छायावादी काव्य के प्रमुख स्तंभ और छंदमुक्त कविता के प्रवर्तक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म बंगाल के महिषादल मे कार्य कर रहे व उन्नाव जिले
के मूल निवासी राम सहाय त्रिपाठी के घर हुआ। जन्म के
समय पिता महिषादल मे पुलिस ऑफिसर एवं राजकीय खजांची के दोनो पदो पर कार्यरत थे।
तीन वर्ष की अवस्था मे ही माँ का देहांत होने की वजह से निराला जी की औपचारिक
शिक्षा दसवी तक ही हो पाई किंतु अपनी अध्ययन की ललक के कारण उन्होंने हिन्दी, संस्कृत और बांग्ला का स्वतंत्र अध्ययन किया। पिता की छोटी सी नौकरी की असुविधाओं और
मान-अपमान का परिचय इन्हे बचपन से था संभवत: इसी कारण दलित-शोषित किसान के साथ
हमदर्दी का संस्कार अबोध मन से ही निराला जी नें अर्जित किया था।
15 वर्ष की अल्पायु
मे निराला विवाहित हुए, हिंदी की ओर अत्यधिक रुझान वाली मनोहरा देवी से
हुए इस विवाह नें ही निराला को महाप्राण बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। मनोहरा देवी जी की प्रेरणा से ही निराला जी ने
लेखन प्रारंभ किया। यह अलग बात है कि इनकी शादी-शुदा जिन्दगी अच्छी नहीं रही।
20 वर्ष की छोटी सी
उम्र में पिता के देहांत हो जाने के बाद पूरे संयुक्त परिवार का बोझ निराला जी पर
पडा। 'निराला' की पहली नियुक्ति
महिषादल राज्य में ही हुई। उन्होंने १९१८ से १९२२ तक यह नौकरी की। पहले महायुद्ध के बाद जो महामारी फैली उसमें न
सिर्फ पत्नी मनोहरा देवी का,
बल्कि चाचा, भाई और भाभी का भी देहांत हो गया। निरालाजी के एक
पुत्र तथा एक पुत्री थी। पुत्री विधवा हो गई यह दुःख कोई कम नहीं था कि वही विधवा पुत्री भी इस महामारी मे चल बसी उन्हें इस बात
का गहन आघात लगा और तब उन्होंने 'सरोज स्मृति' नामक अमर रचना की। इस शोक कीत की कुछ पंक्तिया
देखें –
मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हो भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हो भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!
परिवार का बोझ
उठाने में महिषादल की
नौकरी अपर्याप्त थी। निराला इस लिये संपादन, स्वतंत्र
लेखन और अनुवाद कार्य की ओर
प्रवृत्त हुए। उन्होंने १९२२ से १९२३ के दौरान कोलकाता से प्रकाशित
“समन्वय” का संपादन किया, १९२३
के अगस्त से “मतवाला” के संपादक मंडल में कार्य किया। इसके बाद लखनऊ में
गंगा पुस्तक माला कार्यालय में उनकी नियुक्ति हुई जहाँ वे संस्था की मासिक पत्रिका
“सुधा “ से १९३५ के मध्य तक संबद्ध रहे। १९३५ से १९४० तक
का कुछ समय उन्होंने लखनऊ में भी बिताया। इसके बाद १९४२ से मृत्यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य किया।
निराला का जीवन त्रासदीपूर्ण, संघर्षपूर्ण
तथा घोर गरीबी से घिरा रहा। उन्होंने कई प्रकाशकों के लिए काम किया तथा जीविका के लिए प्रूफ रीडिंग भी की। स्वयं
अभावों से जूझते हुए भी वे
गरीबों में अपने पैसे तथा कपड़े बाँट दिया करते थे। अपने जीवन के अंतिम समय में वे शाइजोफ्रीनिया के शिकार हो गए थे। उनका
निधन इलाहबाद में 15 अक्टूबर 1961 में
हुआ।
उनकी पहली कविता
जन्मभूमि - प्रभा नामक मासिक
पत्र में जून १९२० में, पहला कविता संग्रह १९२३ में अनामिका नाम से, तथा पहला निबंध बंग भाषा का उच्चारण अक्तूबर १९२० में मासिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुआ। छायावाद आंदोलन
के अग्रणी निराला जी की गणना जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन
पंत तथा महादेवी के साथ की जाती है। शोषण के खिलाफ भी आवाज उठाते हुए निराला जी ने इतिहास, धर्म, प्रकृति प्रेम तथा मानवतावादी
आदर्शो पर रचनाए दी हैं। छंदमुक्त कविता के प्रथम पक्षधर निराला रामकृष्ण परमहंस
तथा स्वामी विवेकानंद से
अत्यंत प्रभावित थे।
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