोक पाती हूँ. तुमसे कुछ कहना चाहती थी पर समझ नहीं आत़ा , कैसे शुरू करूँ?
कुछ दिन पहले मेरे पास पड़ोस में रहने वाली हेमा आई थी . उसका पति उसे रोज़ बुरी तरह से मारता है. जानना चाहते हो क्यों? क्योंकि वह अपनी जिंदगी की इस जोंक यानि अपने पति के भोगने के लिए कोई अन्य स्त्री नहीं जुटा पाती है. सिहर गए न यह बात सुन कर. लेकिन यह भी एक सच है , कड़वा,तीखा,धारदार सच. तुम्हारी जानकारी के लिए बता दूं कि इन दोनों ने प्रेम विवाह किया था और यह स्त्री मेरे पास इसलिए आई थी कि वह किसी तरह से मुझे इस कार्य के लिए तैयार कर सके. शायद जीवन के यह ढंके छिपे पक्ष तुम्हे चौंका रहे हैं . अचम्भा मत करो. जीवन हमारे सोचने, समझने और पढने से बहुत जटिल और नग्न है. मैं तो खैर उसकी बात क्या मानती , लेकिन यह सोच कर भी घिन्न आती है कि कितनी दयनीय परिणिति हो सकती है प्रेम विवाह की भी. कभी कभी मुझे लगता है कि प्रेम को लड़कियों की पढाई का अनिवार्य विषय बना देना चाहिए ताकि वे प्रेम और आकर्षण में अंतर समझ सकें.
इस घटना के थोड़े दिन बाद एक और युवक से मेरा परिचय हुआ . वह भी मुझसे शादी करने को आतुर था.अपनी नज़रों में वह भी बड़ा सभ्य और सुशिक्षित था. उसके विचार सुने. अरे बाबा, वे तो तुमसे भी कहीं ज्यादा क्रांतिकारी थे.वह कहता था कि वह अपनी पत्नी को पूर्णतया स्वतंत्र रखेगा. उसके किसी कार्य में कोई दखल नहीं देगा, चाहे पत्नि कहीं आये जाए, किसी से हँसे बोले या कुछ भी करे. मैंने उससे पूछा ," और आप अपनी पत्नि से क्या चाहेंगे?" तो उत्तर में उसने जो कुछ कहा उसका अर्थ यह निकलता था कि वह पत्नि को स्वतंत्रता देने की आड़ में अपनी आवारगी को मान्यता दिलाना चाहता था.
अब ये तुम्हारा पत्र आया है जिसमे तुमने लिखा है ", दिव्या मैंने अपनी मंगेतर से सम्बन्ध पूरी तरह से तोड़ लिए हैं.अब मैं फिर से तुम्हारे सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रखता हूँ. तुम स्वीकार करोगी न ?"
कितने अफ़सोस की बात है कि तीन साल तक किसी की भावनाओं से खिलवाड़ करने के बाद उसकी जगह मुझे नए खिलौने की तरह से इस्तेमाल करना चाहते हो. छिः !
याद है, मैंने तुम्हारी मंगेतर के विषय में जाने के बाद हुई हमारी किसी मुलाक़ात में तुमसे कहा था " किशोर हम मित्र ही ठीक हैं. तुमने जिसको साथ निभाने का वचन दिया है, उसी के रहो. नारी स्वतन्त्रता -समानता-सम्मान के जो विचार तुम्हारे मुंह से निकले थे, एक बार उन पर मजबूती से खड़े हो जाओ तो मेरी नज़रों में तुम बहुत ऊंचे उठ जाओगे. मैं सचमुच अपनी आँखों से एक ऐसे आदमी को देखना चाहती हूँ जो नारी अस्मिता और स्वतन्त्रता की अमूर्त बातों को जीवन प्रदान कर सके." उस समय तुम मान गए थे लेकिन तुम्हारा वह मानना अपने आपको क्षणिक लज्जा से बचाना भर ही था. नारी के समक्ष अपनी हार को छुपाने वाला पुरुषों का घायल अहंभाव .
बुरा ना मानना किशोर, कभी कभी मेरे सामने हेमा के पति, उस नवयुवक और तुम्हारा चेहरा गड्ड मड्ड होने लगता है. ऐसा लगता है कि रंगमंच पर तीन अभिनेता एक ही पात्र को अपने अपने ढंग से प्रस्तुत कर रहे हों और मैं गुस्से से जलने लगती हूँ.मन करता है कि तुम लोगों के चेहरों से मुखौटे नोंच कर तुम्हारी असलियत को बेपर्दा कर दूं. पत्र बहुत लम्बा हो गया है. अपने मन की बात ना मिल पाने के कारण तुम्हे वैसे भी झल्लाहट हो रही होगी. बाहर गीत के बोल बदल गए हैं लेकिन मेरे मन में वही कड़ी गूँज रही है ," कानुड़ा तारा मन मा नथी...". याद रखना किशोर, महाकवियों ने राधा की करुणा का चाहे कितना बखान किया हो लेकिन मेरी दृष्टि में दो ही चीज़ें सत्य हैं. एक राधा का कृष्ण के प्रति प्यार व दूसरी राधा की दृढ़ता जिसके कारण कृष्ण के जाने के बाद भी राधा कृष्ण की अनुगामिनी नहीं बनी बल्कि अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए वहीँ रही उसी जगह, प्यार व दृढ़ता दोनों में राधा ने कृष्ण को मात दी . शायद इसीलिए राधा का नाम पहले आत़ा है, कृष्ण का बाद में.
मेरे इस पत्र से तुम अपना निष्कर्ष निकालने को स्वतंत्र हो. मुझे जो कहना था कह दिया. मैं बार बार न पत्र लिख सकती हूँ और न लिखूंगी. तुम्हारा भी कोई उत्तर न ही आये तो अच्छा है. यही हमारे संबंधों की इति है और एक नयी मजबूती की शुरुआत . बस.
दिव्या.
4 टिप्पणियाँ
bahut achcha uttam
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट, मानव मन को संवेदित करती कहानी....
जवाब देंहटाएंअच्छी कहानी....बधाई
जवाब देंहटाएंpoore jivan ka nichod sanjeev ji ne apne is lekh ke madhyam se kar diya hai.. mujhe yah lekh aur lekhan takneek bahut sunder laga..
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.