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मजाज़ लखनवी की कुछ नज़्में


आवारा 

जगमगाती जागती, सड़कों पे आवारा फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

झिलमिलाते कुमकुमों की, राह में ज़ंजीर सी
रात के हाथों में, दिन की मोहिनी तस्वीर सी
मेरे सीने पर मगर, चलती हुई शमशीर सी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

ये रुपहली छाँव, ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल
आह लेकिन कौन समझे, कौन जाने जी का हाल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

फिर वो टूटा एक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने किसकी गोद में, आई ये मोती की लड़ी
हूक सी सीने में उठी, चोट सी दिल पर पड़ी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

रात हँस – हँस कर ये कहती है, कि मयखाने में चल
फिर किसी शहनाज़-ए-लालारुख के, काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर, ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

हर तरफ़ बिखरी हुई, रंगीनियाँ रानाइयाँ
हर क़दम पर इशरतें, लेती हुई अंगड़ाइयां
बढ़ रही हैं गोद फैलाये हुये रुस्वाइयाँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

रास्ते में रुक के दम लूँ, ये मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊँ, मेरी फ़ितरत नहीं
और कोई हमनवा मिल जाये, ये क़िस्मत नहीं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

मुंतज़िर है एक, तूफ़ान-ए-बला मेरे लिये
अब भी जाने कितने, दरवाज़े है वहां मेरे लिये
पर मुसीबत है मेरा, अहद-ए-वफ़ा मेरे लिए
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

जी में आता है कि अब, अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ
उनको पा सकता हूँ मैं ये, आसरा भी छोड़ दूँ
हाँ मुनासिब है ये, ज़ंजीर-ए-हवा भी तोड़ दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

एक महल की आड़ से, निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा, जैसे बनिये की किताब
जैसे मुफलिस की जवानी, जैसे बेवा का शबाब
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

दिल में एक शोला भड़क उठा है, आख़िर क्या करूँ
मेरा पैमाना छलक उठा है, आख़िर क्या करूँ
ज़ख्म सीने का महक उठा है, आख़िर क्या करूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

मुफ़लिसी और ये मज़ाहिर, हैं नज़र के सामने
सैकड़ों चंगेज़-ओ-नादिर, हैं नज़र के सामने
सैकड़ों सुल्तान-ओ-ज़बर, हैं नज़र के सामने
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

ले के एक चंगेज़ के, हाथों से खंज़र तोड़ दूँ
ताज पर उसके दमकता, है जो पत्थर तोड़ दूँ
कोई तोड़े या न तोड़े, मैं ही बढ़कर तोड़ दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

बढ़ के इस इंदर-सभा का, साज़-ओ-सामाँ फूँक दूँ
इस का गुलशन फूँक दूँ, उस का शबिस्ताँ फूँक दूँ
तख्त-ए-सुल्ताँ क्या, मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

जी में आता है, ये मुर्दा चाँद-तारे नोंच लूँ
इस किनारे नोंच लूँ, और उस किनारे नोंच लूँ
एक दो का ज़िक्र क्या, सारे के सारे नोंच लूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

कुछ तुझ को है ख़बर

कुछ तुझ को है ख़बर हम क्या क्या ऐ शोरिश-ए-दौराँ भूल गए
वह ज़ुल्फ़-ए-परीशाँ भूल गए, वह दीद-ए-गिरयाँ भूल गए

ऐ शौक़-ए-नज़ारा क्या कहिए नज़रों में कोई सूरत ही नहीं
ऐ ज़ौक़-ए-तसव्वुर क्या कीजिए हम सूरत-ए-जानाँ भूल गए

अब गुल से नज़र मिलती ही नहीं अब दिल की कली खिलती ही नहीं
ऐ फ़स्ले बहाराँ रुख़्सत हो, हम लुत्फ़-ए-बहाराँ भूल गए

सब का तो मदावा कर डाला अपना ही मदावा कर न सके
सब के तो गिरेबाँ सी डाले, अपना ही गिरेबाँ भूल गए

यह अपनी वफ़ा का आलम है, अब उनकी जफ़ा को क्या कहिए
एक नश्तर-ए-ज़हरआगीं रख कर नज़दीक रग-ए-जाँ भूल गए

नूरा

वो एक नर्स थी चारागर जिसको कहिये
मदावाये दर्दे जिगर जिसको कहिये

जवानी से तिफ़्ली गले मिल रही थी
हवा चल रही थी कली खिल रही थी
वोह पुर रौब तेवर, वो शादाब चेहरा
मताए जवानी पे फ़ितरत का पहरा
मेरी हुक्मरानी है अहले ज़मीं पर
यह तहरीर था साफ़ उसकी जबीं पर
सफ़ेद और शफ़्फ़ाफ़ कपड़े पहन कर
मेरे पास आती थी इक हूर बन कर

कभी उसकी शोख़ी में संजीदगी थी
कभी उसकी संजीदगी में भी शोख़ी
घड़ी चुप घड़ी करने लगती थी बातें
सिरहाने मेरे काट देती थी रातें

सिरहाने मेरे एक दिन सर झुकाए
वोह बैठी थी तकिए पे कोहनी टिकाए
ख़यालाते पैहम में खोई हुई -सी
न जागी हुई-सी, न सोई हुई-सी
झपकती हुई बार-बार उसकी पलकें
जबीं पर शिकन बेक़रार उसकी पलकें

मुझे लेटे-लेटे शरारत की सूझी
जो सूझी भी तो किस शरारत की सूझी
ज़रा बढ़ के कुछ और गरदन झुका ली
लबे लाले अफ़्शाँ से इक शय चुरा ली
वो शय जिसको अब क्या कहूँ कया समझिये
बहिश्ते जवानी का तोहफ़ा समझिये
मैं समझा था शायद बिगड़ जाएगी वो
हवाओं से लड़ती है लड़ जाएगी वो
मैं देखूँगा उसके बिफरने का आलम
जवानी का ग़ुस्सा बिखरने का आलम

इधर दिल में इक शोरे-महशर बपा था
मगर उस तरफ़ रंग ही दूसरा था
हँसी और हँसी इस तरह खिलखिलाकर
कि शमअए हया रह गई झिलमिलाकर
नहीं जानती है मेरा नाम तक वो
मगर भेज देती है पैग़ाम तक वो

ये पैग़ाम आते ही रहते हैं अक्सर
कि किस रोज़ आओगे बीमार हो कर .

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