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आर.पी.शर्मा "महरि‍ष" की दो गज़लें



जश्न हम क्यों न मनाएंगे मनाने की तरह
वो हमें दि‍ल से बुलाएं तो बुलाने की तरह

तुम ठहरने को जो कहते तो ठहर जाते हम
हम तो जाने को उठे ही थे न जाने की तरह

कोई आंचल भी तो हो उनको सुखाने के लि‍ए
अश्क तब कोई बहाए भी बहाने की तरह

टीस कहती है वहीं उठके तड़पती सी काज़ल
दि‍ल को जब कोई दुखाता है दुखाने की तरह

गर्मजोशी की तपि‍श भी तो कुछ उसमें होती
हाथ "महरि‍ष " वो मि‍लाते जो मि‍लाने की तरह
=====

नाकरदा गुनाहों की मि‍ली यूं भी सज़़ा है
साक़ी नज़रंदाज़ हमें कर के चला है

क्या होती है ये आग भी, क्या जाने समंदर
कब ति‍श्नालबी का उसे एहसास हुआ है

उस श्ख़्स के बदले हुए अंदाज़ तो देखो
जो टूट के मि‍लता था, तकल्लुफ़़ से मि‍ला है

महफ़ि‍ल में कभी जो मेरी शि‍रकत से ख़फ़ा था
महफ़ि‍ल में वो अब मेरे न आने से ख़फ़ा है

क्यों उसपे जफ़ाएं भी न तूफ़ान उठाएं
जि‍स राह पे नि‍कला हूं मैं, वो राहे-वफ़ा है

पीते थे न "महरि‍ष",तो सभी कहते थे ज़ाहि‍द
अब जाम उठाया है तो हंगामा बपा है

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