बहुत कुछ है जो
नहीं दिखता दिल्ली से
28 मार्च, 1968 को पटना में जन्मे सुशान्त सुप्रिय वर्तमान में दिल्ली में संसदीय सचिवालय में कार्यरत हैं। आपके अब तक दो कथा-संग्रह ('हत्यारे' तथा 'हे राम'), एक हिन्दी काव्य-संग्रह 'एक बूँद यह भी' और एक अंग्रेजी काव्य-संग्रह 'इन गाँधीज़ कंट्री' प्रकाशित हो चुके हैं। अनुवाद की एक पुस्तक 'विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ' और अंग्रेज़ी कथा-संग्रह 'द फ़िफ़्थ डायरेक्शन' प्रकाशनाधीन है।
आपकी कई कहानियाँ तथा कविताएँ पुरस्कृत तथा अंग्रेज़ी, उर्दू, असमिया, उड़िया, पंजाबी, मराठी, कन्नड़ व मलयालम में अनूदित व प्रकाशित हो चुकी हैं। पिछले बीस वर्षों में आपकी अनेक रचनाएँ देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं।
मेरी कविता "इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं" पूना वि.वि. के बी.ए.(द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में शामिल है व दो कहानियाँ "पिता के नाम" तथा "एक हिला हुआ आदमी" हिन्दी के पाठ्यक्रम के तहत कई राज्यों के स्कूलों में क्रमश: कक्षा सात और कक्षा नौ में पढ़ाई जा रही हैं। आगरा वि.वि., कुरुक्षेत्र वि.वि. तथा गुरु नानक देव वि.वि., अमृतसर के हिंदी विभागों में आपकी कहानियों पर शोधार्थियों ने शोध-कार्य भी किया है।
'हंस' में 2008 में प्रकाशित आपकी कहानी "मेरा जुर्म क्या है?" पर short film बनी है तथा आकाशवाणी, दिल्ली से कई बार आपकी कविताओं और कहानियों का प्रसारण हुआ है।
आपकी कई कहानियाँ तथा कविताएँ पुरस्कृत तथा अंग्रेज़ी, उर्दू, असमिया, उड़िया, पंजाबी, मराठी, कन्नड़ व मलयालम में अनूदित व प्रकाशित हो चुकी हैं। पिछले बीस वर्षों में आपकी अनेक रचनाएँ देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं।
मेरी कविता "इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं" पूना वि.वि. के बी.ए.(द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में शामिल है व दो कहानियाँ "पिता के नाम" तथा "एक हिला हुआ आदमी" हिन्दी के पाठ्यक्रम के तहत कई राज्यों के स्कूलों में क्रमश: कक्षा सात और कक्षा नौ में पढ़ाई जा रही हैं। आगरा वि.वि., कुरुक्षेत्र वि.वि. तथा गुरु नानक देव वि.वि., अमृतसर के हिंदी विभागों में आपकी कहानियों पर शोधार्थियों ने शोध-कार्य भी किया है।
'हंस' में 2008 में प्रकाशित आपकी कहानी "मेरा जुर्म क्या है?" पर short film बनी है तथा आकाशवाणी, दिल्ली से कई बार आपकी कविताओं और कहानियों का प्रसारण हुआ है।
आकाश को नीलाभ कर रहे पक्षी और
पानी को नम बना रही मछलियाँ
नहीं दिखती हैं दिल्ली से
विलुप्त हो रहे विश्वास
चेहरों से मिटती मुस्कानें
दुखों के सैलाब और
उम्मीदों की टूटती उल्काएँ
नहीं दिखती हैं दिल्ली से
राष्ट्रपति भवन के प्रांगण
संसद भवन के गलियारों और
मंत्रालयों की खिड़कियों से
कहाँ दिखता है सारा देश
मज़दूरों-किसानों के
भीतर भरा कोयला और
माचिस की तीली से
जीवन बुझाते उनके हाथ
नहीं दिखते हैं दिल्ली से
मगरमच्छ के आँसू ज़रूर हैं यहाँ
किंतु लुटियन का टीला
ओझल कर देता है आँखों से
श्रम का ख़ून-पसीना और
वास्तविक ग़रीबों का मरना-जीना
चीख़ती हुई चिड़ियाँ
नुचे हुए पंख
टूटी हुई चूड़ियाँ और
काँपता हुआ अँधेरा
नहीं दिखते हैं दिल्ली से
दिल्ली से दिखने के लिए
या तो मुँह में जयजयकार होनी चाहिए
या फिर आत्मा में धार होनी चाहिए
1 टिप्पणियाँ
अच्छी कविता...बधाई
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.