मैंने पटना से एक मित्र के
साथ मोटरसाईकल पर ही बोधगया के लिये यात्रा प्रारंभ की थी और लगभग 115 किलोमीटर के
इस मार्ग पर ग्रामीण जीवन, खेत-खलिहानों, अंतहीन मैदानों ने बीच कहीं कहीं दिखाई
पडते अपर्दित पर्वतों के नयनाभिराम दृश्यों से अभिभूत होता रहा। रास्ते की सड़कें
अच्छी हैं तथापि ट्रैफिक की समस्या वहाँ-वहाँ अवश्य हैं जहाँ आप किसी नगर में
प्रविष्ठ होते हैं। महाबोधि मंदिर तथा आसपास का क्षेत्र वर्ष 2002 में विश्व
विरासत स्थल घोषित हुआ था जिसके बाद से देशी विदेशी पर्यटकों की आमद बढी है तथापि
बोध गया नगर में देसजपना अधिक है। बाजार भी अपनी ठसक के साथ घुस गया है और चमचमाते
मँहंगे होटल यत्र तत्र दिखाई भी पडते हैं।
मंदिर में प्रविष्ठ होने के
लिये आपके कैमरों को शुल्क देना होगा; आपकी प्रविष्टि नि:शुल्क है। यहाँ मैने गाईड
साथ लिया जिनका नाम था जवाहर सिंह। लेन देन की व्यावसायिक व्यवहारिकता के साथ
जवाहर सिंह जी से मेरी बातचीत आरंभ हुई थी। उन्होंने बताया कि वज्रासन, बोधिवृक्ष,
अजपाल निग्रोध, पंच पाण्डव मंदिर, बोधि स्तंभ, तथा मूलचंद सरोवर जैसे स्थल न केवल
दर्शनीय हैं अपितु भगवान बुद्ध के चरणरज से पावन भी हो गये हैं। लगभग 60 वर्गफीट
क्षेत्र में मंदिर का निचला तल विस्तृत है जबकि महाबोधि मंदिर दुमंजिला
स्तूप-पिरामिडाकार मिश्रित संरचना है जिसकी उँचाई लगभग 180 फीट की है। उपर की
मंजिल पर उपासना गृह है। तल से ले कर शीर्ष तक मंदिर के निर्माण के विभिन्न चरणों
में सम्राट अशोक से ले कर पाल युग तक के निर्माण का वैभव और खिलजी के विद्ध्वंस की
नृशंसता का इतिहास भी सम्मिलित है। पूर्व की ओर दक्षिण भारतीय शैली में बना बौद्ध
परंपरा का तोरण है। इसकी दीवारों पर अलग-अगल मुद्राओं
में बुद्ध, कमल,
पक्षी
और अन्य प्राणियों सहित जातक कथाएं अंकित है। चार शिखर चारों कोनों में स्थित है। इस मंदिर में प्राचीन हिन्दू स्थापत्य के नमूने मिलते हैं।
कुछ विद्वानों के मतानुसार इस मंदिर के निर्माण की सबसे पहली संकल्पना शुंग राजाओं
के समय की है अर्थात लगभग 148 से 172 ईसा पूर्व के मध्य। पुरावशेष बहुत स्पष्टता
से अब भी कुछ नहीं कहते और प्रचलित मान्यता के अनुसार सम्राट अशोक नें यहाँ
निर्माण/पुनर्निर्माण ईसापूर्व 289 में करवाया था। प्रस्तर शिलाओं को गौर से देखने
पर मौर्ययुगीन जीवन शैली, पहनावों आदि की झलख देखने को मिलती है। मंदिर परिसर में
प्राचीन मनौती स्तूपों की भरमार है जो प्राचीन काल से ही यहाँ उपस्थित बौद्ध आस्था
का प्रतीक हैं। चीनी यात्री ह्यूयेनसांग नें अपने यात्रा विवरण में भी इस मंदिर की
भव्यता का जिक्र किया है। मष्तिष्क-हीन आक्रांता बख्तियार खिलजी
के आक्रमण के पश्चात बौद्ध विरासतें नष्ट की जाने लगीं। इस मंदिर का भी उपरी
हिस्सा तोडा गया था व कालांतर में भय से उपजी उपेक्षा से इस भवन पर मिट्टी की मोटी
परत चढ गयी थी। अंग्रेज शासन के दौरान वर्ष 1877 से इन मंदिर का पता चलने के
पश्चात से पुनरुद्धार आरंभ हुआ तथा इसे आज की दर्शनीय स्थिति तक पहुँचाया गया।
जवाहर सिंह जी नें बताया कि
इस स्थल से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर मुचलिण्ड नाम का सरोवर है। भगवान बुद्ध
नें बोधिप्राप्ति के पश्चात छठा सप्ताह इसी सरोवर के निकट मुचलिंद नाम के एक वृक्ष
के नीचे बिताया था। ऐसी मान्यता है कि सर्पराज मुचलिण्ड अपने फन फैला कर धूप, वर्षा, आंधी से ध्यान मग्न भगवान बुद्ध की
रक्षा करते थे। इसी तालाब के किनारे मगध विश्वविद्यालय
का किसी काल में निर्माण किया गया था जिसकी ख्याति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर थी
किंतु वह अब नष्ट हो गया है। इस तालाब के निकट ही अशोक द्वारा स्थापित एक गजस्तंभ
दर्शनीय है। यद्यपि इसके उपर का हिस्सा खण्डित हो गया है। भगवान बुद्ध नें बोधगया
में ज्ञानप्राप्ति के पश्चात का सातवा तथा अंतिम सप्ताह राजायतन वृक्ष के नीचे
गुजारा था; अब यह वृक्ष नष्ट हो गया है तथा उसके स्थान पर बर्मा से उसी का वंशज
वृक्ष लगभग आठ दशक पहले ला कर आरोपित किया गया है। यही वह स्थल है जहाँ भगवान
बुद्ध को प्राप्त ज्ञान का लाभ सर्वप्रथम ओडिशा के तपस्सु एवं मल्लिक नाम दो समाज
में निकृष्ट समझे जाने वाले बंजारों को धर्मोपदेश के रूप में प्राप्त हुआ था तथा
यही दोनो बुद्ध के प्रथमानुयायी बने थे।
इस समय हम जिस स्थल पर खडे थे
वहाँ सौन्दर्यीकरण का कार्य चल रहा था। “आपके मतलब की जानकारी नहीं है लेकिन बता
देते हैं, इसी जगह पर हमारा पुश्तैनी मकान हुआ करता था।“ जवाहर सिंह जी ने बताया।
यह बताते हुए उनकी आखों में जमीन से अपनत्व का बोध साफ साफ झांक रहा था। “आप लोगों
को यहाँ से हटाया गया?” मैंने बहुत सामान्य प्रश्न किया, अभी भी विषय की गंभीरता
मैं नहीं समझ सका था। “इस जगह पर पुराना तारीडीह गाँव है सर!! हमें जिस वीरान जगह में बसाया गया था उसे हम अब नया तारीडीह कहते
हैं।“ जवाहर सिंह जी नें बताया। उनसे यह भी जानकारी मिली की ब्रिटिश युग मे
पुरातत्व विभाग के सक्रिय होने के साथ साथ विस्थापन का एक दौर चला तब मुख्य मंदिर
भवन तथा आसपास के क्षेत्र से मिट्टी की परत हटा कर अतीत को बाहर निकाला गया था।
खुदाई तथा जानकारी एकत्रीकरण का यह दौर आजादी के बाद भी जारी रहा साथ ही साथ दुनिया
भर के बौद्ध धर्मावलंबियों, इतिहास के जानकारों और पर्यटकों को दृष्टिगत रखते हुए
इस स्थल के आसपास की और भूमि की आवश्यकता महसूस हुई। विस्थापन के दो दौर चले
जिसमें पहला लगभग 1958 के आसपास सम्पन्न हुआ और दूसरा 1980 में किया गया। अभी लगभग
दो सौ परिवार और भी हैं जिन्हें विस्थापित किया जाना है लेकिन नयी तारीडीह में अब
जगह नहीं है संभवत: किसी अन्य स्थल की पहचान इन्हें विस्थापित करने के पश्चात
बसाने के लिये की जायेगी। इन जानकारियों के साथ मेरे मन में कई प्रश्नो ने हमला कर
दिया। कभी एक गाँव था, जिसे पता नहीं था कि उसके नीचे बुद्ध की विरासत नें समाधि
ली हुई है। इसमें किसी विवाद की आवश्यकता ही नहीं कि एसी विरासतो को जमीन से बाहर
लाने की हर संभव कोशिश होनी चाहिये। नालंदा और उसके असपास की खुदाई भी बसाहटों के
कारण ही स्थगित है। पूरी जिम्मेदारी के आथ कहना चाहता हूँ कि हम वह इतिहास जानते
और पढते हैं जो दस प्रतिशत ही हमारे सामने आ सका है। कुछ शिलालेख, कुछ इमारतें
मात्र और कुछ बिखरे हुए ताम्रपत्र या जनश्रुतियाँ जोड कर भानुमति बन गयी आप इस
कुमबे से जोड लीजिये अतीत। पुरातत्व के ज्यादातर काम सुस्त और कछुआ चाल हैं साथ ही
मौलिक शोध का भारत में अब अभाव होता जा रहा है। ये कथन तारीडीह विस्थापन के कारणों
को जायज बनाते हैं लेकिन परत के भीतर मिट्टी में दबी हुई कई कहानियाँ जो जवाहर
सिंह जी नें बताई वह भी सिहरन भरती हैं। विस्थापन के लिये भूमि की जो कीमत 1958
में तय की गयी थी उसी दर पर 1980 में भी गाँव खाली कराये गये। एक व्यक्ति को कुल
राशि प्राप्त हुई चालीस रुपये मात्र। उसने अदालत में माननीय न्यायाधीश से यह राशि
भी न देने की गुहार लगायी। जवाहर जी का कहना था कि मैं आवाक रह गया था क्योंकि चार
कट्ठा जमीन के बदले मुझे लगभग दो कट्ठा जमीन वीराने में दी गयी थी और हाँथ में कुल
क्षतिपूर्ति राशि थी रुपये पाँच हजार नौ सो नब्बे। कहानी यहाँ अत नहीं होती बल्कि
आरंभ होती है। नयी तारीडीह मुख्य नगर से कुछ दूर थी और बुनियादी सुविधायें नहीं के
बराबर। “बरसात होता था तो घुटना भर कीचड में घर जाना पडता था। जवाहर सिंह जी नें
अपनी स्मृतियों को पैना किया। यहाँ जवाहर सिंह जी के सवाल को नयी तारीडीह से बाहर
लाना चाहिये और विस्थापन के मायनों पर गंभीर चर्चा की जानी चाहिये। वस्तुत: विकास
के मायनों में विस्थापन के सवाल हमेशा अनुत्तरित क्यों रह जाते हैं? मैंने रविवार
डॉट कॉम पर मेधा पाटेकर जी का एक साक्षात्कार पढा था जिसमें प्रश्न था कि क्या आप
हारी हुई लडाई लड रही हैं? आज मुझे उनके लिये एक नया प्रश्न मिला है कि उनकी
वास्तविक लडाई नें आखिर रास्ता कब, कैसे और क्यों बदल लिया? मेधा जी का इस मायनें
में मैं गहरा सम्मान करता हूँ कि उनके कारण
ही
पुनर्स्थापन और पुनर्वास को राष्ट्रीय नीति के स्वरूप में बाहर आना पडा। मेधा जी
आपने इस लडाई को अधूरा छोड दिया है अब आपके स्वर ज़िन्दाबाद और मुर्दाबाद पर
केन्द्रित हो गये हैं लेकिन विस्थापितों पर कुछ ठोस और समग्र तथा वैज्ञानिक
निष्कर्ष बाहर नहीं आ पाया है। हमारे देश के समाजशास्त्री किसी समाधान की तलाश के
लिये सरकारों का मुँह क्यों ताकते रहते हैं कुछ ठोस प्रस्ताव या विचार ले कर स्वत:
सामने क्यों नहीं आते जिसपर राष्ट्रीय बहस हो तथा व्यापक सहमति पर पहुँचा जा सके।
विस्थापन केवल भावनात्मक
मुद्दा नहीं है अपितु यह वैज्ञानिक समस्या है। इसको समझने के लिये नयी तारीडीह की
कहानी में ही आगे बढते हैं। “अपने गाँव ले चलेंगे जवाहर जी?” मैंने इच्छा व्यक्त
की और वे तैयार हो गये। बाईक में ही तीन सवारी हम नयी तारीडीह पहुँचे। “अब बहुत
बदल गया है गाँव, सब सुविधा है। अब तो जमीन का रेट भी दस लाख रुपिया कट्ठा हो गया
है, यह सब मंदिर के कारण है। अब वह तकलीफ नहीं होती जो तब थी जब अपना घर छोडना पडा
था। बहुत सारे पर्यटक आते हैं, बहुत से देशों से लोग आते हैं और सबने मिल कर जमीन
के दाम रातो रात बढा दिये हैं। मंदिर के कारण ही बच्चों को नही रास्ता मिला है, हम
भी मंदिर के कारण ही अपने बाल-बच्चों को ठीक से पाल सके। गाईड बनने का प्रशिक्षण
लिया फिर हम मंदिर के आसरे हो गये।“ जवाहर जी अपनी रौ में बोल रहे थे और मैं उस
व्यक्ति की बूढी आँखों को गौर से देख रहा था जिसनें रोजगार, विस्थापन और विकास के
कई मायनों पर अपने संवादों ही संवादों में बहुत सी बाते की थी। अपने कच्चे मकान
में रस्सी की बुनी खटिया पर बिठा कर उन्होंने चाय पिलाई और मुर्रा, नमक और प्याज
कडुवा तेल में सान कर सामने परोस दिया। मेरे दिमाग में इस समय यही चल रहा था कि
क्या आवश्यक विस्थापन के लिये अधिक संवेदनशील प्रक्रिया नहीं बनायी जा सकती? क्या
जिन्दाबाद और मुर्दाबाद के शोर को थामने के लिये कानों में रूई ठूस कर हम किसी
अमर्त्य सेन से अनुरोध नहीं कर सकते कि हमारे समाज के अर्थशास्त्र पर एसा कोई
व्यवहारिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करें जिसे थाम कर कोई स्वर अथवा आन्दोलन आगे बढे जो
कहे कि यह रहा समाधान। बात तो केवल चर्चा आगे बढाने के लिये है इसलिये जो पहलू
सामने आये उनके शब्द चित्र ही खीच रहा हूँ।
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1 टिप्पणियाँ
acha aalekh... badhaiye
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