एक विधा, एक आयाम अथवा एक रास्ता तय करने में ही
व्यक्ति को एक जीवन कम लगने लगता है, यह वाक्य डॉ. के के झा जैसे मनीषियों पर लागू
नहीं होता है। शिक्षा, पर्यटन, संस्कृति, इतिहास, नृतत्वशास्त्र, पुरातत्व,
पर्यावरण, विधि, साहित्य और भी न जाने कितने आयामों को उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र
बनाया। 30.12.2014 की सुबह बयासी वर्ष की उम्र में उन्होंने लम्बी बीमारी के बाद
रायपुर के एक निजी अस्पताल में आखिरी स्वाँसे लीं। उन्हें अपनी कर्म भूमि जगदलपुर
(बस्तर) में पंचतत्व में विलीन किया गया किंतु यह भी एक सत्य है कि वे सर्वदा
रहेंगे। उनके कार्यों, उनकी स्मृतियों तथा योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
डॉ. कृष्ण कुमार झा जैसा सरल, सहज तथा विनम्र
व्यक्ति किसी को भी प्रभावित कर सकता था। यदि उनकी उपलब्धियों पर एक दृष्टि डाली
जाये तो विस्मय होने लगता है कि यह सब केवल एक व्यक्ति का परिचय है। डॉ. कृष्ण
कुमार झा एक ऐसा व्यक्तित्व थे जो जीवन भर पढते रहे, अनवरत शोध करते रहे। वे न
केवल डी.लिट एवं पाँच विषयों में पी.एच.डी ही थे अपितु उन्होंने सत्रह विषयों में
स्नात्कोत्तर की उपाधि भी प्राप्त की है। इसके अतिरिक्त भी उन्हें देश-विदेशों में
अध्ययन कर अनेको अन्य समकक्ष उपाधियाँ प्राप्त की हैं। वे वर्तमान में भी एम. फिल
कर रहे थे। वे विश्व के सबसे अधिक शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों में अग्रणी थे तथा
इसके लिये उनके नाम को लिमका बुक ऑफ रिकॉर्डस -2009 में स्थान दिया गया था।
अपने कार्यक्षेत्र को भी
उन्होंने शिक्षा ही बनाया था। डॉ. कृष्ण कुमार झा ने केन्दीय विद्यालय संगठन में
सहायक आयुक्त के पद पर कार्य करते हुए उत्तर पूर्वी भारते के सात राज्यों,
छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश आदि राज्यों में अपनी सेवायें
प्रदान की हैं। यही नहीं वे अनेक महाविद्यालयों में प्राचार्य तथा विश्वविद्यालयों
में उपकुलपति जैसे पदों को भी सुशोभित करते रहे हैं। उन्होंने अपने निजी प्रयासों
से बस्तर संभाग में अनेक स्थानों पर विद्यालय तथा महाविद्यालय खुलवाये इनमें दंतेश्वरी
महिला महाविद्यालय, कांकेर कालेज, राष्ट्रीय विद्यालय तथा नेशनल
इंग्लिश स्कूल आदि प्रमुख हैं। अध्ययन को ले कर उनके जुनून को इसी बात से जाना जा
सकता है कि जिन दिनों बस्तर में शिक्षा के बुनियादी अवसर भी उपलब्ध नहीं थे
उन्होंने उच्च शिक्षा इंग्लैण्ड जा कर हासिल की। उन्होनें यूरोप तथा एशिया के अनेक
देशों की अध्ययन यात्रायें की हैं। कॉमनवेल्थ एज्युकेशन फैलोशिप तथा विश्व
स्वास्थ्य संगठन के प्रायोजन में इंग्लैण्ड, स्कॉटलैंड आदि देशों में भी वे विशेष
अध्ययन के लिये गये थे। विश्व मंचों में उन्हें अनेक अवसरों पर भारत का
प्रतिनिधित्व करने का अवसर भी प्राप्त हुआ है। ऑरलो, बेल्ज़ियम में आयोजित
अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन में उन्होंने न केवल सहभागिता ही की अपितु कतिपय
सत्रों की अध्यक्षता भी उनके द्वारा की गयी थी।
सुप्रसिद्ध लेखक राजीव रंजन प्रसाद का
जन्म बिहार के सुल्तानगंज में २७.०५.१९७२ में हुआ, किन्तु उनका बचपन व
उनकी प्रारंभिक शिक्षा छत्तीसगढ़ राज्य के जिला बस्तर (बचेली-दंतेवाडा) में
हुई। आप सूदूर संवेदन तकनीक में बरकतुल्ला विश्वविद्यालय भोपाल से एम. टेक
हैं।
विद्यालय
के दिनों में ही आपनें एक पत्रिका "प्रतिध्वनि" का संपादन भी किया। ईप्टा
से जुड कर उनकी नाटक के क्षेत्र में रुचि बढी और नाटक लेखन व निर्देशन
उनके स्नातक काल से ही अभिरुचि व जीवन का हिस्सा बने। आकाशवाणी जगदलपुर से
नियमित उनकी कवितायें प्रसारित होती रही थी तथा वे समय-समय पर विभिन्न
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुईं।
उनकी अब तक प्रकाशित पुस्तकों "आमचो बस्तर", "मौन मगध में", "ढोलकल" आदि को पाठकों का अपार स्नेह प्राप्त हुआ है। "मौन मगध में" के लिये आपको महामहिम राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय राजभाषा पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है।
उनकी अब तक प्रकाशित पुस्तकों "आमचो बस्तर", "मौन मगध में", "ढोलकल" आदि को पाठकों का अपार स्नेह प्राप्त हुआ है। "मौन मगध में" के लिये आपको महामहिम राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय राजभाषा पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है।
वर्तमान में आप सरकारी उपक्रम "राष्ट्रीय जलविद्युत निगम" में कार्यरत हैं। आप साहित्य शिल्पी के संचालक सदस्यों में हैं।
डॉ. कृष्ण कुमार झा को
उनकी साहित्यिक प्रतिभा के लिये भी विशेष रूप से जाना जाता है। बस्तर पर सर्वाधिक
प्रामाणिक इतिहास लेखन तो उन्होंने किया ही है जिसमें से अधिकतम कार्य अभी
अप्रकाशित है व शोध ग्रंथों के रूप में ही संकलित है। तथापि बस्तर के लोकनायक, दो
महल जैसी पुस्तकों के माध्यम से उन्होंने आंचलिक इतिहास को बहुत ही सरल शब्दों में
जनसुलभ बना दिया है। इतिहास पर उनकी समुद्रगुप्त, बालार्जुन जैसी कृतियाँ इस
दृष्टि से भी अनूठी हैं कि वे खण्डकाव्य के रूप में लिखी गयी हैं। देवयानी, आकाश
कुसुम जैसे अनेक उपन्यास भी उनकी रचनाधर्मिता का द्योतक हैं जिसमें अतीत और
वर्तमान के अनेक संवेदशील विषय छुवे गये हैं। बात जो कचोटती है वह यह कि डॉ. के के
झा जैसे व्यक्तित्व का बहुतायत कार्य उनके जीवनकाल में अप्रकाशित ही रह गया है, जो
कुछ भी छपा उनमे से अधिकांश जगदलपुर में ही निजी प्रयासों से सामने आ सका है। इसका
अर्थ यह नहीं कि उनके कार्यों का मूल्यांकन नहीं हुआ। अचीवमेंट अवार्ड, मिलेनियम
अचीवर अवार्ड, राष्ट्रीय सम्मान, हिन्द गौरव सम्मान आदि अनेक प्रतिष्ठित
पुरस्कारों व सम्मानॉं से उन्हें विभूषित किया गया है।
डॉ. कृष्ण कुमार झा न केवल इतिहासकार थे अपितु बस्तर के इतिहास का
अभिन्न हिस्सा थे। वे महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव तथा विजय चन्द्र भंजदेव के
अच्छे मित्रों में गिने जाते थे। वर्ष
1966 के कुख्यात राजमहल गोलीकाण्ड के वे गवाहों में से भी रहे हैं। उस दौर में
गवाहों पर कितना दबाव रहा होगा इसकी सहज कल्पना की जा सकती है तथापि पाण्डेय कमीशन
की राजमहल गोलीकाण्ड पर रिपोर्ट के दूसरे अध्याय का विन्दु 17 सी अवश्य पढने योग्य
है जो कि उनकी निर्भीकता का द्योतक भी है। जहाँ हर बयान में पुलिस कार्यवाई को
क्लीनचिट दिये जाने की गवाहों में होड लगी थी वहीं डॉ झा कहते हैं कि – “It was further seen that some adiwasis were coming out through a from a door
through a door in the front side of the
new palace. They were seated, surrounded and severely attacked with lathies by
several policemen. Whoever tried to escape was chased by many policemen and
beaten. One or two fleeing adiwasis were also fired at.” अपने एक साक्षात्कार में डॉ. झा ने बताया था कि
इस बेबाक बयानी के कारण उन्हें बहुत भुगतना भी पड़ा था तथा राजमहल परिसर में उनके
द्वारा संचालित महाविद्यालय की मान्यता रद्द कर उसे बंद करने के लिये विवश कर दिया
गया था। यह घटना अब इतिहास है तथा इतिहास लिखने वाले डॉ. कृष्ण कुमार झा भी अब इतिहास
के पन्नों में स्वर्णाक्षरों से अंकित हो गये हैं। बस्तर उन्हें कभी भुला नहीं
सकेगा, विनम्र श्रद्धांजलि।
2 टिप्पणियाँ
shraddhanjali
जवाब देंहटाएंबिनम्र श्रद्धांजली...बधाई
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.