खूबसूरत पहाड़ों के बीच बसे उस छोटे से गांव में पली-बढ़ी शन्नो का बचपन वैसे ही बीत रहा था जैसे ऐसे गांव की अन्य सभी लड़कियों का बीतता था. सुबह उठना, मुंह हाथ धोकर ढोर-डंगरों को चारा डालना, गोबर इकट्ठा करके उपले बनाना, घर की झाडू-बुहारी करना और फिर छाछ और मक्खन के साथ रोटियों का कलेवा करना. फिर, गांव की दूसरी औरतों और लड़कियों के साथ कुंए से पानी भर कर लाना. इस पर भी मां की झिड़कियां खाना कि यह लड़की कैसी निकल रही है, घर के कामों में तो इसका मन ही नहीं लगता, बस गांव की लड़कियों के साथ खिला लो इसे.
उसे खेलना सचमुच बहुत अच्छा लगता था. हमउम्र लड़कियों के साथ वह पहाड़ों से उतरने वाले झरनों के बारहमासी पानी से बने उस तालाब के किनारे जब खेलने निकल जाती तो उसका घर लौटने को मन ही नहीं करता था. चौदह-पंद्रह साल की लड़कियों की वह उम्र हंसने-खेलने और सपने बुनने की ही तो होती है. फिर, गांव में तो यह उम्र शादी-ब्याह की उम्र से भी कुछ आगे निकल जाने की मानी जाती है. बारह से चौदह वर्ष की उम्र में अगर लड़कियों के हाथ पीले नहीं हो जाते तो मां-बाप के चेहरों पर चिंता की लकीरें उतर आती हैं.
आजकल घर में हर समय शन्नों की शादी की बात चलती रहती है. इतनी सुंदर और सुशील लड़की के लिए उनके गांव में ही नहीं, आसपास के गांवों में भी कोई योग्य लड़का नहीं मिल पा रहा था. उसके मां-बापू से कोई ना कोई पूछ ही लेता कि इतनी बड़ी हो जाने पर भी उनकी लड़की कुंवारी क्यों बैठी है? जब भी ऐसा होता उनके मुंह लटक जाते. लड़की का सुंदर और सुशील होना ही तो सबकुछ नहीं होता, दहेज भी काफी मायने रखता था. फिर, शन्नों के बापू के तो अरमान भी कुछ ऊंचे थे. शन्नों के बापू की इच्छा थी कि उसके लिए कोई ऐसा वर मिले जो सरकारी नौकरी से लगा हो. गांव में छोटा-मोटा रोजगार करने वाले, खेतों में मजदूरी करने वाले या फिर यूं ही आवारा फिरने वाले लड़कों में से किसी के हाथ में शन्नो का हाथ देना उन्हें गवारा नहीं था.
शन्नों के भी अपने सपने थे. उसे पता था कि उसकी शादी देर-सबेर हो ही जानी थी. उससे भी छोटी उम्र की लड़कियों की शादी हो चुकी थी और उसके लिए लड़का तलाशने का काम जोर-शोर से चल रहा था. शादी की कल्पना मात्र से वह सपनों में खो जाती. उसके सपनों की ऊंचाइयां उसे वहां तक ले जातीं जहां तक वह जा सकती थी. अकसर उस तालाब के किनारे बैठ कर वह सोचती, काश उसका दूल्हा शहर से उसे ब्याहने आए और अपने साथ उसे उस शहर में ले जाए जिसके बारे में उसने सुन तो बहुत रखा था पर देखा नहीं था. शहर की पक्की सड़कें, पक्के घर, बिजली से जगमगाते घर, नलों से आता पानी और सिनेमाघर उसके लिए परी लोक की कथाओं से कम नहीं थे.सिनेमाघर का ध्यान आते ही उसे गांव में अपने कंधे पर बायस्कोप उठाए घूमते खैरू का स्मरण हो आता. उस जादुई डिब्बे के छेद में से जब अपने दोनों हाथों की ओट लगा कर बच्चे झांकते तो उन्हें मन को मोह लेने वाली तस्वीरें नजर आतीं. कहते हैं शहर में ऐसी तस्वीरों को सिनेमाघरों में चलते-फिरते देखा जा सकता है. चलती-फिरती तस्वीरों के ख्याल के साथ ही उसके भीतर कुछ गुदगुदा उठता.
पूरे गांव में किसी के घर में रेडियो नहीं था. होता भी कहां से, उसके लिए बिजली चाहिए. हां, गांव के स्कूल में शहर से आकर पढ़ाने वाले मास्टर जी के पास एक ट्रांजिस्टर था. अपना मन लगाने के लिए वे सुबह और शाम विविध भारती के गाने सुनते रहते. कितने मधुर होते थे वो. शन्नो ही नहीं गांव के बहुत से लड़के-लड़कियां किसी न किसी बहाने मास्टर जी के घर के आसपास मंडराते रहते और उन सुरीले गानों का बेदाम आनंद उठाते. फिर वही गाने उनकी जुबान पर चढ़ जाते और वे उन्हें गुनगुना कर अपने मन को खुशियों से भर लेते.
शन्नो को तो वो गाने कंठस्थ हो गए थे. वह जब भी अकेली होती उन्हें दोहराती और एक अजीब रोमांच से भर उठती. उसे लगता हर समय ट्रांजिस्टर बजता रहे और वे मदहोश करने वाली स्वरलहरियां उसके कानों में गूंजती रहें. पर, यह तो संभव ही नहीं था. सारा दिन मास्टर जी स्कूल में पढ़ाते तो उनका ट्रांजिस्टर बंद रहता. छुट्टियों के दिन जब वे शहर चले जाते तो ट्रांजिस्टर बिलकुल ही बंद रहता. उन दिनों शन्नों को ऐसा लगता जैसे उससे किसी ने कुछ छीन लिया हो और जीवन नीरस हो गया हो. यहीं से उसके सपनों की उड़ान में ट्रांजिस्टर आ समाया था. वह सोचती, काश उसका खुद का एक ट्रांजिस्टर होता जिसे वह जब तक चाहे बजा सकती. उसे पता था, उसके मां-बापू की इतनी हैसियत नहीं थी कि वे ट्रांजिस्टर खरीद सकें. हां, जब उसकी शादी हो जाएगी तो वह अपने दूल्हे से कह कर एक ट्रांजिस्टर जरूर खरीदेगी. कई बार उसे सपने आते कि उसकी शादी हो गई है और एक अनजाना चेहरा उसे ट्रांजिस्टर दे रहा है. वह सपने में ही खुशी से पागल हो उठती और जैसे ही गाने बजाने के लिए ट्रांजिस्टर का कान उमेठती, उसकी नींद खुल जाती.
उस दिन शन्नो के घर में खुशी का माहौल था. पास ही के शहर में रहने वाला एक लड़का शन्नो को देखने आ रहा था. शन्नो ने जब यह सुना तो खुशी के साथ-साथ एक अनजाने भय ने भी उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया. क्या शहर में रहने वाला लड़का उसे पसंद करेगा? क्या वह सचमुच शादी के बाद शहर चली जाएगी और उसका यह छोटा सा प्यारा गांव, घर और परिवार सबकुछ छूट जाएगा. वह शीशे के सामने जाकर खड़ी हो गई. टूटे शीशे में उसे अपना चेहरा सुंदर लगा. उसने सोचा वह शादी के बाद शहर जाने के ही तो सपने लेती रही है, अब जब सपने सच होने के कगार पर हैं तो उसे खुश होना चाहिए, बस, खुश.
घर के कच्चे फर्श को सुबह ही गोबर से लीप दिया गया था. दालान में पड़े उस पुराने और टूटे तख्त पर घर की सबसे अच्छी चादर बिछा दी गई थी. लड़के के मां-बाप नहीं थे. वह अपने एक दोस्त के साथ आ रहा था. मेहमानों के स्वागत के लिए गांव के एकमात्र हलवाई से मिठाई खरीद ली गई थी. मां ने सुबह से ही शन्नो को हिदायतें देना शुरू कर दिया था. उसे बार-बार समझाया था कि शहर से लोग आ रहे थे, इसलिए वह अपना खिलंदड़ापन छोड़ कर थोड़ा तमीज से पेश आए और उसकी मौसी ने उसे जो नया सलवार-कुर्ता लाकर दिया था, वही पहने.
शाम को सही समय पर शिवचरन और उसका दोस्त बाबूलाल उनके घर आ पहुंचे थे. कुछ देर इधर-उधर की रस्मी बातें होती रहीं. फिर शन्नो को मिठाई की तश्तरी लेकर बाहर आने के लिए बापू ने आवाज लगाई. शन्नो का खूबसूरत चेहरा लज्जा के आभूषण से और भी दमक रहा था. शिवचरन ने जब उसे देखा तो देखता ही रह गया. शन्नो ने जब मिठाई की तश्तरी उसके सामने की तो उसने बर्फी का एक टुकड़ा उठाते हुए बहुत पास से उसके चेहरे पर नजर डाली और फिर घबराहट में पूरी बर्फी एकसाथ अपने मुंह में भर ली. शन्नो ने भी अपने होने वाले दूल्हे को नजर बचा कर देखा, सांवला-सलोना और चेहरे पर भोलापन लिये शिवचरन उसे अपने सपनों का राजकुमार तो नहीं लगा पर वह उसे बुरा भी नहीं लगा.
शिवचरन के साथ आए उसके दोस्त बाबूलाल ने थोड़ी ही देर में उन्हें यह सूचित कर दिया कि उन्हें शन्नो पसंद है. यह सुनते ही पूरे घर में खुशी की लहर दौड़ गई. रात की बस से दोनों दोस्त वापस शहर लौट गए. शन्नो के बापू की खुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं था. वे जैसा दामाद चाहते थे, उन्हें वैसा ही जो मिल रहा था. शन्नो से सिर्फ सात साल बड़ा शिवचरन शहर में रहता था और सरकारी नौकरी से लगा था. वे गांव में हर किसी को बड़े उत्साह और गर्व से बता रहे थे कि उनका होने वाला दामाद सरकारी नौकर है.
एक महीने के अंदर-अंदर शन्नो की शादी हो गई. उसके गरीब मां-बापू को इतनी जल्दी शादी करने में कोई परेशानी नहीं आई क्योंकि शिवचरन ने किसी भी रूप में दहेज लेने से साफ इनकार कर दिया था. गांव का हर शख्स शन्नो के भाग्य से रश्क कर रहा था. आजकल के जमाने में ऐसा कहीं होता है कि पढ़ा-लिखा, दिखने में ठीक-ठाक और सरकारी नौकरी से लगा लड़का बिना दहेज गांव की लड़की को ब्याह कर ले जाए.
विदा होते समय शन्नो बहुत रोई थी. शहर जाने वाली बस में बैठते ही वह फफक उठी थी. उसके पास ही बैठे शिवचरन ने उसे दिलासा देते हुए कहा था- "शन्नो , मुझे मालूम है, अपने गांव और परिवार को छोड़ते हुए तुझे काफी दु:ख हो रहा होगा. पर, अब तू अपने घर जा रही है. वह घर हम दोनों का है. हम दोनों मिल कर अपना संसार बसाएंगे. मैं यह तो नहीं कहता कि दुनियां के सारे सुख लाकर तेरी झोली में डाल दूंगा,पर यह कोशिश जरूर करूंगा कि तू अपने घर में खुश रह सके."
शन्नो के आंसू गायब हो गये थे. शिवचरन को वह हैरत से देख रही थी. कितनी बड़ी-बड़ी बातें करता है. उसने मन ही मन तय किया कि वह भी कभी शिवचरन को शिकायत का कोई मौका नहीं देगी. इसी बीच शिवचरन ने उससे पूछा था - "तुझे क्या अच्छा लगता है?" उसके मुंह से तुरंत निकला था-"फिल्म के गाने.शहर में अपने घर में ट्रांजिस्टर तो होगा न?" शिवचरन ने कोई उत्तर नहीं दिया था. उसके कहे बिना ही शन्नो सब समझ गई थी. उसे लगा था, उसके सपनों की सोनचिरैया का एक पंख टूट कर गिर गया था.
कितना बड़ा शहर था, उसके गांव जैसे पचासों गांव समा जाएं उसमें, और फिर भी जगह बच रहे. पर, शन्नो का अपना यह घर उसके गांव के घर से भी छोटा था. बस, एक कमरा और उसके एक कोने में ही रसोई के लिए थोड़ी ऊंची सी जगह बनी हुई थी जिसमें एक स्टोव के साथ खाना बनाने और खाने के गिनती के बर्तन रखे हुए थे. नहाने-धोने के लिए कमरे से ही सटी थी एक इतनी छोटी कोठरी जिसमें दो लोग साथ खड़े हो जाएं तो फिर तिल रखने के लिए भी जगह न बच रहे.
पहली मंजिल पर बने उस कमरे में शन्नो के साथ-साथ उसके सपने भी घुट कर रह गए थे. शिवचरन सुबह ही अपने काम पर निकल जाता और फिर शाम तक ही वापस लौटता. पूरे दिन शन्नो घर में अकेली ही रहती और शाम होने का इंतजार करती रहती. पर, दिन था कि जैसे ढलना ही भूल जाता था. वह सोचती, काश उसके पास ट्रांजिस्टर होता तो गाने सुनते-सुनते ही वक्त का पता नहीं चलता.
शिवचरन बहुत ही सीधा-सादा और सरल व्यक्ति था. उसे किसी भी प्रकार का कोई व्यसन नहीं था, यहां तक कि बीड़ी, पान और तंबाकू की भी उसे लत नहीं थी. उसकी दिनचर्या ऑफिस से घर और घर से ऑफिस तक ही सीमित थी. उसका एकमात्र और सबसे अच्छा दोस्त बाबूलाल पास के ही एक शहर में नौकरी करता था. शिवचरन के मां-बाप नहीं थे. रिश्तेदार के नाम पर सिर्फ उसके मामा और उनका परिवार ही था जो किसी दूसरे शहर में रहते थे.
जब शिवचरन ने पहली बार अपनी पगार लाकर शन्नो के हाथ में रखी थी तो वह खुशी के मारे फूली नहीं समाई थी. उसके मन में पहला विचार यह आया था कि वह उन पैसों में से बचत करेगी और फिर जल्दी से जल्दी एक ट्रांजिस्टर खरीदेगी. पर, जैसे-जैसे महीना खत्म होता गया , पैसे कपूर की तरह उड़ते गए. महीने का अखिरी हफ्ता तो निकलना मुश्किल होता गया. शन्नो को वास्तविकता समझते देर नहीं लगी थी. शिवचरन एक सरकारी दफ्तर में चपरासी का काम करता था. कट कटा कर उसके हाथ में जो पैसे आते थे, उनमें सूखी रोटी ही खाई जा सकती थी. उन दिनों अच्छे-अच्छे घरों में भी रेडियो-ट्रांजिस्टर नहीं होते थे और उन्हें विलासिता की वस्तु माना जाता था .
शन्नों के उस घर में या यूं कहें कि उस कमरे में एक खिड़की थी जो गली में खुलती थी. उस गली में रोजमर्रा के काम में आने वाली चीजों की तीन-चार दुकानें थीं जो खिड़की खोलते ही नजर आती थीं. शन्नो अपना मन बहलाने के लिए दिन भर में कई बार उस खिड़की पर जा खड़ी होती. कुछ दिन से वह देख रही थी कि एक बंद पड़ी दुकान की मरम्मत की जा रही थी और उसे नया रूप दिया जा रहा था. कुछ ही दिनों में दुकान सजधज कर तैयार हो गई और चालू भी हो गई. पान की वह दुकान क्या खुली, शन्नो की तो अचानक दुनिया ही बदल गई. पान वाले ने अपनी दुकान में एक रेडियो भी रखा था जो हर समय बजता ही रहता था. सुमधुर गानों की तैरती आवाज जब शन्नो तक पहुंचने लगी तो वह खुशी से झूम उठी.
उस दिन जब शिवचरन घर आया तो शन्नो ने उसे बहुत उत्साह से यह सब बताया. ख़िड़की को पूरा खोल कर उसने रेडियो से आती गानों की आवाज को अपने घर में आने की इजाजत दे दी और वह शिवचरन को भी गाने सुनने के लिए प्रेरित करने लगी.
खाना-पीना हो चुकने के बाद शन्नो खिड़की के पास जाकर खड़ी हो गई ताकि वह गानों की आवाज अच्छी तरह सुन सके. वह गानों का आनंद उन्हें साथ-साथ गुनगुनाते हुए ले रही थी. तभी उसने अपने कंधे पर शिवचरन के हाथ का स्पर्श महसूस किया. वह पीछे मुड़ी तो शिवचरन ने उसके दोनों कंधे पकड़ कर उसका मुंह अपने सामने कर लिया और उसकी आंखों में झांकता हुआ बोला- शन्नो, इतने पसंद हैं, तुझे गाने? मैंने सोच लिया है कि मैं तेरे लिए एक ट्रांजिस्टर लेकर जरूर आउंगा. तेरी यह इच्छा पूरी करने के लिए मैं बराबर सोचता रहा हूं. आज मेरी सोच पक्के निर्णय में बदल गई है. सोचता हूं किस्तों पर भी तो हम ट्रांजिस्टर खरीद सकते हैं. ऑफिस में मेरे साथ काम करने वाले एक साथी ने हाल ही में किस्तों पर ट्रांजिस्टर लिया है. हर महीने बीस रुपये की किस्त जाती है. घर का काम थोड़ा और कस के चला लेंगे, क्यों?शन्नो मंत्रमुग्ध सी यह सुनती रही. बच्चों की सी खुशी उसके चेहरे पर झलक आई थी. उसने पलकें झपका कर "हां" कहते हुए शिवचरन के सिर को सहला दिया था. शिवचरन ने निहाल होते हुए कहा था, वह कल ही दुकानदार से बात करेगा और तीन-चार दिन में ट्रांजिस्टर उसके हाथों में होगा.
शन्नों को समझ में नहीं आ रहा था कि ये तीन-चार दिन कैसे बीतेंगे. सच तो यह था कि उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. यह सोच-सोच कर वह रोमांचित हो रही थी कि उसका, सिर्फ उसका एक ट्रांजिस्टर होगा और वह जब चाहेगी, जब तक चाहेगी गाने सुन सकेगी.
हर दिन शाम को लौटने वाले शिवचरन ने जब भरी दोपहरी में दरवाजे की कुंडी खटखटाई तो शन्नो ने कुंडी खोलने से पहले ही समझ लिया कि बाहर शिवचरन ही है. इस समय वह आया है, मतलब वह ट्रांजिस्टर ले आया है. उसके पैरों में पंख लग गए और उसने तुरंत दरवाजा खोल दिया. सामने शिवचरन ही खड़ा था. शन्नो ने बेसब्री से उसकी ओर देखा, पर उसके हाथ में कुछ भी नहीं था. वह निराश होकर कुछ कहने ही जा रही थी कि शिवचरन के चेहरे पर छाई कालिमा और बदहवासी की लकीरों ने उसे जड़ कर दिया. शिवचरन बिना कुछ बोले खाट पर औंधे मुंह गिर पड़ा. घबराई शन्नो ने जब उसके पास बैठ कर उसका मुंह अपनी ओर करके पूछा -"क्या हुआ, तबीयत खराब है क्या?" तो शिवचरन ने उसकी गोद में अपना सिर छुपा लिया और वह जार-जार रोने लगा. शन्नो और घबरा गई. वह उसके सिर पर हाथ फिराते हुए बार-बार पूछ रही थी कि हुआ क्या है, पर वह बिना कोई जवाब दिये रोता रहा. कुछ देर बाद संयत होने पर उसने कहा- "शन्नो, मेरा एक ही दोस्त था, बाबूलाल. वह भी मुझे छोड़ कर चला गया. पता नहीं मैं उसके बिना क्या करूंगा. पिछले हफते वह चल बसा और मुझे अब जाकर मालूम हुआ है. मैं अभी निकल रहा हूं, कल शाम तक वापस आ जाऊंगा."
शिवचरन के जाने के बाद शन्नो को बड़ा अजीब लगा था. बाबूलाल की शक्ल उसकी आंखों में घूम रही थी. वह उसकी पत्नी और आठ साल के बच्चे के बारे में सोचने लगी कि अब उनका क्या होगा. शादी के बाद वह पहली बार घर में अकेली थी. रात भर उसे अच्छी तरह नींद नहीं आई. जब भी झपकी लगती, बुरा सपना उसे उठा कर बैठा देता. अगले दिन की सुबह उसे बहुत अजनबी लगी. किसी भी काम में उसका मन नहीं लगा, यहां तक कि उन गानों में भी नहीं जो उसकी खिड़की से उसकी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे थे.
शाम तक बहुत उदास और थका हारा शिवचरन लौट आया. उसने बताया कि करीब एक महीना पहले बाबूलाल बीमार पड़ा था. जांच करने पर मालूम हुआ कि उसे बहुत गंभीर बीमारी हुई थी. वह दिनोंदिन इतना कमजोर होता गया कि उसका काम पर जाना भी बंद हो गया. लगातार काम पर न आने और खतरनाक बीमारी होने के कारण कारखाने के मालिक ने उसे काम से निकाल दिया. वह यह सब सह नहीं सका और समय से पहले ही चल बसा. उस खुद्दार आदमी ने इतनी बड़ी तकलीफ के बावजूद कभी किसी को कुछ पता नहीं चलने दिया. अब उसके जाने के बाद उसकी बीबी और बच्चे परेशानी में पड़ गए हैं. कमाई का कोई साधन नहीं है. यह तो अच्छा हुआ कि बाबूलाल ने बैंक से लोन लेकर दो कमरों का एक मकान ले लिया था. अन्यथा वे लोग सड़क पर आ गये होते. तय हुआ है कि वे एक कमरा किराये पर उठा देंगे जिससे बैंक की किस्त निकल आएगी और कुछ खाने-पीने का साधन भी हो जाएगा.
दुनियां किसी के भी जाने से रुकती नहीं है. फिर, यह तो बाबू लाल जैसा नाचीज था. कमरा किराए पर चढ़ गया था, पर बैंक की किस्त निकल जाने के बाद सिर्फ सूखी रोटी के लिए ही मुश्किल से कुछ बच रहता.
शिवचरन के मन की दशा और महीने में दो बार बाबू लाल के घर जाने-आने में खर्च होने वाले पैसों को देख कर शन्नो शिवचरन को ट्रांजिस्टर वाली बात याद दिलाने का साहस नहीं जुटा पाई. पर, शिवचरन इसे भूला नहीं था. उस दिन खाना खाने के बाद जब वे बैठे थे तो शिवचरन ने शन्नो का हाथ अपने हाथों में लेकर कहा था- "शन्नो मुझे ट्रांजिस्टर लाने के अपने वादे की याद है, पर क्या करूं मैं? बाबूलाल के जाने के बाद बिलकुल अकेला हो गया हूं. जब भी वहां जाकर उसकी बीबी और बच्चे की हालत देखता हूं तो और परेशान हो जाता हूं. पता है, पैसे न होने के कारण उसका बेटा स्कूल नहीं जा पा रहा है. सिर्फ बीस रुपये के पीछे उसकी पढ़ाई छूट रही है. मैं बहुत पशोपेश में हूं शन्नो. हम अपनी पगार में से जैसे-तैसे करके ट्रांजिस्टर की किस्त के लिए बीस रुपये निकालने को तैयार हो गये थे. मैं तुमसे कह नहीं पा रहा, पर कहे बिना काम भी नहीं चल रहा है. क्या हम ये बीस रुपये प्रभुलाल की पढ़ाई के लिए निकाल सकते हैं? मैं वादा करता हूं कि जैसे ही पगार बढ़ेगी, मैं सबसे पहला काम तेरे लिए ट्रांजिस्टर लाने का ही करूंगा."
शन्नो के मन में कुछ टूट कर गिरा था. उसने कहा था- "कैसी बातें करते हो तुम, ट्रांजिस्टर उस बच्चे की जिंदगी संवारने से ज्यादा जरूरी नहीं है. भगवान ने गाने सुनने का मेरा शौक पूरा करने के लिए ही तो गली में पान की दुकान खुलवाई है. तुम इस महीने से ही उसे पैसे भेजने शुरू कर दो." शिवचरन की आंखों में आभार के आंसू तैर आए थे और फिर हर पगार में से प्रभुलाल की पढ़ाई के लिए बीस रुपये का मनी आर्डर करना उसका पहला काम हो गया था.
महीने पर महीने निकलते गए. धीरे-धीरे शिवचरन का बाबूलाल के घर जाना कम होते-होते बिलकुल बंद ही हो गया. पर मनीआर्डर नियमित रूप से जाता रहा. कभी-कभी प्रभुलाल का पोस्टकार्ड आ जाता जिसमें वह अपनी पढ़ाई और फिर कक्षाएं पास होने की जानकारी देता रहता. कुछ पोस्टकार्ड ऐसे भी होते जिनमें आदरणीय चाचा जी, अत्र कुशलम तत्रास्तु के बाद कुछ विशेष किताबों या लेखन-सामग्री की खरीद के लिए दस-पन्द्रह रुपये और भेजने का अनुरोध किया गया होता. अपनी कई जरूरतों को स्थगित करके भी शिवचरन ऐसी मांगों को पूरा करने की हर संभव कोशिश करता.
शिवचरन और शन्नो के घर में जब जुड़वां बच्चों ने जन्म लिया तो उनकी खुशी देखते ही बनती थी. एक लड़का और एक लड़की जहां उनके घर में ढ़ेर सी खुशियां ले आए थे, वहीं उनके खर्चे भी बहुत बढ़ गए थे. इसी को लेकर खुशियां चिंता में बदलने लगी थीं. धीरे-धीरे बच्चे बड़े होते गए, स्कूल जाने लगे तो उनकी फीस और अन्य जरूरतों के लिए नये खर्चे सिर उठाने लगे. बस, जैसे-तैसे करके दिन निकल ही जाते थे.
उस दिन जब डाकिया प्रभुलाल का पोस्टकार्ड देकर गया तो शन्नो को लगा जरूर उसने और पैसे मंगाए होंगे. कितने ही वर्षों से बीस रुपये वे उसे भेजते ही रहे थे. उसने पोस्टकार्ड उठा क र रख दिया. शाम को शिवचरन आया तो उसने पोस्टकार्ड उसे पकड़ा दिया. शिवचरन ने पोस्टकार्ड पर एक नजर डाली और फिर वह जोर-जोर से उसे पढ़ने लगा-
आदरणीय चाचा जी,
अत्र कुशलम तत्रास्तु. आगे समाचार यह है कि दसवीं कक्षा में प्रथम आने के कारण मुझे आगे पढ़ने के लिए स्कॉलरशिप मिल गई है. यह सब आपके आशीर्वाद से ही संभव हो पाया है. मां और मैं हमेशा अपको याद करते हैं. मां लिखा रही हैं कि अब स्कॉलरशिप मिल गई है, इसलिए आगे मनी- ऑर्डर भेजने की जरूरत नहीं है. वह यह भी लिखा रही हैं कि इतने समय से आपसे मिलना नहीं हुआ है, कभी समय निकाल कर परिवार के साथ आप यहां आएं तो हमें अच्छा लगेगा. चाची जी को प्रणाम कहें और छोटे भाई-बहिन को प्यार.
आपका
प्रभु लाल
पत्र पढ़ कर शिवचरन ने एक ओर रख दिया और बोला-"शन्नो, कितनी अच्छी बात है, प्रभुलाल को स्कॉलरशिप मिल गई है. बड़ा होनहार बच्चा है, देखना बहुत बड़ा आदमी बनेगा." उधर शन्नो कुछ और ही सोच रही थी-कितना बड़ा दिल है शिवचरन का. उसने अपनी छोटी सी पगार में से इतने अर्से तक वह रकम लगातार प्रभुलाल की पढ़ाई के लिए भेजना जारी रखा था जो उनके लिए मामूली नहीं थी. यह वह रकम थी जिससे वह अपनी पत्नी की खुशियों के लिए ट्रांजिस्टर खरीद सकता था.
शायद शिवचरन ने उसके मन के भाव पढ़ लिये थे. उसने मुस्करा कर कहा था- "शन्नो, ये बीस रुपये तो हर महीने निकल ही रहे थे, चलो इतने वर्षों बाद ही सही, तेरे लिए एक अच्छा सा ट्रांजिस्टर ले लेते हैं." शन्नो के चेहरे पर एक फीकी मुस्कान खेल गई थी, उसने कहा था- "पहली बात तो यह है कि अब बीस रुपये की किस्त में ट्रांजिस्टर आएगा नहीं और दूसरी बात यह है कि अब बच्चों के साथ मेरा समय न जाने कहां गुजर जाता है. खिड़की पर खड़े होकर गाने सुनने का भी समय नहीं मिलता. ट्रांजिस्टर का क्या करूंगी में? हां, ये जो पैसे बचेंगे, घर के काम आ जाएंगे." शिवचरन चाह कर भी कुछ नहीं कह पाया था और मुंह हाथ धोने के लिए उठ कर गुसलखाने में चला गया था.
उस दिन जब शिवचरन घर आया तो बहुत खुश दिखाई दे रहा था. उसके हाथ में मिठाई का डिब्बा देख कर जहां बच्चे उसके पीछे दौड़ने लगे, वहीं शन्नो के चेहरे पर उत्सुकता उभर आई. शिवचरन ने डिब्बा खोल कर अपने हाथों से सभी का मुंह मीठा कराया और खुशी में झूमते हुए बताया -"प्रभुलाल बहुत बड़ा अफसर हो गया है और उसकी पोस्टिंग इसी शहर में हुई हे. अपना आदमी भेज कर उसने मुझे कल अपने ऑफिस में मिलने के लिए बुलाया है. मेरे दोस्त का बेटा प्रभुलाल अफसर बन गया है, सच मान शन्नो मेरे लिए इससे बड़ी खुशी और क्या हो सकती है? मैं सचमुच बहुत खुश हूं."
शन्नो ने उसे टोकते हुए कहा था- "उसने तुम्हें मिलने अपने ऑफिस बुलाया है, वह घर नहीं आ सकता था? हम सब भी मिल लेते उससे. शिवचरन ने उसे समझाया था- "भाई वह बड़ा अफसर है. मुझे पता है, इन अफसर लोगों के पास बहुत कम समय होता है. अरे, जरा यह तो सोच कि उसने यहां आते ही अपने चाचा को याद किया है. भूला नहीं है वह मुझे. और जहां तक रही उसके घर आने की बात तो उसे खींच कर ले आऊंगा." शन्नो कुछ नहीं बोली थी.
शिवचरन दूसरे ही दिन प्रभुलाल से मिलने जा पहुंचा था. उसने तो प्रभुलाल को छुटपन में ही देखा था. वह सोच रहा था कि इतना बड़ा साहब बन कर न जाने कैसा लगता होगा वह.
प्रभुलाल ने उसका नाम सुनते ही तुरंत उसे मिलने के लिए बुला लिया था. वह जब उसके केबिन में पहुंचा तो वहां एक और अफसर भी बैठा हुआ था. उसके बावजूद शिवचरन को देखते ही प्रभुलाल उठ कर खड़ा हो गया और उसके पैर छूकर उसे अपने पास ही पड़ी कुर्सी पर बैठा दिया . शिवचरन सकुचा कर तुरंत ही उठ खड़ा हुआ और उसे ढ़ेरों आशिर्वाद दे डाले. कुशल-मंगल का आदान-प्रदान होने के बाद शिवचरन ने उसे अपने घर आने के लिए कहा तो वह बोला- "जरूर चाचाजी. मुझे चाची जी और बच्चों से भी तो मिलना है." शिवचरन निहाल हो गया. काश! आज बाबूलाल भी होता और अपने बेटे को इतनी ऊंची कुर्सी पर बैठे हुए देखता. अनजाने में उसकी आंखें भर आईं. वह प्रभुलाल से बहुत कुछ कहना-सुनना चाहता था, पर उसके पास बैठे उस दूसरे अफसर के कारण उसकी व्यस्तता का अनुमान लगा कर वह शीघ्र ही केबिन से बाहर निकल आया.
बाहर आने के बाद भी वह मंत्रमुग्ध सा उस केबिन को देखता खड़ा रहा जिसमें उसके बाबूलाल का बेटा अफसर के रूप में बैठा था. उसका मन किया कि दरवाजे पर पड़े पर्दे को उठा कर वह एक बार फिर नजर भर कर प्रभुलाल को देख ले. उसके हाथ पर्दा सरकाने के लिए उठे ही थे कि उसने सुना प्रभुलाल से वह दूसरा अफसर पूछ रहा था- "कौन था यह, जिसके पैर छुए जा रहे थे? देखने में तो वह बड़ा दीन-हीन सा लग रहा था." उत्तर सुनने के लिए शिवचरन के कान खड़े हो गए. प्रभुलाल कह रहा था- " मेरे पिताजी के दोस्त हैं, यार. चपरासी हैं, पर समझते हैं कि इन्हीं की बदौलत मैं पढ़-लिख सका हूं. पिताजी के चले जाने के बाद कुछ समय तक इन्होंने हर महीने बीस रुपये मेरी पढ़ाई के लिए भेजे थे. अब तुम्हीं बताओ उससे होता क्या था. मुझे अगर स्लॉलरशिप नहीं मिलती तो क्या मैं बीस रुपल्ली में पढ़ पाता? मैं अपनी मेहनत से आगे बढ़ा हूं. पर, मां है कि उसे लगता है, ये भगवान हैं. मां की खुशी के लिए ही मैंने उन्हें यहां मिलने के लिए बुलाया था और उसकी खुशी के लिए ही मैंने इनके पैर तक छू लिये. यह करके बस मैंने सारा कर्ज उतार दिया है और मेरा मन हल्का हो गया है."
पर, शिवचरन का मन बहुत भारी हो आया था. वह आगे और कुछ नहीं सुन सका और वहां से निकल कर सड़क पर निरुद्देश्य भटकने लगा. अनायास वह उस शोरूम के सामने जा पहुंचा जहां बहुत सारे चमचमाते हुए ट्रांजिस्टर करीने से रखे थे. उसकी आंखों में शन्नो का वर्षों पहले का वह चेहरा घूम गया जिसमें अपना खुद का ट्रांजिस्टर मिलने की संभावना से उपजी हजारों सुनहरी किरणों की चमक भरी हुई थी. उसे पता था अब अधेड़ होती और अभावों के बीच अपने बच्चों और परिवार को सहेजती शन्नो के लिए ट्रांजिस्टर सपना नहीं, एक निरर्थक बक्से में परिवर्तित हो चुका था. वर्षों से उसने गाने नहीं गुनगुनाए थे और उस खिड़की से आती स्वरलहरियां उसके पास से अजनबियों की तरह गुजर जाती थीं.
चमचमाते ट्रांजिस्टर उसे चिढ़ाने लगे और उसका मन भर आया. पता नहीं कब उसने अपनी आंखें बंद कर ली थीं और वह अपने हाथों में मुंह छुपा कर सिसकने लगा था.
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-डॉ. रमाकांत शर्मा; 02-श्रीरामनिवास, टट्टा निवासी हाउसिंग सोसायटी; पेस्तम सागर रोड नं.3, चेम्बूर; मुंबई-400089
2 टिप्पणियाँ
कहानी बेहद संजीदा है,शर्माजी की कहानियों में संवेदनशीलता एक महत्वपूर्ण पहलू होता है। -सर,आपको बधाई .
जवाब देंहटाएंRamakant kee kahniyon ke tatava manavta ke bheetra jhnakane ka avasar pradaan karte hai. main unki kahaniyon ki kayal hoon....
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.