तुमने कहा..
-------
तुमने कहा
कि तुम
सूरज के पास रहते हुए भी
नहीं भूले
झोपड़ी का अंधेरा,
तुमने कहा
कि तुम
आसमान से बातें करते हुए भी
दुलराते रहे
धरती की गोद से झांकते
नन्हें बिरवे को/ और
तुमने ही कहा
कि तुम
हवा के साथ बहते हुए भी
करते रहे
अकेले दिये के
थरथराते अस्तित्व की रक्षा।
वैसे, मैं भी हो सकता हूं
किसी नदी का खामोश पुल,
रह सकता हूं
भीड़ के साथ होते हुए भी
नितांत अकेला
लेकिन-
अगर तुम कहो तो
ले सकता हूं
अपने आखिरी बयान
तुम्हारे लिए
और तब / क्या तुम
पहले की तरह
हाथों-हाथ लोगे मुझे?
चाहत
----
मैं, नहीं चाहता कि
सूरज मेरी मुट्ठी में रहे
और / न ही यह संभव है कि
धरती-
मेरे कहने पर ही
अपनी धुरी पे घूमे।
मैं, कब कहता हूं कि
बच्चे/ मुझे देखते ही खिल उठें
हां, उनकी पनीली आंखें
मुछे कतई नहीं भातीं,
भाता है-
वह सब कुछ/ जो रचा है
उस अदृश्य ने/ सुन्दर
नहीं भाता-
सूरज का निस्तेज रहना
किसान के खाली हाथ
और/ चांद का
खाली पेट जागना।
( रचनाएं काव्य संग्रह 'पीढ़ी का दर्द' से)
....
-सुबोध श्रीवास्तव,
'माडर्न विला', 10/518,
खलासी लाइन्स,कानपुर
(उप्र)-208001.
4 टिप्पणियाँ
SO GOOD
जवाब देंहटाएंdhanyawad savan kumar ji..
हटाएंबहुत अच्छा हैा
जवाब देंहटाएंआभार शिवशंकर जी..
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.