
“केशरलाल ‘उग्र’…कभी तो कुछ तार्किक व तथ्यात्मक लिख लिया करो कि बस हवाबाजी
ही आती है। खुशियाँ मनी थीं तुम्हारे संघ में गोडसे के कृत्य
पर…आज खूब गांधी याद आ रहे हैं…तुम जैसे दोगलों से बहस करने
में अपना टाइम नहीं ख़राब कर सकती..उगलते रहो तुम, जो जी में आए..पर यहाँ नहीं!” अपनी पोस्ट पर यह टिप्पणी पोस्ट करने के बाद सुप्रिया ने उक्त
शख्स की प्रोफाइल खोली और फिर उसका कर्सर सीधे ब्लॉक के विकल्प पर ही आकर रुका।
उक्त शख्स को ब्लॉक करने के बाद उसने चैट बॉक्स पर नज़र डाली। ढाई सौ के आसपास लोग
ऑनलाइन थे, पर शायद उसके काम का कोई नहीं। अब उसका कर्सर लॉगआउट पर था और वो उसपर
क्लिक करने ही जा रही थी कि तभी चैट बॉक्स में एक नाम के आगे की बत्ती हरी हो गई।
उसके चेहरे पर हल्की सी क्रोधमिश्रित मुस्कान आई और उसका कर्सर तुरंत लॉगआउट से
हटकर उस नाम पर पहुँच गया। नाम पर क्लिक करते ही चैट खुल गई। नाम था विवेक कुमार।
“आज आए क्यों नहीं ?
पूरे आधे घंटे वेट कीं तुम्हारा, पर तुम तो लापता….नम्बर भी बंद ? थे कहाँ ?” यह लिखकर उसने इंटर का बटन दबाया। विवेक कुमार के
आगे यह सन्देश खुला..वह अभी ‘वीर सावरकर’ के विचारों से सम्बंधित एक पोस्ट पर टिप्पणी डालने में
मशगूल था। उसने एक नज़र सन्देश पर डाली और हल्का मुस्कुराया…और बिना जवाब दिए टिप्पणी लिखता रहा… ”आज जब पश्चिमी (कु)लेखकों सहित भारत के भी लाल सलामी
प्रज्ञाचक्षुओं द्वारा हमारे इतिहास का कचड़ा किया जा रहा है, ऐसे समय में सावरकर
और उनके लिखे की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। इस समय में उनका लिखा हमें हमारे अतीत
की सही पहचान करा सकता है।” इस प्रकार टिप्पणी पूरी करके उसने इंटर का बटन दबाया।
फिर सुप्रिया के सन्देश की तरफ देखा जो पिछले पांच-छः मिनट से आया पड़ा था। इधर
सुप्रिया बेचैन थी कि पांच मिनट हो गए मैसेज भेजे और अबतक जवाब नहीं। कहीं लॉग इन
करके कुछ और तो नहीं करने लगा या कहीं किसी और के साथ तो नहीं न…? कर क्या रहा है आखिर…? ‘विवेक इज टाइपिंग’ चैट में ऐसा दिखते ही सुप्रिया को कुछ राहत हुई।
“सॉरी फॉर वेट डियर!
कॉलेज के बाद थोड़ा कुछ काम था..उसीमे फंस गया था।” यह
सन्देश आया।
“व्हाट सॉरी! कितना
वेट करवाए.. और अभी भी रिप्लाई करने में पांच मिनट लग गए? वैसे
क्या काम था कि एक फोन तक नहीं कर सके ?”
“अरे यार! कॉलेज के
बाद अचानक प्रोग्राम बन गया…गोवध के खिलाफ प्रोटेस्ट
करने की तैयारी हो गई। बस उसीमे निकल गया। फिर तो
प्रोटेस्ट, पुलिस, खींचतान वगैरह-वगैरह में सच कहूँ तो तुम्हारा ख्याल ही दिमाग से
निकल गया।”
“ओह! फिर भी बता दिए
होते तो सही रहता । वैसे, ठीक तो हो…कहीं चोट-वोट तो नहीं न लगी ?”
“ठीक हूं… तभी तो तुमसे चैटिया रहा हूं वर्ना तो कहीं पड़ा होता…किसी अस्पताल में..आह-उह कर रहा होता।”
“ओके..ओके…अब ज्यादा नौटंकी नहीं। कहती हूं कि इन फालतू के प्रोटेस्ट वगैरह से दूर रहा करो तो सुनते नहीं हो। खैर छोड़ो! मै भी किसे समझाने लगी। अच्छा! अब जल्दी
बताओ कि कब मिल रहे हैं, फिर मै लॉगआउट करूँ। अभी मोटा सा असाइंमेंट भी करना है। जल्दी बताओ?”
“मिलते हैं कल उसी
टाइम उसी पार्क में, जहाँ आज मिलना था…लेकिन मेरे
प्रोटेस्ट को गलत कहने से पहले याद कर लो कि तुम मेरी इस तरह की समझावन कितनी सुनती-मानती हो ?” इस मैसेज को पढ़
सुप्रिया के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान आ
गई, उत्तर में भी वो मुस्कान यानि स्माइली ही भेजी और फिर लॉगआउट कर गई। लॉगआउट के बाद असाइंमेंट
करने की तरफ मुड़ी, लेकिन उसके दिमाग में अब भी विवेक के ही ख्याल चल रहे थे। और
ख्याल हों भी क्यों न! आखिर विवेक के ही कारण तो आज वो सही-सलामत थी। अपने गांव-घर
से हजारों किलोमीटर दूर, इस दिल्ली शहर में जहाँ उसके गिनती के एकाध वो भी बस कहने
भर के रिश्तेदार रहते हैं, तब कौन पूछने वाला था उसे, अगर विवेक न होता। लगभग दस
महीने ही तो हुए जब एक मंत्री के महिला पहनावों पर दिए विवादित बयान के विरोध में
आइसा ने मंत्री के घर के सामने प्रदर्शन का कार्यक्रम बनाया था। वह भी थी बैनर लिए।
मंत्री के घर के पास पहुँचते ही पुलिस की धर-पकड़ शुरू हो गई, धक्का-मुक्की हुई,
लाठियां चलीं….पता ही नहीं चला कि अहिंसा और एकजुटता के साथ शुरू हुआ
विरोध कब हिंसात्मक होकर बिखर गया। कुछ कंकड़-पत्थर
चलाकर गिरफ्तार हुए, कुछ भाग गए। इसी धर-पकड़ में भागते हुए वो एक बाइक की चपेट में
आ गई। बाइक एक पाँव को रौंदते हुए निकल गई थी।
चोट बहुत ज्यादा नहीं थी लेकिन इतनी थी कि दर्द के मारे उससे चला नहीं जा
रहा था। बाइक वाला तो तुरंत निकल लिया, और कोई भी खुलकर
मदद को आगे नहीं आ रहा था। छटपटा रही थी वो कि तभी बगल से गुजर रही एक ऑटो रुकी और
उसमे से एक लड़का उतरा। वो था विवेक। झटपट
उसको सहारा देकर ऑटो में बिठाया। ऑटो सीधे अस्पताल पर रुकी थी। डॉक्टर ने जांच के
बाद कोई विशेष अंदरूनी क्षति न होने की घोषणा करते हुए मरहम-पट्टी आदि कर दी। वो
नहीं चाहती थी कि इस थोड़ी सी चोट के लिए घर पर लोग परेशान हों। घरवालों की परेशानी
से भी ज्यादा दिक्कत उसे पापा से थी क्योंकि वे कभी नहीं चाहते थे कि वो पढने के
लिए उनसे दूर दिल्ली जाए। वे वाराणसी में सरकारी मुलाजिम थे और चाहते थे कि सुप्रिया
वहीँ बीएचयू से अपनी पढ़ाई करे। लेकिन काफी जिद और जिरह के बाद वो यहाँ दिल्ली आई
थी। इन्हीं सब कारणों से जब विवेक ने उसके घर सूचना देने के लिए नंबर माँगा तो
उसने मना कर दिया कि यह सूचना मिलते ही पापा आकर उसे घर चलने के लिए भाषण सुनाने
लगेंगे। सोचा कि जब ठीक हो जाएगी तब बता देगी। एकदिन अस्पताल में रहने के बाद अपने
मित्रों जिनके साथ वो रहती थी, को बुलाकर उनके साथ अपने आवास चली गई। लेकिन इस
एकदिन में विवेक ने उसकी जो मदद की थी, जो ख्याल रखा था, उस कारण विवेक को लेकर एक आकर्षण सा महसूसने लगी थी वो।
इसीलिए तो रिकवर करने के बाद उसने विवेक से दोस्ती बढ़ा ली। फोन से लेकर मुलाकात तक।
बातों-बातों में पता चला कि वो डीयू में राजनीति शास्त्र से परास्नातक कर रहा है।
वो खुद भी जेएनयू से यही तो कर रही थी। इस तरह विषय तो मिले, पर विचार नहीं….लेकिन विचार अपनी जगह होते हैं और मानवीय संवेदनाएं अपनी जगह। आखिर सब
विचारों, वादों से पहले हर कोई एक मनुष्य ही तो होता है। विवेक की मानवीय संवेदना
उसने देखी थी इसलिए विचारों को दरकिनार कर उससे करीबी बढ़ाती गई। उनके बीच वैचारिक
चर्चा कभी नहीं छिड़ती। इस तरह दोस्ती बढ़ी….और फिर धीरे-धीरे
जाने कब यह दोस्ती उस रिश्ते में बदल गई जिसे इश्क, लव, प्यार वगैरह कहा जाता है…अभी घड़ी में रात के दो बज रहे थे, असाइंमेंट पूरा हो चुका था। उसने लाइट बंद
की और नींद के हवाले हो गई।
पार्क काफी हद तक खाली था। काफी दूरी-दूरी पर लोग दिख जाते थे। अधिकत्तर लोग
युवा ही थे। इन्हीं के बीच एक किनारे एक पेड़ के नीचे ये जोड़ा मौजूद था। सुप्रिया
की जींस ढकित जाँघों पर सिर रखकर लेटे विवेक का हाथ रह-रहके कभी उसके बालों, कभी
गालों, कभी उरोजों पर पहुँच जाता था। सुप्रिया के चेहरे से लग रहा था कि वो विवेक
की इन हरकतों से अच्छा नहीं महसूस कर रही। असहजता के भाव थे। लेकिन विवेक को उसकी
परवाह कहाँ वो तो अपनी धुन में मस्त था। धीरे-धीरे उसके होठ सुप्रिया के चेहरे की
तरफ बढ़ने लगे। सुप्रिया के चेहरे पर असहजता बढ़ती जा रही थी।
“विवेक! कब सुधरोगे…यू नो आई डोंट लाइक दिस टाइप ऑफ़ थिंग्स….फिर भी…?” उसने मनचले हो रहे विवेक को झटकते हुए कहा।
“हे हेलो! इतना
क्यों भड़क रही हो यार! अब जवान हूं, तुम जैसी मस्त जीएफ पास में है तो क्या इतने
से भी गया ?” विवेक उससे थोड़ा अलग हो गया। सुप्रिया को लगा कि वो थोड़ी ज्यादा ही
बेरुखी कर गई। स्थिति सम्हालते हुए वो थोड़े हलके लहजे में बोली, “यार जगह तो देखो!
कितने लोग हैं…क्या राजनीति की पढाई करते हो, इतना भी नही पता कि पब्लिक प्लेस में ऐसे उत्तेजक कृत्य की अनुमति हमारा संविधान भी नहीं देता मिस्टर विवेक!”
“ओहो! हे संविधान की
ज्ञानी देवी…तो चलिए न कहीं एकांत में चलकर सहवास करें।” विवेक भी उसीके
अंदाज में जवाब दिया। यह सुन वो मुस्कुरा दी और जरा अलग हुए विवेक को अपनी तरफ
खींच ली। उसका यह खींचना विवेक को उत्तेजित कर गया और अबकी उसके होठ नहीं रुके।
सुप्रिया ने भी कोई विशेष विरोध नहीं किया। अगले कुछ पल तक उन्हें भान नहीं रहा कि
वे कहाँ हैं तथा यह बाहरी दुनिया है, वे तो बस एकदुसरे की साँसों और छुअन को
महसूसते रहे। कुछ पल बाद दोनों को होश हुआ, लेकिन विवेक का उत्तेजित मन अब भी शांत
नहीं था। यह उत्तेजना तो सुप्रिया में भी थी, पर वो जस-तस उसे दबाए हुए थी।
“यार चलो न! कहीं
एकदम अकेले में चलते हैं….अभी थोड़ा और मूड है…चलो न!”
“एकदम अकेले में….व्हाट डू यू मीन…….यू नो बेटर आई डोंट लाइ…”
“कितने बार बताओगी…आई नो, यू डोंट लाइक! बट, फिर भी चलो न! ऑनली वन टाइम….फिर नहीं कहूँगा..प्लीज!”
“अजीब है यार..जब कह
रही हूं कि मुझे अच्छा नहीं लगता ये सब...इन सब चीजों का भी एक टाइम होता है...कि
कभी भी, कहीं भी..”
“कब टाइम होता है...बुढ़ापे
में...यही तो टाइम है, थोड़ा एन्जॉय करने का..”
“ये एन्जॉय नहीं
पढ़ाई का टाइम है..इन सब एन्जॉयमेंट के लिए आफ्टर मैरिज बहुत टाइम मिलेगा...खैर
छोड़ो! तुम अभी नहीं सुनोगे...मै जा रही हूं। दिमाग शांत करो, फिर मिलेंगे।” वह
उठने को हुई कि विवेक ने उसका हाथ पकड़कर बिठा लिया, “आफ्टर मैरिज तो ठीक है...पर
अगर अभी थोड़ा एन्जॉय कर लेंगे तो क्या हो जाएगा...और तुम कब से शादी के बाद की बात
करने लगी...फेसबुक पर तो खूब सेक्स के अधिकार टाइप बातों की पैरवी होती है...तो
यहाँ क्या हो गया ?” विवेक ने वैचारिक चीजों को घुसेड़ दिया था।
“वो दूसरी चीज है...उसको
और इसको मत जोड़ो..” विवेक की बात पर निरुत्तर थी वो इसलिए ये कहके जान छुड़ाई लेकिन
फिर कुछ सोचकर बोली, “और तुम भी तो फेसबुक पर खूब संस्कारों, मर्यादाओं की ढोल पीटते हो तो अभी...?” उसके ऐसा कहने के
बाद विवेक भी निरुत्तर हो गया था। विवेक ने उसके हाथ पर से अपनी पकड़ ढीली कर दी।
वो कुछ पल बैठी रही, फिर उठी और, “दिमाग ठंडा हो तो फोन करना...फिर मिलते हैं, ओके!
बाय!” कहके चली गई। विवेक कुछ पल वहीँ बैठा रहा फिर एक तरफ निकल गया। आज पहली बार उनके
बीच मौजूद वो विचारधारात्मक टकराहट, जिसे जानते हुए भी वे गौण रखना चाहते थे,
अचानक प्रत्यक्ष हो गई थी। और संयोग कि इस वैचारिक टकराव में अपने-अपने विचारों के
साथ दोनों ही पराजित हुए थे।
“हेलो विवेक! यार आज नहीं मिल पाऊंगी..कुछ काम आ गया है इसलिए आना मुश्किल है।
सो प्लीज डोंट वेट। सॉरी!”
“ओके स्वीटहार्ट!
फोकस ऑन योर वर्क...आय विल मैनेज...टेक केयर!”
“थैंक्स यार! लव
यू...” ये कहके सुप्रिया ने फोन काट दिया और दोस्तों के हुजूम की तरफ बढ़ी। यह जेएनयू
के भीतर का ही कोई स्थान था। लगभग १५-२० लड़के-लड़कियां एक गोलाकार मेंज के अगल-बगल
कुर्सियां लगाकर बैठे थे। सुप्रिया ने भी एक कुर्सी लेकर बैठते हुए कहा, “सो, फाइनली...व्हाट
इज प्रोग्राम कामरेड...?”
“प्रोग्राम तो फिक्स
ही है...बस टाइम एंड प्लेस की बात चल रही है।” एक बोला।
अगले २०-२५ मिनट तक
उनकी चर्चा चलती रही और फिर कुछ निर्णय हुआ। उनका जो प्रेसिडेंट था, वो बोला,
“कामरेड्स लिसेन
केयरफुली! तो फायनली यह तय रहा कि कल कॉलेज के बाद उन खोखली सभ्यता, नकली मर्यादा
वालो के सामने ही हमारा आन्दोलन होगा..उससे पहले आज सोशल साइट्स पर इवेंट्स,
पोस्ट्स वगैरह के जरिए इसकी जो प्रोमोशन हो रही है उसे और फैला दिया जाएगा...फिर
मिलते हैं कल उन संघियों के कार्यालय के सामने..”
“बिलकुल ऐसा ही
होगा, कामरेड!” सब एकसाथ बोले।
“सो ओके! कलतक के
लिए लाल सलाम!”
“लाल सलाम!”
‘माय बॉडी माय राईट’, ‘नहीं चलेगी मोरल पुलिसिंग’ जैसे बैनरों, नारों से सजा हुजूम अगले दिन तय कार्यक्रम के हिसाब से निकला।
बहुत अधिक संख्या तो नहीं थी, पर जो भी थे उन्मत्त हुए चले। लड़कों की अपेक्षा
लड़कियां कम थीं। पर जो थीं उन्हीमे एक सुप्रिया भी थी। संघ कार्यालय के सामने
आन्दोलन कहा जाने वाला वह कृत्य कुछ समय तक होता रहा। संघ के कुछेक समर्थकों ने
उसे रोकने को जोर लगाया पर जो होना था, होता रहा। बदन से बदन, होठ से होठ रगड़े गए।
लड़कियां कम थीं, लड़के ज्यादा....सो एक लड़की कई-कई लड़कों का इस आन्दोलन में सहयोग
कर रही थी..मीडिया के कैमरे इस अदभुत आन्दोलन के नज़ारे को कैद कर रहे थे। कुछ समय
में पुलिस आ गई। कुछ पकड़े गए, कुछ भाग गए...और फिर ये आन्दोलन अधिक देर तक नहीं
टिका। जल्दी ही सब समाप्त!
‘सुप्रिया! ये सब
क्या है...? ये कैसे फोटोज, वीडियोज दिख रहे हैं मीडिया में ?” कड़क आवाज थी विवेक
की।
“मै समझी नहीं...अब
अगर तुम कल के आन्दोलन पर कुछ कह रहे हो तो रहने दो..अभी घरवालों को समझा के परेशान
हूं...अब मै तुम्हे नहीं समझा सकती..”
“व्हाट! नहीं समझा
सकती...मैंने उसदिन थोड़ा सा एन्जॉय करने को कह दिया तो मुझे संविधान, टाइम, शादी
के बाद जैसे ज्ञान देने लगी...और आज कितने लड़कों के साथ चुम्मा-चाटी कर रही हो..तो
कहती हो कि समझा नहीं सकती..”
“तुम फिर दो अलग
बातों को जोड़ने लगे...तुमने उसदिन जो कहा वो अलग बात है..और ये अलग..इट्स जस्ट अ
प्रोटेस्ट..”
“अच्छा प्रोटेस्ट
बनाया है जी! प्रोटेस्ट के नाम पर मजे लो..क्या आयोजन किया है मार्क्स की औलादों
ने..”
“कंट्रोल विवेक! ये
कुछ ज्यादा हो रहा है...तुम्हारी ऐसी चीजों में मैंने कभी कोई इंटरफेयर नहीं
किया...तुम भी दूर रहो..”
“मै कोई किसीको पकड़
के चूमने-चूसने का आन्दोलन थोड़े न करता हूं...जो तुम्हे इंटरफेयर की जरूरत हो...मै
भी जाता हूं किसीके साथ यही करने...फिर मत करना इंटरफेयर..?”
“स्टॉप! यू कैन नॉट
अंडरस्टैंड माय फीलिंग्स...जाओ...जिसके साथ...जो दिल में आए करो..बट मुझे छोड़ो...कॉल
मी नेवर..!” झुंझलाहट में यह कहके सुप्रिया ने फोन काट दिया। विवेक को लगा था कि
सुप्रिया उससे माफ़ी वगैरह मांगेगी लेकिन उसके ऐसे व्यवहार से विवेक का गुस्सा और
बढ़ गया। वो समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे। एकदम बदहवास सी हालत हो गई थी उसकी।
इधर सुप्रिया ने
झुंझलाहट में बोल तो दिया, पर जब थोड़ा शांत हुई तो उसे अपनी गलती का अंदाज़ा हुआ। उसने
सोचा कि चलो थोड़े देर बाद विवेक को फोन करेगी, तबतक उसका गुस्सा भी ठंडा हो जाएगा।
यह सोच वो तैयार होकर कॉलेज निकल गई। लंच टाइम में उसने विवेक को फोन किया, पर
उसका फोन बंद था। कोलेज ख़त्म होने के बाद भी वो लगातार उसका नंबर मिलाती रही,
लेकिन वही फोन बंद। उसकी चिंता बढ़ती जा
रही थी कि तभी विवेक आता हुआ दिखा। वो काफी खुश हुई...कि तभी वातावरण उसकी चीखों
से भर गया। पास पहुँचते ही विवेक ने उसपर चाक़ू के दनादन कई वार कर दिए थे। वो वहीँ
ढेर हो गई। यह देख मौजूद लोग अवाक् थे कि तभी विवेक ने अपने मुँह में कुछ डाल लिया
और देखते ही देखते वह भी वहीँ गिर गया। उसके अंतिम शब्द जो सुनाई पड़े – सॉरी जान!
-पीयूष द्विवेदी
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सामाजिक और राजनैतिक विचारधाराओं तथा व्यक्तिगत संस्कारों के बीच की यह खाई आजकल कुछ ज्यादा चौड़ी होती जा रही है। जब तक हम किसी विचारधारा को अपने जीवन में नहीं उतारते, यह अंतर समाप्त नहीं हो सकता और न ही हमें उस विचारधारा की वर्तमान जीवन के संदर्भ में सही स्थिति का बोध हो पाता है।
जवाब देंहटाएंअच्छी कहानी है! बधाई स्वीकारें!
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