यद्यपि स्वयं कवि ने ‘प्यासा निर्झर’ की कविताओं को ‘पद्य’ शब्द से संबोधित किया है ; तथापि उन्हें ‘पद्य’ शब्द के शास्त्रीय अर्थ तक सीमित कर देना कवि के प्रति न्याय नहीं। वस्तुतः ‘प्यासा निर्झर’ की रचनाएँ मात्र पद्य नहीं; वे सही रूप में कविताएँ हैं — कविता के प्रमुख तत्त्वों से युक्त। भूमिका में कवि ने यह भी लिखा है कि ये कविताएँ शैली-प्रधान की अपेक्षा, कथ्य-प्रधान अधिक हैं। यह वक्तव्य इस अर्थ में अवश्य सही है कि ‘प्यासा निर्झर’ में अत्याधुनिक काव्य-शैली के दर्शन नहीं होते। निःसंदेह, अपने कथ्य के प्रति कवि विशेष रूप से जागरूक है। सोद्देश्य साहित्य-लेखकों में श्री॰ नरेन्द्र शर्मा को स्थान देना; एक प्रकार से उनके महत्त्व और दायित्त्व-निर्वाह को ही स्वीकार करना है। ‘प्यासा निर्झर’ की अनेक कविताएँ साहित्य और कला के सैद्धान्तिक पक्ष से सम्पृक्त हैं। कवि ने नैतिक मूल्यों को सर्वोपरि स्थान दिया है। साहित्य और कला के प्रति कवि का दृष्टिकोण जनवादी है। यह तथ्य निम्नलिखित कुछ उद्धरणों से स्पष्ट है —
1. कविता शब्द-विलास न हो ! (‘कामना’, पृ॰ 10)
2 यह मेरा कवि-कर्म सदा निष्काम कर्म का धर्म रहे। (वही)
3. वेश्यालय नहीं कला, देवालय पावन है,
सामंती सभा नहीं, जनता का आँगन है ! (‘चलचित्र विद्या’, पृ॰133)
4. शब्द न हो आभरण;
शब्द बने आचरण ! (‘शब्द-फूल’, पृ॰ 234)
5. कोटि-कोटि जन बहुत दिनों तक रह लिये निरक्षर
कला उसी की जिसके माथे पर श्रम - सीकर,
+ + +
मेरी कविता अन्न-प्राण-मन की हो वाणी-
प्लावित करे धरा को वह गंगा कल्याणी !
(‘मेरी कविता’, पृ॰13)
श्री॰ नरेन्द्र शर्मा की पूर्व-प्रकाशित अन्य कई कविता-पुस्तकों में भी उनका यह दृष्टिकोण मुखरित हुआ है। यह उनके व्यक्तित्व तथा काव्य का प्रगतिवादी-जनवादी पक्ष है। ‘प्यासा निर्झर’ का भी जनवादी स्वर दृष्टव्य है। अर्थ-व्यवस्था तथा समाज-संघटन के प्रति कवि के विचार आधुनिक चेतना के अनुरूप हैं। मानव की वर्तमान प्रगति से अनभिज्ञ तथा कठोर श्रम एवं संघर्ष से तटस्थ व्यक्तियों को संबोधित करता एवं वैज्ञानिक उपलब्धियों का स्वागत करता हुआ कवि बदलते युग का संदेश देता है —
1. खलिहान खेत में खड़ा हुआ वह नया कृषक,
बिजली का खंभा गाड़ रहा जो बिना हिचक !
अभिमंत्रित मंत्र-शक्ति से अब तू भी न झिझक,
विद्युत के अश्वारोही का कर अभिनन्दन !
युग बदला, देता तुझे चुनौती युग-जीवन !
(‘युग बदला’, पृ॰11)
2. यदि अमृत जग में कहीं, तो है न वह सुर-तरु चरण में;
स्वेद में है, रक्त में है, अश्रु में, जीवन-मरण में।
(‘जियो’, पृ॰ 92)
कवि की दृष्टि अनेक रचनाओं में बहिर्मुखी है। वह समाज के वैषम्य तथा देश में व्याप्त अनेक विकृतियों का यथातथ्य चित्रण करता है। पूँजीवादी समाज-व्यवस्था में प्रचलित निर्मम शोषण को तथा श्रमजीवी जनता के प्रति अपने अनुराग को कवि ने इन सीधे-सरल शब्दों में अभिव्यक्त किया है —
जो न हिलाते हाथ, उन्हीं के
हाथ लगी जीवन-पूँजी !
टक्कर खाते हैं मेहनतकश,
शक्कर खाते हैं मूजी ! (‘पत्थर की दीवारों से’, पृ॰ 72)
दुर्दान्त साम्राज्यवादी शक्ति से कड़े और लम्बे संधर्ष के बाद भारत स्वतंत्र हुआ। देश में जनता की सरकार बनी। पर, सामान्य जनता का जीवन-स्तर संतोषप्रद नहीं बन सका। अनेक सद्-प्रत्यनों के बावज़ूद। पंचवर्षीय योजनाओं से भी तात्कालिक परिणाम नहीं निकल सके; यद्यपि भविष्य में उनकी उपादेयता असंदिग्ध है। देश को सर्वोच्च नेतृत्व भी कर्मठ, ईमानदार, सुयोग्य और परखे हुए जन-नायकों द्वारा प्राप्त हुआ। पर, स्थिति में विशेष सुधार न हो सका। इसका कारण देश में व्याप्त उन अनेक दुर्गुणों से है; जिन्हें यहाँ के धनिक तथा अभिजातवर्गीय धारण किये हुए हैं। ये वर्ग देश की आर्थिक प्रगति तथा राजतंत्र को नियंत्रित किये हुए हैं।
कवि नरेन्द्र शर्मा का ध्यान इन तमाम सामयिक बातों की ओर भी गया है। ऐसी रचनाओं में ओज और व्यंग्य का सम्मिश्रण है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं —
1. वीरों के रण-शिविर, विवर हैं
चूहे-चुहियों के स्वदेश में।
भ्रष्ट भृत्य, तस्कर व्यापारी
दिखते हैं अति शुभ्र वेश में।
(‘स्वप्न तर्क’, पृ॰ 98)
2 शासक-शासित, पोषित-शेषित का लगा हुआ अब भी ताँता !
भारत-भू, भारत-भू-जन से क्या अँगरेज़ीपन का नाता ?
(‘भारत जन के प्रति’ पृ. 153)
3. काया स्वतंत्र हो गई; किन्तु मन है परतंत्र अभी अपना !
+ + +
निर्धन जन ही बहुसंख्यक हैं; बहुसंख्यक का जनतंत्र राज;
इसलिए सिखाती राजनीति, निर्धन निर्धन ही रहें आज !
नेता कहता है, लालच में धन-दौलत के न कभी फँसना !
(‘नेता अभिनेता’, पृ. 155)
और जब भारत पर विस्तारवादी चीन का आक्रमण होता है; तब कवि देश के स्वाभिमान की रक्षा करता हुआ, भारतीय जनता की अजेय शक्ति में अपना विश्वास इन शब्दों में व्यक्त करता है —
माता का यह लाल शत्रु का काल बनेगा;
सीमाओं की ढाल, अचल दिग्पाल बनेगा;
बदला लेगा रिपु से अपमानित भारत का,
शुभ्र हिमालय फिर भारत का भाल बनेगा !
(‘माता और शिशु’ , पृ.232)
कवि का स्वप्न देश की सीमाओं तक ही नहीं; सम्पूर्ण वसुधा को आवेष्टित किये हुए है —
वसुधा एक कुटुम्ब बनेगी,
सब सदस्य होंगे सहयोगी !
तब न रहेगी यह दुभाँत, हो
योगी श्रमिक, वधिक हो भोगी !
(‘श्रमिक’ पृ., 151)
सुखी और सम्पन्न संसार का निर्माण तब ही हो सकता है; जब मानव-धर्म की प्रतिष्ठा हो। स्वार्थ-भावना, कटुता और घृणा से मुक्त जब मानव विकास करेगा; तब ही उच्चतर भाव-भूमि के द्वार उन्मुक्त होंगे —
धर्म बिना अर्थ और काम नहीं मोक्ष-हेतु !
धर्म बिना मिट्टी में मिल जाते स्वर्ग-सेतु !
धर्म बिना किरणों को ग्रस लेता अंधकार !
धर्म बिना फूलों को डस लेती मधु बयार !
(‘चलचित्र-विधा’, पृ. 136)
‘प्यासा निर्झर’ की अनेक कविताएँ भक्तिपरक, आध्यात्मिक तथा दार्शनिक हैं। ऐसी रचनाएँ संस्कृतनिष्ठ भाषा में प्रस्तुत की गयी हैं। अभिव्यक्ति भी जटिल व दुरूह है। इनमें किसी मौलिक दर्शन का भी प्रतिपादन नहीं किया गया है। सम्भवतः इन्हीं रचनाओं को देखकर कवि ने ‘प्यासा निर्झर’ की कविताओं को ‘पद्य’ संज्ञा प्रदान की है। नरेन्द्र शर्मा के काव्य का यद्यपि यह अभिनव पक्ष है; तथापि प्रभावशून्य एवं अवांछित। छंद-विधान और शब्द-योजना प्रशंसनीय होते हुए भी ये पद्य-रचनाएँ रसहीन व बोझिल हैं। जीवन और जगत की अस्थिरता, जन्म-मरण के रहस्य आदि पर जो लिखा गया है; वह मात्र पिष्टपेषण है। यथा —
1. मिट्टी ने गोद खिला-खिला तुझे बड़ा किया,
दिया दिशा-ज्ञान और पाँव पर खड़ा किया,
शाश्वत मत नीड़ बना, मायावर प्राणों के !
(‘हंसावर प्राणों के’- पृ. 21)
2. ज्योति की ऊर्जा-तरंगों में प्रवाहित प्राण;
ज्योति में ही एक दिन होंगे समाहित प्राण।
(‘जो जहाँ से चला’, पृ. 24)
‘प्यासा निर्झर’ शीर्षक कविता में जहाँ कवि ने अपने को ‘प्रभु की द्रवित दया का दृग-जल-विन्दु अमर’ कहा है; वहाँ अपने को ‘नव करुणायन महाकाव्य का पहला अक्षर’ भी माना है। यहाँ अलौकिकता के एकान्तिक पक्ष के साथ लौकिक पक्ष भी विद्यमान है; जो कल्याण-भावना से प्रेरित है। ‘प्यासा निर्झर’ शीर्षक कविता में सिद्धान्त-प्रतिपादन अथवा दर्शन-विवेचन नहीं है। इसलिए वह सरस और हृदय-स्पर्शी है।
‘प्यासा निर्झर’ में ‘प्रवासी के गीत’ के नरेन्द्र शर्मा भी कहीं-कहीं दृष्टिगोचर हो जाते हैं। वैसे प्रस्तुत संग्रह में दाम्पत्य प्रेम की कविताएँ अत्यल्प हैं; फिर भी वे अविस्मरणीय हैं। वैयक्तिक जीवन की मार्मिक अनुभूतियाँ इन कविताओं में घनीभूत हो उठी हैं —
1. जूड़ा बाँध रही हो, या तुम,
साध रही हो वशीकरण !
+ +
लाज-व्याज से, अलिंगन में
बँधने में कितना सुख है।
(’दाम्पत्य गाथा’, पृ. 190)
2. दीप जलाने से अँधियारा कई गुना बढ़ जाता है,
अंधकार के भय से मैंने दीपक नहीं जलाया !
(‘विरह-मिलन’, पृ. 198)
‘विवाद’, ‘मुक्ति-पर्व’, ‘मारीच’, ’निशा-अँधियारी’ और ’दुष्ट कुमार’ वर्णनात्मक कविताएँ हैं; जो श्री॰ रामनरेश त्रिपाठी की याद दिलाती हैं। ये इतिवृत्तात्मक, अभिधामूलक, पद्य-बद्ध कथाएँ चूँकि सिद्ध कवि के हाथों लिखी गयी हैं; एतदर्थ उनमें स्पष्टता के साथ रोचकता भी है। ‘विनोबा’,‘नये चीन के नाम', ‘दिवंगत निराला के प्रति’ आदि जैसी कविताएँ अपने शीर्षकों से ही अपनी विषय-सामग्री का बोध कराती हैं। ‘उपेक्षित भँवरा’ शीर्षक कविता में नूतन कल्पना दृष्टव्य है। ‘एक वर्ष के बाद’, ‘कौन वह किशोरी’, ‘दुनिया सोई रे’, आदि कविताओं में लोक-संस्पर्श है; जिससे उनमें विशिष्ट चमत्कार व ताज़गी आ गयी है। लौटा, फगुनौटा, कछौटा, औटा, कजरौटा अँखौटा, मुखौटा, रँगरौटा आदि तुकें श्री॰ मैथिलीशरण गुप्त की प्रणाली पर न होकर अपने वैशिष्टय की परिचायक हैं। वे रसाभास उत्पन्न नहीं करतीं; वरन् कविता के सौन्दर्य को बढ़ाती हैं। भाषा की दृष्टि से नरेन्द्र शर्मा इधर अतिवादी हो गये हैं। कहीं तो ‘भुजंगिनी’ शीर्षक कविता में समास-बहुला संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग किया गया है तो कहीं कुछ कविताओं में चैबारे, पैछर, चित्तरसारी, घड़ा, गोड़, थोरी, समरथ, अरथ, परमारथ आदि लोकभाषा के शब्द हैं। कहीं-कहीं सुभाषित भी देखने में आते हैं —
अलिखित ही रही सदा
जीवन की सत्य कथा,
जीवन की लिखित कथा
सत्य नहीं, क्षेपक है !
(‘सत्य कथा’ पृ. 35)
‘प्यासा निर्झर’ कवि श्री॰ नरेन्द्र शर्मा की काव्य-साधना का महत्त्वपूर्ण चरण है।
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