किससे अब तू छिपता है?
किससे अब तू छिपता है?
मंसूर भी तुझ पर आया है,
सूली पर उसे चढ़ाया है।
क्या साईं से नहीं डरता है?
कभी शेख़ रूप में आता है,
कभी निर्जन बैठा रोता है,
तेरा अन्त किसी ने न पाया है।
बुल्ले से अच्छी अँगीठी है,
जिस पर रोटी भी पकती है,
करी सलाह फ़कीरों ने मिल जब
बाँटे टुकड़े छोटे-छोटे तब।
मूल पंजाबी पाठ
हुण किस थे आप छपाई दा,
मंसूर भी तैथे आया है,
तैं सूली पकड़ चढ़ाया है,
तैं ख़ोफ़ ना कितो साईं दा।
कहूँ शेख़ मशाइक़ होना हैं
कहूँ उदियानी बैठा रोना हैं,
तेरा अन्त न कहू पाई दा।
बुल्ले नालों चुल्हा चंगा,
जिस ते नाम पकाई दा,
रल फ़क़िराँ मस्लत कीती,
भोरा-भोरा पाई दा।
3 टिप्पणियाँ
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 21 दिसम्बर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत ही शानदार।
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.