राजकाज के प्रशासनिक कार्यों में हिन्दी का प्रयोग होता रहा है। राम बाबू शर्मा के अनुसार यह प्रयोग बारहवीं सदी से होता रहा है।
(बारहवीं सदी से राजकाज में हिन्दी, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, (1980)
राजभाषा हिन्दी में हिन्दी भाषा-क्षेत्र की जिस खड़ीबोली को भारतीय संविधान द्वारा स्वतंत्रता के बाद प्रशासनिक महत्त्व मिला है, उसे लगभग प्रायः छह सौ वर्ष पूर्व दक्षिण में यह महत्त्व प्राप्त हो चुका था। प्रशासनिक हिन्दी के सम्बंध में मेरे निर्देशन में मोतीलाल चतुर्वेदी ने “रेलवे विभाग में प्रयुक्त प्रशासनिक हिन्दी का शब्दकोशीय एवं व्याकरणिक अध्ययन” विषय पर जबलपुर के विश्वविद्यालय की पी.एच.डी. उपाधि के लिए शोध कार्य किया। उनके शोध-प्रबंध के एक अध्याय का शीर्षक है - ´स्वतंत्रतापूर्व भारत में प्रशासनिक हिन्दी'।
(बारहवीं सदी से राजकाज में हिन्दी, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, (1980)
राजभाषा हिन्दी में हिन्दी भाषा-क्षेत्र की जिस खड़ीबोली को भारतीय संविधान द्वारा स्वतंत्रता के बाद प्रशासनिक महत्त्व मिला है, उसे लगभग प्रायः छह सौ वर्ष पूर्व दक्षिण में यह महत्त्व प्राप्त हो चुका था। प्रशासनिक हिन्दी के सम्बंध में मेरे निर्देशन में मोतीलाल चतुर्वेदी ने “रेलवे विभाग में प्रयुक्त प्रशासनिक हिन्दी का शब्दकोशीय एवं व्याकरणिक अध्ययन” विषय पर जबलपुर के विश्वविद्यालय की पी.एच.डी. उपाधि के लिए शोध कार्य किया। उनके शोध-प्रबंध के एक अध्याय का शीर्षक है - ´स्वतंत्रतापूर्व भारत में प्रशासनिक हिन्दी'।
प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक, रोमानिया के बुकारेस्त विश्वविद्यालय के विजिटिंग प्रोफेसर (हिन्दी) तथा जबलपुर के विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी एवं भाषा-विज्ञान विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष के रूप में हिन्दी के अध्ययन, अध्यापन एवं अनुसंधान के क्षेत्रों में भारत एवं विश्व के स्तर पर कार्य किया है।
आपने 45 से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया है जिनमें हिन्दी भाषा एवं भाषा विज्ञान से सम्बन्धित ग्रंथों के अतिरिक्त एक निबन्ध संकलन “विचार, दृष्टिकोण एवं संकेत”, “सूरदास एवं सूर सागर की भाव योजना”, “विश्व शान्ति एवं अहिंसा”, “विश्व चेतना तथा सर्वधर्म समभाव” तथा “भगवान महावीर एवं जैन दर्शन” आदि ग्रंथ सम्मिलित हैं।
प्रो० जैन विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। इनमें भारतीय संस्कृति संस्थान, विभिन्न राज्यों की हिन्दी समितियों एवं विश्व हिन्दी न्यास (अमेरिका) के नाम उल्लेखनीय हैं। प्रोफेसर जैन को द अमेरिकन बॉयोग्राफिकल इंस्टीट्यूट द्वारा 'International Cultural diploma of Honor’ से, डॉ भीमराव अम्बेदकर विश्वविद्यालय, आगरा द्वारा भाषा एवं संस्कृति के क्षेत्र में योगदान के लिए आगरा में 'ब्रज विभूति सम्मान' से तथा भारतीय राजदूतावास, बुकारेस्त (रोमानिया) द्वारा बुकारेस्त विश्वविद्यालय में हिन्दी शिक्षण में योगदान के लिए 'स्वर्ण-पदक' से अलंकृत किया गया है।
आपने 45 से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया है जिनमें हिन्दी भाषा एवं भाषा विज्ञान से सम्बन्धित ग्रंथों के अतिरिक्त एक निबन्ध संकलन “विचार, दृष्टिकोण एवं संकेत”, “सूरदास एवं सूर सागर की भाव योजना”, “विश्व शान्ति एवं अहिंसा”, “विश्व चेतना तथा सर्वधर्म समभाव” तथा “भगवान महावीर एवं जैन दर्शन” आदि ग्रंथ सम्मिलित हैं।
प्रो० जैन विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। इनमें भारतीय संस्कृति संस्थान, विभिन्न राज्यों की हिन्दी समितियों एवं विश्व हिन्दी न्यास (अमेरिका) के नाम उल्लेखनीय हैं। प्रोफेसर जैन को द अमेरिकन बॉयोग्राफिकल इंस्टीट्यूट द्वारा 'International Cultural diploma of Honor’ से, डॉ भीमराव अम्बेदकर विश्वविद्यालय, आगरा द्वारा भाषा एवं संस्कृति के क्षेत्र में योगदान के लिए आगरा में 'ब्रज विभूति सम्मान' से तथा भारतीय राजदूतावास, बुकारेस्त (रोमानिया) द्वारा बुकारेस्त विश्वविद्यालय में हिन्दी शिक्षण में योगदान के लिए 'स्वर्ण-पदक' से अलंकृत किया गया है।
–“राजा बलवंत सिंह कालेज के हिन्दी अध्यापक डॉ. श्री मोहन द्विवेदी की देखरेख में महेश चन्द्र गुप्त ´राजस्थान के प्रशासनिक कार्यों में हिन्दी का प्रयोग' विषय पर शोध कार्य कर रहे हैं। उन्होंने सन् 1857 के पहले के और उसके बाद के भी काफी दस्तावेज़ इकट्ठे किए हैं। इन दस्तावेज़ों में वे पत्र हैं जो अंग्रेजों ने राजाओं को लिखे, राजाओं ने अंग्रेजों को लिखे; साथ ही ऐसे पत्र हैं जोराजाओं ने एक दूसरे को लिखे। यदि राजस्थान में 19 वीं सदी में हिन्दी राजभाषा के रूप में काम आती थी और उसका व्यवहार हिन्दुस्तान के लोग हीं नहीं अंग्रेजभी करते थे तो कोई कारण नहीं कि 20 वीं सदी के अन्तिम चरण में अंग्रेजी प्रेमी भारतवासी अपना अंग्रेजी मोह त्यागकर हिन्दी का उपयोग न कर सकें´। (भारत की भाषा समस्या, पृष्ठ 13, तीसरा संस्करण, राजकामल प्रकाशन (2003)
संविधान सभा में राजभाषा हिन्दी का मामला 14 जुलाई, 1947 के पहले ही सुलझ गया था। 14 जुलाई के पहले संविधान सभा में बहस का मुद्दा यह नहीं था कि देश की राजभाषा हिन्दी हो अथवा अंग्रेजी हो। बहस का मुद्दा यह था कि राजषाषा हिन्दी हो अथवा हिन्दुस्तानी हो। इसको विस्तार से समझने की जरूरत है। सन् 1928 में भारत को स्वतंत्र कराने वाली पार्टियों(जिसमें कांग्रेस और मुस्लिम लीग शामिल थीं) का स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए सम्मेलन हुआ। इसमें पंडित मोती लाल नेहरू की अध्यक्षता में तैयार रिपोर्ट में देश की सर्वमान्य भाषा ´हिन्दुस्तानी'मानी गई (रिपोर्ट, पृष्ठ 165-166)। सन् 1937 में प्रांतीय सरकार बनने पर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा - ´हर प्रांत की सरकारी भाषा राज्य के कामकाज के लिए उस प्रांत की भाषा होनी चाहिए। परन्तु हर जगह अखिल भारतीय भाषा होने के नाते 'हिन्दुस्तानी' को सरकारी तौर पर माना जाना चाहिए। अखिल भारतीय भाषा कोई हो सकती है तो वह सिर्फ हिन्दी या हिन्दुस्तानी कुछ भी कह लीजिए – ही हो सकती है'। (पंडित जवाहर लाल नेहरू - राष्ट्रभाषा का सवाल, पृष्ठ 23 एवं पृष्ठ 33, अहमदाबाद (1949)।
सन् 1946 में संविधान सभा गठित हुई तथा इसकी पहली बैठक दिनांक 9 दिसम्बर, 1946 को हुई तथा दिनांक 11 दिसम्बर, 1946 की बैठक में राजेन्द्र प्रसाद इसके अध्यक्ष चुने गए। दिनांक 14 जुलाई,1947 की संविधान सभा के सत्र में यह प्रस्ताव आया कि ´हिन्दुस्तानी' के स्थान पर ´हिन्दी´ को देश की सर्वमान्य भाषा माना जाए। इस मुद्दे पर विचार करने के लिए संविधान सभा के कांग्रेस पार्टी के सदस्यों की बैठक बुलाई गई। इस मुद्दे पर विचार विमर्श हुआ। कुछ सदस्यों ने हिन्दी के पक्ष में तथा कुछ सदस्यों ने हिन्दुस्तानी के पक्ष में अपने विचार व्यक्त किए। हिन्दी के पक्ष में सबसे अकाट्य दलीलें पुरुषोत्तम दास टंडन, सेठ गोविन्द दास, डॉ. रघुवीर तथा दक्षिण भारत के अधिकांश सदस्यों की थीं।
अब्दुल कलाम आजाद आदि ने हिन्दुस्तानी के पक्ष में दलीलें दीँ। इस मुद्दे पर जब सहमति नहीं बनी तब मतदान का निर्णय लिया गया। मतदान में हिन्दी के पक्ष में 63 मत पड़े तथा हिन्दुस्तानी के पक्ष में 32 मत पड़े। हिन्दी की लिपि के मुद्दे पर भी बहस हुई। कुछ सदस्यों ने अरबी-फारसी तथा कुछ सदस्यों ने रोमन लिपि को अपनाने के सम्बंध में दलीलें पेश कीं। इस मुद्दे पर अधिकांश सदस्य देवनागरी लिपि को अपनाने के पक्ष में थे। इस पर भी मतदान कराया गया। मतदान में देवनागरी लिपि के पक्ष में 63 तथा रोमन लिपि के पक्ष में केवल 18 मत पड़े। इस प्रकार भारत के स्वतंत्रता दिवस के पहले ही दिनांक 14 जुलाई, 1947 को संविधान सभा के कांग्रेस पार्टी के सदस्यों ने देवनागरी लिपि में लिखी हुई हिन्दी को राजभाषा बनाने का निर्णय ले लिया था।
15 अगस्त,1947 को भारत की स्वतंत्रता के बाद तथा पाकिस्तान बनने के कारण मुस्लिम लीग के सदस्य संविधान सभा के सदस्य नहीं रहे। क्रमश:
1 टिप्पणियाँ
अच्छा आलेख...बधाई
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