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संविधान-सभा में राजभाषा विचार [लेख] - भाग 2 - प्रो० महावीर सरन जैन

Kaka Hathrasi Hindi
14 जुलाई, 1947 से लेकर 14 सितम्बर, 1949 तक बहस इस मुद्दे पर होती रही कि संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए अंकों का रूप क्या हो। 14 सितम्बर, 1949 को जब संविधान सभा की बैठक हुई तब सभापति के सम्बोधन के वक्तव्य को मूल अंग्रेजी में प्रस्तुत कर रहा हूँ जिससे मेरे मत की पुष्टि हो सके तथा किसी प्रकार के संदेह या भ्रम की स्थिति न रहे –

Prof. Mahavir Saran Jainरचनाकार परिचय:-


प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक, रोमानिया के बुकारेस्त विश्वविद्यालय के विजिटिंग प्रोफेसर (हिन्दी) तथा जबलपुर के विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी एवं भाषा-विज्ञान विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष के रूप में हिन्दी के अध्ययन, अध्यापन एवं अनुसंधान के क्षेत्रों में भारत एवं विश्व के स्तर पर कार्य किया है।
आपने 45 से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया है जिनमें हिन्दी भाषा एवं भाषा विज्ञान से सम्बन्धित ग्रंथों के अतिरिक्त एक निबन्ध संकलन “विचार, दृष्टिकोण एवं संकेत”, “सूरदास एवं सूर सागर की भाव योजना”, “विश्व शान्ति एवं अहिंसा”, “विश्व चेतना तथा सर्वधर्म समभाव” तथा “भगवान महावीर एवं जैन दर्शन” आदि ग्रंथ सम्मिलित हैं।
प्रो० जैन विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। इनमें भारतीय संस्कृति संस्थान, विभिन्न राज्यों की हिन्दी समितियों एवं विश्व हिन्दी न्यास (अमेरिका) के नाम उल्लेखनीय हैं। प्रोफेसर जैन को द अमेरिकन बॉयोग्राफिकल इंस्टीट्यूट द्वारा 'International Cultural diploma of Honor’ से, डॉ भीमराव अम्बेदकर विश्वविद्यालय, आगरा द्वारा भाषा एवं संस्कृति के क्षेत्र में योगदान के लिए आगरा में 'ब्रज विभूति सम्मान' से तथा भारतीय राजदूतावास, बुकारेस्त (रोमानिया) द्वारा बुकारेस्त विश्वविद्यालय में हिन्दी शिक्षण में योगदान के लिए 'स्वर्ण-पदक' से अलंकृत किया गया है।

Constituent Assembly Debates on 14 September, 1949 PART II
CONSTITUENT ASSEMBLY OF INDIA - VOLUME IX Wednesday, the 14th September, 1949 
“May I ask how long has this idea about the numerals been before the Country? No member could have the courage of coming before this Assembly, with a proposition about the acceptance of the Hindi language if that language had not already been more or less accepted by the people for years and years. It is on that basis that that clause in the Draft Constitution relating to language has been framed. But how long have people been discussing about these numerals?” 
हम पहले कह चुके हैं कि 14 जुलाई, 1947 से लेकर 14 सितम्बर, 1949 तक बहस इस मुद्दे पर होती रही कि संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए अंकों का रूप क्या हो। ये देवनागरी लिपि में प्रयुक्त होने वाले अंक हों अथवा अन्तरराष्ट्रीय अंक हों। 
कुछ सदस्यों का मत था कि जब हमने यह निर्णय ले लिया है कि संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी होगी तो हमें अंकों के मामले में भी देवनागरी लिपि के अंकों को स्वीकार कर लेना चाहिए। कुछ सदस्यों का मत था कि वर्तमान अन्तरराष्ट्रीय अंक अंग्रेजी की तरह विदेशी नहीं हैं अपितु ये भारत से ही पहले अरब तथा अरब से यूरोप पहुँचे हैं। इस कारण हमें अंकों के मामले में,भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय रूप को स्वीकार कर लेना चाहिए। दक्षिण भारत के कुछ सदस्यों ने जिन्होंने हिन्दुस्तानी की अपेक्षा देवनारी लिपि में लिखित हिन्दी को संघ की राजभाषा बनाने के पक्ष में मतदान किया था उनमें से कुछ सदस्यों का मत था कि दक्षिण में हम हिन्दी के प्रचार में अन्तरराष्ट्रीय अंकों का ही प्रयोग करते हैं। इस मुद्दे पर अन्तरराष्ट्रीय अंकों के पक्ष में सबसे जोरदार बहस अब्दुल कलाम आजाद की रही । उनके शब्द थे –
“These Indian numerals first reached Arabia, and then from Arabia they reached Europe. This is the reason why in Europe they were known as Arabic numerals,though they originated from India. This style of the numerals is the greatest scientific invention of India, which she is rightly entitled to be proud of, and today the whole world recognizes it, the story of how these numerals had reached Arabia has been preserved in the pages of history.In the eighth century A.D. during the reign of the second Abbasside Caliph, Al Mansoor a party of the Indian Vedic physicians had reached Baghdad and had got admittance at the court of Al Mansoor. A certain physician of this party was a specialist in astronomy and he had Brahmagupta's book "Siddhanta" with him. Al Mansoor, having learnt this, ordered an Arab philosopher, Ibraheem Algazari, to translate the "Siddhanta" into Arabic with the help of the Indian scholar. It is said that the Arabs learnt about the Indian numerals in connection with this translation, and having seen its overwhelming advantage, they at once adopted it in Arabic. Like Latin, in Arabic also there were no specific symbols for counting figures. Every number and figure was expressed in words. In cases of abbreviations various letters were made use of, which were given certain numerals values. At that time Indian numerals put before them a very easy way of counting. They became famous as Arabic numerals. And after reaching Europe they took that form in which we find them in International numerals at present. I have emphasized that these numerals are India's own. It is not a foreign thing”.
दक्षिण भारत के श्री संतानम ने भी अन्तरराष्ट्रीय अंकों के प्रयोग का समर्थन करते हुए सभा के सदस्यों को अवगत कराया -
“I may inform the honourable Members that this question came up before us in the South in connection with the Hindi Prachar Sabha at least fifteen years ago and we decided that Hindi Prachar in the South should be conducted with international numerals”.
इस मुद्दे पर बहस होती रही। देवनागरी के अंकों को अपनाने के सम्बंध में सबसे अधिक दलीलें पुरुषोत्तम दास टंडन की थी। इस मुद्दे पर अनेक बैठकों में जोरदार बहस होती रहीं। भाषा सम्बंधी अनुच्छेदों पर संविधान सभा के सभापति को लगभग तीन सौ या उससे भी अधिक संशोधन मिले। मैं इस बात को दुबारा तिबारा दोहराना चाहता हूँ कि 14 जुलाई, 1947 से लेकर 14 सितम्बर, 1949 तक बहस इस मुद्दे पर होती रही कि संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए अंकों का रूप क्या हो। ये देवनागरी लिपि में प्रयुक्त होने वाले अंक हों अथवा अन्तरराष्ट्रीय अंक हों।
संविधान सभा में भाषा विषयक बहस 278 पृष्ठों में मुद्रित है जिसका अधिकांश भाग अंकों के स्वरूप को लेकर हुई बहस से हैं। राजभाषा सम्बंधी विधेयक एकमतेन पास हो, इसके लिए डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी तथा श्री गोपाल स्वामी आयंगार की भूमिका महत्वपूर्ण रही। अंकों के मुद्दे पर उन्होंने देवनागरी के अंकों के प्रयोग का मोह त्यागने तथा अन्तरराष्ट्रीय अंकों को स्वीकार करने के लिए वातावरण बनाने की कोशिश की। संविधान सभा के सदस्यों में से दो माननीय सदस्यों (श्री लक्ष्मीमल्ल सिंघवी तथा मोटूरि सत्यनारायण) ने मुझे इस बात से अवगत कराया कि उनका तर्क था कि देवनागरी लिपि में लिखी हुई हिन्दी को राजभाषा बनाने की बात उन सदस्यों ने स्वीकार कर ली है जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है। इस कारण हिन्दी भाषा सदस्यों को यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि वे अन्तरराष्ट्रीय अंकों के प्रयोग की बात मान लें जिससे राजभाषा सम्बंधी विधेयक सर्वसम्मति से पास हो सके। उनकी भूमिका के कारण यह सहमति बनी थी कि संघ की भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। वास्तव में अंकों को छोड़कर संघ की राजभाषा के प्रश्न पर अधिकांश सदस्यों में कोई मतभेद नहीं था।
अंकों के बारे में भी यह स्पष्ट था कि अंतर्राष्ट्रीय अंक भारतीय अंकों का ही एक नया संस्करण है। अंत में अंको के स्वरूप पर 2 सितम्बर, 1949 ईस्वी की बैठक में मतदान कराया गया। मतदान में दोनों पक्षो को बराबर अर्थात् 77- 77 मत प्राप्त हुए। अंत में संविधान सभा के सभापति श्री राजेन्द्र प्रसाद ने दक्षिण भारत के हिन्दी प्रेमी सदस्यों की भावना तथा डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी एवं श्री गोपाल स्वामी आयंगार की इस भावना को ध्यान में रखकर कि राजभाषा सम्बंधी विधेयक का प्रारूप ऐसा हो जिस पर सभा के सदस्यों की आम सहमति हो तथा जब दक्षिण भारत के अधिकांश सदस्यों ने देश के हित को ध्यान में रखकर देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी को संघ की राजभाषा बनाना स्वीकार कर लिया है तो अंकों के मुद्दे पर लचीला रुख अपनाया जा सकता है, अपना निर्णायक मत (कास्टिंग वोट) अन्तरराष्ट्रीय अंकों के प्रयोग के पक्ष में दिया तथा एक मत के अधिक होने को कारण (एक मत से) अन्तरराष्ट्रीय अंको के प्रयोग का प्रस्ताव पास हो गया। देवनागरी के अंक बनाम अन्तरराष्ट्रीय अंक के प्रयोग के मुद्दे को अंग्रेजी के विद्वानों ने हिन्दी बनाम अंग्रेजी नाम दे दिया। उनके वक्तव्य को प्रमाण मानकर तथा उसका संदर्भ देकर अंग्रेजी में लिखे हुए भारत विषयक संदर्भ ग्रंथों में यह प्रतिपादित किया गया है कि एक मत अधिक होने के कारण अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी को राजभाषा बना दिया गया। यह भ्रांति उन सभी लोगों को है जिनका ज्ञान अंग्रेजी के भारत विषयक संदर्भ ग्रंथों पर आधारित है। उदाहरण के लिए मनोरमा ईयर बुक से सम्बंधित अंश पेश है –

“With independence, the question of a common language naturally came up. The Constituent Assembly could not arrive at a consensus in the matter. The question was put to vote and Hindi won on a single vote – the casting vote of the President.”
(Manorama Year Book 2004, Page 509 (2004))
अंग्रेजी में लिखे हुए भारत विषयक संदर्भ ग्रंथों के आधार पर संघ की राजभाषा के सम्बंध में भ्रामक धारणा बनाने वालों से मेरा यह विनम्र निवेदन एवं आग्रह है कि वे “India, Constituent Assembly Debates” के सभी भागों का अध्ययन करें जिससे अंग्रेजी के ग्रंथों द्वारा गढ़ा गया मिथक टूट सके तथा उनको वास्तविकता का पता चल सके।

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