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लीला पाण्डेय की कुछ प्रकाशित-अप्रकाशित कवितायेँ



प्रस्तोता की बात: - 

रक्षाबंधन के पश्चात जीवन के अस्सी वसंत से अधिक देख चुकी मेरे दादाजी की छोटी बहन से मिलने पिछले दिनों गयी तो ऐसा लगा की मैं उन झुर्रियों भरी आँखों के पीछे छुप-सी गयी दृष्टि  का अवलोकन कभी कर ही नहीं सकी थी  या शायद कोई नहीं करता , इसीलिए उन आँखों ने जीवन में देखे अधिकांश पलों को बड़े प्रेम से कागजों में दर्ज कर रखा था। कुछ एक तो प्रकाशित भी थे। किसी समय उच्च पदस्थ प्रशासनिक अफसर की इस संभ्रांत-सुशिक्षित गृहलक्ष्मी ने जीवन के सूखे पत्तों को भी रंगोली सरीखा सजा कर काव्य को जीवन ऊर्जा
बनाया और आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा दी विषम परिस्थितियों में भी जीवन के पैराशूट में गरम हवा भरते रहने की. राष्ट्रकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की ये पंग्तियाँ मुझे बरबस याद आ गयीं--

"चित्त जहाँ भयशुन्य, ज्ञान जहाँ मुक्त है, शीश जहाँ उच्च है .. भारत को हे परमपिता! उसी स्वर्ग में जाग्रत करो! जाग्रत करो!"

श्रीमती लीला पाण्डेय की कुछ प्रकाशित-अप्रकाशित कवितायेँ जो जल्दबाजी में लिख लायी हूँ, आपसे बाँट रही हूँ.( सुना है ख़ुशी बांटने से बढती है और दुःख कम हो जाता है!) - --देवोपमा [devopama@gmail.com]

भले नहीं लगते

भले नहीं लगते अब
फूलों के रंग,
तितली के पंख
सावन के घन
उड़ते पतंग

भले नहीं लगते अब
सुमधुर संगीत
रंगों में बंधे हुए
साहित्यिक गीत

भला नहीं लगता
कुछ पिछला अपनापन
लगता है सबकुछ
बेमानी पिछड़ापन

ज्ञान ध्यान की बातें
मर्यादा- परम्परा
सब बहार फेंकी है
पाली है अपम्परा

बड़े भले लगते हैं
कानफाडू बोल
टीलों में बजते हैं
धम्धामाते  ढ़ोल
बड़ी भली लगती हैं
अर्ध-वस्त्र पहने सी
नाचती कुल-बालाएं--आँगन आँगन !

(अप्रकाशित)

आदमी

आदमी खो गया है-
न जाने कहाँ?
मंदिरों में भजन
मस्जिदों में अजान
सर झुका हाथ जोड़े
खड़ा है निशान
भीड़  ही भीड़ है
आदमी है कहाँ?
आदमी खो गया है
न जाने कहाँ?

(पूर्व प्रकाशित "जनधर्म" १२-१८दि. ९४ )

घर

हर कमरे में घूम रही है
पगलाई-सी याद
जाने क्या क्या ढूंढ रही है
पगलाई-सी याद
यहीं कहीं रख दिए कभी थे
सौगातों के ढेर
कोई आकार चुरा ले गया
मोती-मानिक ढेर
अब खाली मकान बैठा है
लेकर मन में आस
कब आयेंगे घर के वासी
कब होगी उजियास

(पूर्व प्रकाशित "जनधर्म" १२-१८दि. ९४ )

शाम

बड़ी उदास शाम है
की दीप भी जले नहीं
घटा घनी घिरी रहीं
की बूँद भी झरी नहीं
अथाह वेदना भरी
की अश्रु भी बहे नहीं
कोई बिछड़ गया अभी
की शब्द भी ढले नहीं

(पूर्व प्रकाशित "जनधर्म" १२-१८दि. ९४ )

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