किसे खिड़की से बाहर देखना अच्छा नहीं लगता
मुझे उसका बराबर टोकना अच्छा नहीं लगता
मुझे उसका बराबर टोकना अच्छा नहीं लगता
द्विजेन्द्र ‘द्विज’ का जन्म 10 अक्तूबर,1962 को हुआ। आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं : जन-गण-मन (ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशन वर्ष-२००३। आपकी ग़ज़लें अनेक महत्वपूर्ण संकलनों का भी हिस्सा हैं।
आप की ग़ज़लें देश की सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित व आकाशवाणी से प्रसारित होती रही हैं। आप अंतर्जाल पर भी सक्रिय हैं।
आप की ग़ज़लें देश की सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित व आकाशवाणी से प्रसारित होती रही हैं। आप अंतर्जाल पर भी सक्रिय हैं।
किसे सपनों के झूले झूलना अच्छा नहीं लगता
मगर उनका अचानक टूटना अच्छा नहीं लगता
हक़ीक़त ही हमें अक्सर ज़मीं पर खींच लाती है
किसे ऊँची हवा में तैरना अच्छा नहीं लगता
कोई तो है जो अन्दर से हमें आवाज़ देता है
मगर अब अपने अन्दर झाँकना अच्छा नहीं लगता
कोई शय है बँधी रहती है जिससे डोर साँसों की
पतंगों का अचानक छूटना अच्छा नहीं लगता
इन्हीं से तुम उजाले को अँधेरे में बदलते हो
इन्हीं हाथों से मनके फेरना अच्छा नहीं लगता
बुलंदी भी इसी ने जब अता की है तुम्हें फिर क्यों
इसी सीढ़ी को मुड़ कर देखना अच्छा नहीं लगता
तुम्हारे ही चमन का इक परिंदा हूँ मगर यारो
तुम्हें मेरा कभी पर तोलना अच्छा नहीं लगता
न जाने एक मुद्दत से हूँ मैं नाराज़ क्यों ख़ुद से
मुझे मेरा मुझी से सामना अच्छा नहीं लगता
जज़ीरों में जिन्हें अपनी अना के क़ैद रहना है
उन्हें औरों को लेकर सोचना अच्छा नहीं लगता
वो जिसने आपको एहसास की दुनिया दिखाई हो
उसी के दिल से जाकर खेलना अच्छा नहीं लगता
मसाइल हैं जिन्हें बस आज सुलझाना ज़रूरी है
हर इक मुद्दे को कल पर टालना अच्छा नहीं लगता
ज़रूरी है निकल कर घर से मंज़िल पर पहुँचना भी
सफ़र के बीच थक कर बैठना अच्छा नहीं लगता
सिखाया था जिसे बचपन में लब भी खोलना मैंने
उसे मुझसे ही सुनना-बोलना अच्छा नहीं लगता।
बहुत मक़बूल हैं जम्हूरियत पर उनकी तक़रीरें
मगर उनको मेरा लब खोलना अच्छा नहीं लगता
रखा है आपको अब तक हरा उसके ही साये ने
अब ऐसे पेड़ को ही काटना अच्छा नहीं लगता
चलो मिल कर उजालों की नई फ़सलें उगाते हैं
अँधेरे में अकेले बैठना अच्छा नहीं लगता
जमी है जिनके चेहरों पर कड़ी मेहनत की धूल ऐ 'द्विज'
उन्हें तेरा सियासी आइना अच्छा नहीं लगता।
2 टिप्पणियाँ
रखा है आपको अब तक हरा उसके ही साये ने
जवाब देंहटाएंअब ऐसे पेड़ को ही काटना अच्छा नहीं लगता॥
चलो मिल कर उजालों की नई फ़सलें उगाते हैं
अँधेरे में अकेले बैठना अच्छा नहीं लगता॥
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल! द्विजेन्द्र जी को पढ़ना हमेशा ही एक सुखद अनुभव होता है। प्रस्तुत ग़ज़ल भी इसका अपवाद नहीं है।
अच्छी गज़ल बधाई...
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.