राजतंत्र के पहिये दरक गये थे। लोकतंत्र
को यह दीख नहीं पड़ता था कि बस्तर की पहचान उसके आदिवासी हैं। उन दिनों
पूर्वी-पाकिस्तान से भारत की ओर विस्थापन और पलायन के लम्बे दौर जारी थे। किसी ने
किसी से भी नहीं पूछा कि हजारो-लाखो की संख्या मे आ रहे विस्थापितों को कहाँ बसाया
जाना है। यह मान लिया गया कि आदिवासी तो अस्तितिवहीन आबादी होते हैं, उनकी भूमि
में जगह जगह तम्बू तान दिये गये। तय कर लिया गया कि यहाँ एक नयी बसाहट, नयी
सभ्यता, नयी कश्मकश और नये बदलाव की आधारशिला रखी जानी है। दिल्ली और कोलकाता मे
बैठे कुछ लोग अचानक बस्तर भाग्यविधाता हो गये। एक परियोजना गढ़ी गयी जिसे
दण्डकारण्य प्रोजेक्ट नाम दिया गया। इस परियोजना का मूल काम बंगाली विस्थापितों को
बस्तर मे बसाना और उनके लिये जीवनयापन के तौर तरीके विकसित करना था। दण्डकारण्य
परियोजना मे बस्तर और उसका आदिवासी कहीं भी नहीं था। हर घटना का प्रतिफल और परिणाम
जो भी हों इतिहास उसे कालांतर मे मूल्यांकित करता है, किंतु उसके द्वितीयक परिणाम
भी होते है। दण्डकारण्य परियोजना संभवत: बस्तर की घडवा कला और उसके वर्तमान स्वरूप
तक पहुँचने के दौर में अनायास ही एक कड़ी सिद्ध हुई।
सुप्रसिद्ध लेखक राजीव रंजन प्रसाद का
जन्म बिहार के सुल्तानगंज में २७.०५.१९७२ में हुआ, किन्तु उनका बचपन व
उनकी प्रारंभिक शिक्षा छत्तीसगढ़ राज्य के जिला बस्तर (बचेली-दंतेवाडा) में
हुई। आप सूदूर संवेदन तकनीक में बरकतुल्ला विश्वविद्यालय भोपाल से एम. टेक
हैं।
विद्यालय
के दिनों में ही आपनें एक पत्रिका "प्रतिध्वनि" का संपादन भी किया। ईप्टा
से जुड कर उनकी नाटक के क्षेत्र में रुचि बढी और नाटक लेखन व निर्देशन
उनके स्नातक काल से ही अभिरुचि व जीवन का हिस्सा बने। आकाशवाणी जगदलपुर से
नियमित उनकी कवितायें प्रसारित होती रही थी तथा वे समय-समय पर विभिन्न
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुईं।
उनकी अब तक प्रकाशित पुस्तकों "आमचो बस्तर", "मौन मगध में", "ढोलकल" आदि को पाठकों का अपार स्नेह प्राप्त हुआ है। "मौन मगध में" के लिये आपको महामहिम राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय राजभाषा पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है।
उनकी अब तक प्रकाशित पुस्तकों "आमचो बस्तर", "मौन मगध में", "ढोलकल" आदि को पाठकों का अपार स्नेह प्राप्त हुआ है। "मौन मगध में" के लिये आपको महामहिम राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय राजभाषा पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है।
वर्तमान में आप सरकारी उपक्रम "राष्ट्रीय जलविद्युत निगम" में कार्यरत हैं। आप साहित्य शिल्पी के संचालक सदस्यों में हैं।
उत्तर बस्तर के कोण्डागाँव मे दण्डकारण्य परियोजना का कार्यालय खुला था। परियोजना के अंतर्गत बस्तर की उपलब्ध लोककलाओं के द्वारा आजीविका के अवसर निर्मित करने के प्रयासों की शुरुआत हुई। इस क्रम मे स्थानीय कलाकार सिमरन बघेल को घडवा शिल्पकार और कला प्रशिक्षक के रूप मे चुना गया। श्रीमति सरोजनी नायडू वर्ष 1962 में दण्डकारण्य परियोजना के तहत एक कार्यक्रम का उद्घाटन करने बस्तर आयी थीं तो उन्होंने सिमरन बघेल का सम्मान भी किया था। घडवा कला को पहचान दिलाने का सूत्रपात करने वाले सिमरन बघेल वस्तुत: उस वृक्ष के बीज अर्थात पिता हैं जो बाद में इस कला का सबसे बडा नाम बना और जिसे आज हम जयदेव बघेल के रूप मे जानते हैं।
पिता ही जिस बालक का गुरु हो उसके भीतर की
कलात्मकता को आकार विस्तार लेना ही था। तथापि सिमरन बघेल की समानांतर पीढी से
सुखचंद बघेल भी उन दिनों घडवा कला मे इतिहास रच रहे थे, वे जयदेव बघेल के
रिश्तेदार अर्थात उनके मामा थे। सुखचंद बघेल को वर्ष 1970 में जब राष्ट्रीय
पुरस्कार से सम्मानित किया गया उन दिनो जयदेव बघेल की उम्र केवल सत्रह-अठारह वर्ष
रही होगी। जयदेव तब दण्डकारण्य परियोजना के अंतर्गत कोण्डागाँव कार्यालय मे ही
चौकीदार के पद पर कार्य कर रहे थे। मामा के साथ दिल्ली पहुँचने पर जयदेव की अनेक
महत्वपूर्ण लोगों से मुलाकात हुई जो कला की कद्र करते थे अथवा कलकारों के कार्यों
की प्रदर्शनियों के प्रायोजक थे। सबसे प्रमुख नाम तो जसलीन धमीजा का ही था जिनके
बंगले में ये मामा-भांजा ठहरे हुए थे। इसके अतिरिक्त वहाँ सुमन बेनेगल से उनकी मुलाकात
हुई जो हैंडीक्राफ्ट हैंडलूम एक्सपोर्ट कॉरपोरेशन की जनरल मेनेजर थी। इन दोनो ही
महिलाओं ने जिस तरह घडवा कलाकृतियों की बारीकियों को परखा उसे जयदेव ध्यान से
देख-समझ रहे थे। महिलाओं ने इन कलाकृतियों को खरीदा और उस दौर में तीन सौ रुपये का
लाभ कलाकारों को प्राप्त हुआ। जयदेव बघेल की आँखें खुल गयीं। चौकीदार की नौकरी में
महीने भर की पगार मिलती थी कुल पचहत्तर रुपये; इन कलाकृतियों से कई गुना अधिक राशि
मिलती साथ ही समाज में सम्मान भी हासिल हो सकता था। घडवा कला उनका परम्परागत कार्य था अत: जयदेव बघेल भी अपने पिता और मामा
की राह पर निकल गये, उन्होंने अपनी नौकरी छोड दी।
कहना होगा कि जयदेव बघेल की कला यात्रा
असाधारण रही है। इसे समझने के लिये पहले घडवा अथवा ढोकरा अथवा बेलमेटल कला को
जानना भी आवश्यक है। मिट्टी, मोम और धातु की सम्मिलित है यह कला साधना, जिसमे आकृति तो धातु की
बनती है लेकिन कलाकार उसे मोम में साधता है और मिट्टी जीवन फूंकें जाने तक उसे
अपने सांचे में धारण करती है। बस्तर में मुख्य रूप से से घसिया जनजाति ने घडवा कला
को साधा और शिखर तक पहुँचाया। घसिया के रूप में इस जनजाति को पहचान रियासतकाल में
उनके कार्य को ले कर हुई चूंकि ये लोग उन दिनो घोडों के लिये घास काटने का कार्य
किया करते थे। महत्वपूर्ण बात यह है कि घडवा कला को किसी काल विशेष से जोड कर नहीं
देखा जा सकता चूंकि मोहनजोदाडो में ईसा से तीन हजार साल पहले प्राप्त एक नृत्य
करती लडकी की प्रतिमा लगभग उसी तकनीक पर आधारित है जिसपर बस्तर का घडवा शिल्प आज
कार्य कर रहा है।
अपने एक आलेख में जयदेव बघेल ने लिखा है
कि बस्तर में इस कला के प्रारंभ के लिये जो मिथक कथा है उसका सम्बन्ध आदिमानव और
उसकी जिज्ञासाओं से है। यदि उनके द्वारा प्रदत्त विवरणों को अपने शब्दों में
प्रस्तुत करूं तो यह बात तब की है जब आदिमानव जंगल में विचरण करता था और शिकार पर
आश्रित अपना जीवन निर्वहन किया करता था। इन्ही में से एक आदिमानव की यह कहानी है
जो अपने माता-पिता से बिछड कर किसी गुफा में रह रहा था। एक दिन उसने पहाड पर आग
लगी देखी। आग से निकलने वाले रंग तथा चिंगारिया उसे भिन्न प्रतीत हुईं और वह
जिज्ञासा वश उस दावानल के निकट चला गया। अब तक आग स्थिर होने लगी थी। वहीं निकट ही
उसे एक ठोस आकृति दिखाई पडी जो किसी धातु के पिघल कर प्रकृति प्रदत्त किसी गह्वर
अथवा सांचे में प्रवेश कर जम जाने के पश्चात निर्मित हुई होगी। यह आकृति उसे अलग
सी और आकर्षित करने वाली लगी और उसे उठा कर आदिमानव अपने घर ले आया। उसने इस
प्रतिमा के लिये घर का एक हिस्सा साफ किया और इसे सजा कर रखा। इस प्रतिमा के लिये
उसका आकर्षण इतना अधिक था कि नित्य ही वह इसे साफ करता और धीरे धीरे इससे प्रतिमा
में चमक आने लगी। कहते हैं इसी चमक से प्रभावित हो कर वह स्वयं को भी चमकाने लगा
अर्थात नित्य स्नानादि कर श्रंगार पूर्वक रहने लगा। यह धातु और वह मानव जैसे एक
दूसरे के पूरक हो गये थे और समय के साथ दोनो में ही वैशिष्ठता की दमक उभरने लगी थी
जिसे ग्रामीणों ने महसूस किया। जब कारण पूछा गया तो इस आदिमानव ने ग्रामीणों को वह
जगह दिखाई जहाँ से उसे धातु का यह प्रकृति द्वारा गढा गया टुकडा प्राप्त हुआ था। इस
स्थान पर सभी ने पाया कि एक दीमक का टीला है जिसमे कि धातु-द्रव्य प्रवेश कर गया
था और उसने वही आकार ले लिया था। उसी स्थल पर मधुमक्खी का छत्ता भी पाया गया जिससे
मोम, सांचा और धातु को कलात्मकता देने का आरंभिक ज्ञान उन ग्रामीणों को हुआ
होगा। उस आदि-कलाकार ने तब ग्रामीणों से कहा कि मैने इस धातु के टुकडे को अपनी माँ
माना है और इसी तरह इससे प्रेम किया है। तुम भी इस कला और अपने निर्माण को माँ की
तरह ही मानो। कहते हैं कि उस आदिकलाकार ने सबसे पहले अपनी माँ की आकृति बनाने का
यत्न किया और धीरे धीरे वह अपने निकटस्थ परिवेश की वस्तुओं और पशु-पक्षियों को भी
इस कला के माध्यम से मूर्त रूप देने लगा।
जयदेव बघेल के अनुसार उस आदिनामव ने इस
तरह पहले बाघ, भालू, हिरण, कुत्ता, खरगोश, नाग कछुवा, मछली, पक्षी, गाय, बकरा, बंदर आदि बनाये। धीरे धीरे उसने अपनी माँ के रूप में डोकरी माँ की कलाक़ृति
बनाई और कालांतर में डोकरा बाबा के रूप में वह पिता के स्वरूप को गढने लगा। इसी
तरह विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियाँ घडवा कला के रूप में परिवर्तित होती रहीं।
कर्मकोलातादो, मूलकोलातादो, भैरमदेव, भीमादेव, राजारावदेव, दंतेश्वरीदेवी, माता देवी, परदेसीन माता, हिंग्लाजिन देवी, कंकालिन माता आदि की मूर्तियाँ इस कला के विकास के विभिन्न चरणों में
निर्मित की जाने लगी। लाला जगदलपुरी भी अपनी पुस्तक बस्तर इतिहास एवं संस्कृति में
उल्लेखित करते हैं कि बस्तर के घड़वा कला कर्मी पहले कुँडरी, कसाँडी, समई, चिमनी और पैंदिया
तैयार करते थे। अब ये लोग देवी देवता, स्त्री पुरुष, हरिण, हाथी, अकुम आदि बनाते आ रहे हैं।
घडवा कला निर्माण प्रकृया में कई प्रकार
की मिट्टी लगती है जिसमे दीमक की बाबी की मिट्टी की प्रमुख भूमिका होती है। जयदेव
बघेल अपने आलेखों में इस बात को स्पष्ट करते हुए बताते हैं कि मिट्टी के कई प्रकार
इस आकृति निर्माण प्रकृया में लगते हैं जिसमे दीमक (डेंगुर) की बाबी की मिट्टी के
अलावा काली मिट्टी, नदीतट की मिट्टी, रुई-मिट्टी आदि का उपयोग विभिन्न प्रक्रियाओं में किया जाता है। साथ
ही साथ सहायक तत्व के रूप में धान का भूसा तथा रेतीली मिट्टी का भी प्रयोग होता
है। मूर्ति निर्माण की प्रक्रिया के पहले चरण में धान के भूसे को काली मिट्टी के
साथ मिला कर अच्छी तरह गूथ लिया जाता है और फिर इससे ही सांचा तैयार किया जाता है।
अब सांचे की आकृति को धूप में अथवा आग में तपा कर ठोस कर लिया जाता है। इस सांचे
पर गीली मिट्टी की दूसरी परत चढाई जाती है। इस बार मिट्टी के सूखते ही इस सांचे के
स्वरूप की घिसाई खपरे अथवा हंडी (मटके) के टुकडे से की जाती है और इसे चिकना बनाया
जाता है। अगली प्रक्रिया है उन पौधों की पत्तियों से इस आकृति को घिसना जिनको पीसने
पर हरा रंग अधिक मात्रा में निकलता हो। सेम वृक्ष की पत्तियों का विशेषरूप से इस
हेतु प्रयोग किया जाता है। इस प्रकृया के पश्चात तैयार ढांचे को पहले सुखा लिया
जाता है जिसके पश्चात इस आकृति के उपर कलाकार की कल्पना अपना कार्य आरंभ करती है।
मोम की सहायता से इस आकृति के उपर विभिन्न प्रकार की कलात्मक बारीकियों को उभारा
जाता है। वस्तुत: इस पूरी प्रकृया के प्राण इसी समय भरे जाते हैं जब मोम के माध्यम
से बहुत बारीक बारीक आकृतियाँ और स्वरूप उकेरे जाते हैं, विभिन्न प्रकार की
पच्चीकारी की जाती है। इस मिट्टी के स्वरूप का मोम से श्रंगार पूर्ण होते ही छानी
हुई खडिया मिट्टी में कोयले के महीन छाने हुए पावडर या गोबर को मिला कर आकृति के
उपर हलके हाथो से एक लेप चढाया जाता है। इस लेपन की परत के सूख जाने पर पुन: दीमक
की बावी की मिट्टी तथा धान के भूसे को मिला कर एक और लेप कर दिया जाता है। इसी
लेपन के दौरान आकृति के सिरे पर धातु (पीतल अथवा कासा) से ढलाई करने के लिये एक
छेद छोडा जाता है। अब इस पूरी आकृति को आग में पुन: पकाया जाता है। गर्मी पाते ही
सांचे पर लगाया गया मोम उतने ही क्षेत्र में एक रिक्ति अथवा खोखलापन बनाता हुआ
वाष्पित हो जाता है। अब पहले से ही छोडे गये छिद्र के माध्यम से पिघली हुई धातु का
प्रवेश कराया जाता है। यह धातु उन सभी रिक्त स्थानो में जा कर बैठ जाती है जो कि
मोम के पिघल जाने से निर्मित हुई हैं। अर्थात जिस कलात्मकता का निर्माण मोम के
माध्यम से कलाकार ने किया वही अब धातु की बन कर तैयार हो जाती है। अब इसे ठोस होने
के लिये छोड दिया जाता है। बाद में धीरे धीरे मिट्टी को तोड कर अलग कर लिया जाता
है और धातु की कलात्मक प्रतिमा अपना आकार ले लेती है। अद्भुत है यह कला...और
अद्भुत है कास्य युग को निहारना, इतिहास को पक कर आकार लेते देखना।
जयदेव बघेल ने इस साधना को जब अपना
व्यवसाय बनाना चाहा तब उन्होंने अपने पिता की एक शिष्या मीरा मुखर्जी से मिलना
सुनिश्चित किया। मीरा मुखर्जी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कलाकार थी तथा उन्होंने घडवा
कला में कोण्डागाँव मे रह कर प्रशिक्षण प्राप्त किया था। मीरा मुखर्जी के सहयोग से
जयदेव बघेल ने पहलेपहल कोलकाता के एक डिजाईन सेंटर मे अपनी कला की प्रदर्शनी लगायी
गयी। यह तो बस आरम्भ था जिसके पश्चात से उन्हें राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर
पर पहचान भी मिलने लगी। वर्ष 1976 में उन्हें मध्यप्रदेश राज्य से सम्मान प्राप्त
हुआ, इसके अगले वर्ष अर्थात वर्ष 1977 में उन्हें इस कला की साधना के लिये
राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया था। वर्ष 1978 मे जयदेव बघेल के अपनी कलाकृतियों की
प्रदर्शनी मास्को मे आयोजित की जहाँ उनकी भूरी भूरी प्रसंशा की गयी तथा व्यवसाय की
दृष्टि से भी अंतर्राष्ट्रीय मंच प्राप्त हुआ। इसके पश्चात तो जयदेव बघेल ग्लोबल
हो गये एवं उन्होंने स्कॉटलैण्ड, इटली, जापान, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, हॉगकॉग,
सिंगापुर, बैंकाक आदि में घडवा शिल्प की अनेक सफल प्रदर्शनियाँ लगायीं। इन कार्यों
का ही प्रतिफल था कि वर्ष 1982 में उन्हें प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी के
हाथो शिखर सम्मान प्राप्त हुआ। इसी वर्ष लंदन में आयोजित हुए भारत उत्सव में उन्हे
सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ। जयदेव बघेल बहुधा याद करते थे कि उस समय
आयोजित प्रदर्शनी मे प्रसिद्ध मूर्तिकार हेनरी मर भी आये हुए थे। उन्होंने न केवल
जयदेव बघेल को लंच पर आमंत्रित किया अपितु उनके कार्यो की सराहना भी की। मूर्तिकार
हेनरी मर विशालकाय धातु प्रतिमायें बनाते थे। उनकी एक राजा-रानी की प्रतिमा जयदेव
बघेल को प्रदर्शनी मे देखने को मिली जो बिलकुल बस्तर शैली की थी।
हर कलाकार की यह हार्दिक इच्छा होती है कि
वह मुम्बई के जहाँगीर आर्ट गैलरी मे अपंजे कार्यों की एकल प्रदर्शनी लगा सके।
22-28 जुलाई 1996 तक उन्होंने अपने इस सपने को सच किया और बस्तर को गौरव प्रदान
किया। जयदेव बघेल लगातार काम करते रहे और लगभग पाँच दशक तक वे बस्तर की ढोकरा कला
का एकमेव चेहरा बने रहे। वे निरंतर प्रदर्शनियाँ आयोजित करते रहे, नयी पीढी के
लिये प्रशिक्षण शिविर लगाते रहे और देश विदेश के नियमित अंतराल पर दौरे भी करते
रहे। उन्हें देश विदेश से अनेक पुरस्कार तथा सम्मान प्राप्त हुए साथ ही साथ पंडित
रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय से उन्हें मानद डी.लिट की उपाधि प्राप्त हुई थी। कला
का यह सिपाही धीरे धीरे व्याधियों और समय के हाथों बाध्य हो गया। मधुमेह की बीमारी
के कारन उनका एक पैर भी काटना पडा था। इन दिनो भी वे लम्बे समय से अस्वस्थ चल रहे
थे तथा डायलिसिस पर थे। 9 नवम्बर 2014 की सुबह 4.00 बजे घड़वा शिल्प के इस महान कलाकार ने रायपुर के रामकृष्ण केयर अस्पताल
में अन्तिम साँसें लीं।
कुछ लोग कभी भुलाये नहीं जा सकते, कुछ
कार्य कभी नहीं मिटते। पिछले दिनों मुम्बई के ताज होटल में हुए आतंकवादी हमले के
बावजूद वहाँ जो बचा रहा उसमे से एक जयदेव बघेल की निर्मित कलाकृति भी थी। आज
आतंकवाद से त्रस्त बस्तर में अस्त व्यस्त होते समाज को जब अपनी पहचान की पुन: आवश्यकता होगी तो यकीनन उसे जयदेव
बघेल की मूर्तियाँ मौजूद मिलेंगी। कला कभी कोई युग अस्त नहीं होने देती, और कलाकार
कभी मरते नहीं। जयदेव बघेल को विनम्र श्रद्धांजलि।
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1 टिप्पणियाँ
बिलकुल सहीबात है...कभी मर नहीं सकते जयदेव बघेल
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