नदी संवाद
नदी चलकर आयी थी
प्यासे के पास
प्यासे ने पूछा, कौन हो तुम
वह बोली, मैं नदी हूँ
प्यासा बोला, मैं प्यासा हूँ
आश्चर्य, ऐसा भी कहीं होता है
कि नदी खुद चलकर आए
प्यासे के पास.
नदी बोली, मैं हूँ नदी
क्यों नहीं तुम्हें होता विश्वास
अच्छा चलो,
मान लो, मैं एक धारा हूँ
टूटी, चंचल
नदी की छोटी बहन
है तो बहता नीर
प्यासे के लिए
क्या नदी, क्या धारा
प्यासा बोला
यह नहीं हो सकता
नदी अपने तटबंध तोड़ती है
सिर्फ बाढ़ आने पर
नदी अपना रास्ता बदलती है
सिर्फ बाढ़ आने पर
यहाँ न तो बारिश है ना बाढ़
कोई भले ही प्यास से
तड़प-तड़प कर मर जाए
नदी कभी नहीं आती
उसके पास
तुम न तो नदी हो
ना ही नदी की धारा.
अब नदी से भी नहीं रहा गया
वह तैश में आकर बोली
प्यास से व्याकुल लोग
पानी देखते हैं
पानी का रंग नहीं
अरे, वे तो उसकी गंध
की भी करते नहीं परवाह
तुम अजीब प्यासे हो
संसार का पहला प्यासा
जो बजाय अपनी प्यास बुझाने के
नदी के मुहाने पर मरेगा प्यास से
अब तो मुझे अपने नदी होने पर
कोफ़्त होने लगी है
भला यह कौन सा दर्शन है.
प्यासा बोला,
प्यासा रहकर जीने का
या प्यासा रहकर मरने का
कोई दर्शन हो या न हो
लेकिन मेरा सत्य
कभी नहीं मानेगा कि
नदी चलकर आती है
कभी किसी प्यासे के पास ।
तुम्हारा सत्य
सच है या नहीं है
विश्वास है या नहीं है
ईश्वर है या नहीँ है
मानते हो या नहीं
मानते हो
तो जानते हो ?
या नहीं
जानते हो तो कितना?
कितना काफी है जानना
मानते हो...
मानते हो कितना
पूरा विश्वास है?
- हाँ है !
क्या है विश्वास?
यही कि वह है
वह है जो सब कुछ कर रहा है
जो कुछ भी हो रहा है
उसकी मर्जी से हो रहा है
बिना उसकी मर्जी कुछ नहीं हो सकता
वह कण-कण में बसा है
बस.......
तो यह है विश्वास?
बस.......
तो जो नहीं हो रहा है
क्या वो भी उसकी मर्जी है
और जो असत्य है, गलत है,
क्रूरता है, कष्ट है, शोक है
दु:ख है
यह भी जायज है?
निर्बल पर अत्याचार,
मूक का बलात्कार,
निरीह का मर्दन,
गरीब का शोषण,
सन्मार्गी का दमन,
मेहनतकश का दलन
सब सही है?
हाँ सब सही है!!!
तो जान लो
कि गलत है तुम्हारा विश्वास
गलत है तुम्हारा ईश्वर
और जान लो
जिस पर टिका है तुम्हारा विश्वास
वह है – असत्य
इसलिए नहीं है
तुम्हारा कोई सत्य ।
4 जुलाई 2012
अमर हो गयी यह तारीख
मानवता के इतिहास में
क्योंकि
मिला था इस दिन वह कण
मात्र एक कण..
जो काफी है
तोड़ने के लिए तुम्हारा
पहाड़ सा विश्वास
विश्वास जो कभी नहीं टूटता
नहीं टूटेगा क्योंकि
यह है ही नहीं विश्वास
ये तो है तुम्हारा डर
डर देता है अज्ञान
क्योंकि
इसी अज्ञानता पर विश्वास है तुम्हारा
जो तुम्हें करने नहीं देता तर्क
ज्ञान यानि विज्ञान
वैज्ञानिक सोच
तुम्हारा डर
रोकता है तुम्हें
स्वीकार करने से
हर तर्क को, हर आविष्कार को.
4 जुलाई 2012 को
उसे मिल एक नाम
जिसे तुम कहते थे
सृष्टि का रचयिता
गॉड
वह मिल गया
वह तो मात्र एक कण है
गॉड पार्टिकल
उसे एक नाम दिया है
‘हिग्स बोसन’ .
सैलाब
सुबह होती है, शाम होती है,
जिंदगी हर रोज़ यूँ ही तमाम होती है।
समंदर में बसा है ये शहर
या कि शहर में बसा है समंदर,
यदि यह सच नहीं है तब
भला कैसे आते हैं हर रोज़
सैलाबों के हुजूम
सुबह और शाम।
इस शहर के बाशिंदे हो तुम
तो, बच नहीं सकते
इन सैलाबों और थपेड़ों से
ये थपेड़े ही तो हैं
जो अहसास कराते रहते हैं
हरदम कि
अकेले नहीं हो तुम
इस समंदर के शहर में.
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4 टिप्पणियाँ
बंधुवर....आपका यह नया रूप सहज ही ध्यान खींचता है। कविताओं की गहराई एवं संजीदगी को सलाम करता हूं। उमेश यादव, लखनऊ
जवाब देंहटाएंbahut achhi kavita. jivan darshan aur ashtha ke upar ek naya nazriya. pathak ko bicharon ki udan udati hei. ( Dina Nath, Film Maker)
जवाब देंहटाएंHi Rajesh, Your pomes are thought provoking.Your rational way of thinking reflects in your poems.Very good.Keep it up.
जवाब देंहटाएं- HIREN -
तीनों कविताएं उम्मीद जगाती हैं। कविता हमेशा से एक ऐसी जगह रही है जहां आकर अभिव्यक्तियां आकार लेती हैं। कविता में ही अभिव्यक्तियां सबसे तनावपूर्ण क्षणों से गुजरती हैं। लेकिन निकलती हैं तो जीवन और अपने समय का भाष्य बनकर। मुक्तिबोध ने शायद इसीलिए कविता को "सभ्यता-समीक्षा" कहा था।
जवाब देंहटाएंराजेश की पैठ बहुत गहरी है। उसके पास इस सभ्यता समीक्षा के लिए जो जरूरी साजो-समान होना चाहिए वह पर्याप्त मात्रा में है। इसे आप "तुम्हारा सत्य" कविता में देख सकते हैं। राजेश से और बेहतर करने की उम्मीद है क्योंकि उनके पास अनुभव एवं अन्वेषण की एक ताजा यानी बिल्कुल नई जमीन है। उसका लिखा खरा ही होगा। विस्तृत समीक्षा अलग से लिखूंगा। पहले कविता में बपतिस्मा पर मेरी बधाई स्वीकार करो मित्र।
सुशील कृष्ण गोरे
लखनऊ
08005488449
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