गतांक (संविधान-सभा में राजभाषा विचार [लेख] - भाग 2 - प्रो० महावीर सरन जैन) से आगे...
14 सितम्बर, 1949 को पूरे दिन की बहस के समापन के बाद शाम को भारी तालियों की गड़गड़ाहट में ‘ मुंशी - आयंगर’ फार्मूला स्वीकार करते हुए राजभाषा सम्बंधी भाग पारित हो गया।
देखें - Constituent Assembly Debates on 14 September, 1949 PART IIIसभा में राजभाषा सम्बंधी भाग के पारित होने के बाद सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अपने जो उद्गार व्यक्त किए वे तत्कालीन सभा के सदस्यों के मनोभावों को आत्मसात करने का लिखित दस्तावेज है-
PART XIV-A CHAPTER I-LANGUAGE OF THE UNION/301A.
Official language of the Union.
(1) The official language of the Union shall be Hindi in Devanagari script. The form of numerals to be used for the official purposes of the Union shall be the international form of Indian numerals.
प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक, रोमानिया के बुकारेस्त विश्वविद्यालय के विजिटिंग प्रोफेसर (हिन्दी) तथा जबलपुर के विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी एवं भाषा-विज्ञान विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष के रूप में हिन्दी के अध्ययन, अध्यापन एवं अनुसंधान के क्षेत्रों में भारत एवं विश्व के स्तर पर कार्य किया है।
आपने 45 से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया है जिनमें हिन्दी भाषा एवं भाषा विज्ञान से सम्बन्धित ग्रंथों के अतिरिक्त एक निबन्ध संकलन “विचार, दृष्टिकोण एवं संकेत”, “सूरदास एवं सूर सागर की भाव योजना”, “विश्व शान्ति एवं अहिंसा”, “विश्व चेतना तथा सर्वधर्म समभाव” तथा “भगवान महावीर एवं जैन दर्शन” आदि ग्रंथ सम्मिलित हैं।
प्रो० जैन विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। इनमें भारतीय संस्कृति संस्थान, विभिन्न राज्यों की हिन्दी समितियों एवं विश्व हिन्दी न्यास (अमेरिका) के नाम उल्लेखनीय हैं। प्रोफेसर जैन को द अमेरिकन बॉयोग्राफिकल इंस्टीट्यूट द्वारा 'International Cultural diploma of Honor’ से, डॉ भीमराव अम्बेदकर विश्वविद्यालय, आगरा द्वारा भाषा एवं संस्कृति के क्षेत्र में योगदान के लिए आगरा में 'ब्रज विभूति सम्मान' से तथा भारतीय राजदूतावास, बुकारेस्त (रोमानिया) द्वारा बुकारेस्त विश्वविद्यालय में हिन्दी शिक्षण में योगदान के लिए 'स्वर्ण-पदक' से अलंकृत किया गया है।
आपने 45 से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया है जिनमें हिन्दी भाषा एवं भाषा विज्ञान से सम्बन्धित ग्रंथों के अतिरिक्त एक निबन्ध संकलन “विचार, दृष्टिकोण एवं संकेत”, “सूरदास एवं सूर सागर की भाव योजना”, “विश्व शान्ति एवं अहिंसा”, “विश्व चेतना तथा सर्वधर्म समभाव” तथा “भगवान महावीर एवं जैन दर्शन” आदि ग्रंथ सम्मिलित हैं।
प्रो० जैन विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। इनमें भारतीय संस्कृति संस्थान, विभिन्न राज्यों की हिन्दी समितियों एवं विश्व हिन्दी न्यास (अमेरिका) के नाम उल्लेखनीय हैं। प्रोफेसर जैन को द अमेरिकन बॉयोग्राफिकल इंस्टीट्यूट द्वारा 'International Cultural diploma of Honor’ से, डॉ भीमराव अम्बेदकर विश्वविद्यालय, आगरा द्वारा भाषा एवं संस्कृति के क्षेत्र में योगदान के लिए आगरा में 'ब्रज विभूति सम्मान' से तथा भारतीय राजदूतावास, बुकारेस्त (रोमानिया) द्वारा बुकारेस्त विश्वविद्यालय में हिन्दी शिक्षण में योगदान के लिए 'स्वर्ण-पदक' से अलंकृत किया गया है।
मैं हिन्दी का या किसी अन्य भाषा का विद्वान होने का दावा नहीं करता। मेरा यह भी दावा नहीं है कि किसी भाषा में मेरा कुछ अंशदान है, किंतु सामान्य व्यक्ति के नाते मैं उस भाषा के स्वरूप के बारे में विचार करना चाहता हूँ जिसे हमने आज संघ के प्रशासन की भाषा स्वीकार किया है। हिन्दी में विगत में कई कई बार परिवर्तन हुए हैं और आज उसकी कई शैलियाँ हैं, पहले हमारा बहुत सा साहित्य ब्रजभाषा में लिखा गया था। अब हिंदी में खडी बोली का प्रचलन है। मेरे विचार में देश की अन्य भाषाओं के संपर्क से उसका और भी विकास होगा। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि हिन्दी देश की अन्य भाषाओं से अच्छी अच्छी बातें ग्रहण करेगी तो उससे उन्नति ही होगी, अवनति नहीं होगी।
हमने अब देश का राजनैतिक एकीकरण कर लिया है। अब हम एक दूसरा जोड़ लगा रहे हैं जिससे हम सब एक सिरे से दूसरे सिरे तक एक हो जाएँगे। मुझे आशा है कि सब सदस्य संतोष की भावना लेकर घर जाएँगे और जो मतदान में हार भी गए हैं, वे भी इस पर बुरा नहीं मानेंगे तथा उस कार्य में सहायता देंगे जो संविधान के कारण संघ को भाषा के विषय में अब करना पड़ेगा।
मैं दक्षिण भारत के विषय में एक शब्द कहना चाहता हूँ। 1917 में जब महात्मा गाँधी चम्पारन में थे और मुझे उनके साथ कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था तब उन्होंने दक्षिण में हिन्दी प्रचार का कार्य आरम्भ करने का विचार किया और उनके कहने पर स्वामी सत्यदेव और गाँधी जी के प्रिय पुत्र देवदास गाँधी ने वहाँ जाकर यह कार्य आरम्भ किया। बाद में 1918 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इंदौर अधिवेशन में इस प्रचार कार्य को सम्मेलन का मुख्य कार्य स्वीकार किया गया और वहाँ कार्य चलता रहा। मेरा सौभाग्य है कि मैं गत 32 वर्षो में इस कार्य से सम्बद्ध रहा हूँ, यद्यपि मैं इसे घनिष्ट सम्बंध का दावा नहीं कर सकता। मैं दक्षिण में एक सिरे से दूसरे सिरे को गया और मेरे हदय में बहुत प्रसन्नता हुई कि दक्षिण के लोगों ने भाषा के सम्बंध में महात्मा गाँधी के अनुरोध के अनुसार कैसा अच्छा कार्य किया है। मैं जानता हूँ कि उन्हें कितनी ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ा किंतु उनमें इस मामले में जो जोश था, वह बहुत सराहनीय था। मैंने कई बार पारितोषिक वितरण भी किया है और सदस्यों को यह सुनकर प्रसन्नता होगी कि मैंने एक ही समय पर दो पीढ़ियों को पारितोषिक दिए हैं, शायद तीन को दिए हों – अर्थात दादा, पिता और पुत्र हिन्दी पढ़कर, परीक्षा पास करके एक ही वर्ष पारितोषिकों तथा प्रमाणपत्रों के लिए आए थे। यह कार्य चलता रहा है और दक्षिण के लोगों ने इसे अपनाया है। आज मैं कह नहीं सकता कि वे इस हिन्दी कार्य के लिए कितने लाख व्यय कर रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि इस भाषा को दक्षिण के बहुत से लोगों ने अखिल भारतीय भाषा मान लिया है और इसमें उन्होंने जिस जोश का प्रदर्शन किया है उसके लिए उत्तर भारतीयों को उन्हें बधाई देनी चाहिए, मान्यता देनी चाहिए और धन्यवाद देना चाहिए।
यदि आज उन्होंने किसी विशेष बात पर हठ किया है तो हमें याद रखना चाहिए कि आखिर यदि हिन्दी को उन्हें स्वीकार करना है तो वे ही करेंगे, उनकी ओर से हम तो नहीं करेंगे, और आखिर यह क्या बात है जिस पर इतना वाद विवाद हो गया है? मैं आश्चर्य कर रहा था कि हमें छोटे से मामले पर इतनी बहस करने की, इतना समय बर्बाद करने की क्या आवयकता है? आखिर अंक हैं क्या? दस ही तो हैं। इन दस में, मुझे याद पड़ता है कि तीन तो ऐसे हैं जो अंग्रेजी में और हिंदी में एक से हैं। 2, 3 और 0। मेरे खयाल में चार और हैं जो रुप में एक से हैं किंतु उनसे अलग अलग कार्य निकलते हैं। उदाहरण के लिए हिन्दी का चार अंग्रेजी के आठ से बहुत मिलता जुलता है, यद्यपि एक चार के लिए आता है और दूसरा आठ के लिए। अंग्रेजी का छह हिन्दी के सात से बहुत मिलता है, यद्यपि उन दोनों के भिन्न भिन्न अर्थ हैं। हिन्दी का नौ जिस रूप में लिखा जाता है, मराठी से लिया गया है और अंग्रेजी के 9 से बहुत मिलता है। अब केवल दो तीन अंक बच गए जिनके दोनों प्रकार के अंकों में भिन्न भिन्न रूप हैं और भिन्न भिन्न अर्थ हैं। मुद्राणालय की सुविधा या असुविधा का प्रश्न नहीं है जैसा कि कुछ सदस्यों ने कहा है। मेरे विचार में मुद्रणालय की दृष्टि से हिन्दी और अंग्रेजी अंकों में कोई अन्तर नहीं है।
किन्तु हमें अपने मित्रों की भावनाओं का आदर करना है जो उसे चाहते हैं, और मैं अपने सब हिन्दी मित्रों से कहूँगा कि वे इसे उस भावना से स्वीकार करें, इसलिए स्वीकार करें कि हम उनसे हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि स्वीकार करवाना चाहते हैं और मुझे प्रसन्नता है कि इस सदन ने अत्यधिक बहुमत से इस सुझाव को स्वीकार कर लिया है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आखिर यह बहुत बड़ी रियायत नहीं है। हम उनसे हिन्दी स्वीकार करवाना चाहते थे और उन्होंने स्वीकार कर लिया, और हम उनसे देवनागरी लिपि को स्वीकार करवाना चाहते थे, वह भी उन्होंने स्वीकार कर ली। वे हमसे भिन्न प्रकार के अंक स्वीकार करवाना चाहते थे, उन्हें स्वीकार करने में कठिनाई क्यों होनी चाहिए? इस पर मैं छोटा दृष्टांत देता हूँ जो मनोरंजक होगा। हम चाहते हैं कि कुछ मित्र हमें निमंत्रण दें। वे निमंत्रण दे देते हैं। वे कहते हैं कि आप आकर हमारे घर में ठहर सकते हैं और उसके लिए आपका स्वागत है। किन्तु वे कहते हैं कि जब आप हमारे घर आएँ तो कृपया अंग्रेजी चलन के जूते पहनिए, भारतीय चप्पल मत पहनिए जैसा कि आप अपने घर में पहनते हैं। उस निमंत्रण को केवल इसी आधार पर ठुकराना मेरे लिए बुद्धिमत्ता नहीं होगी। मैं भले ही चप्पल पहनना छोड़ना नहीं चाहता, मगर मैं अंग्रेजी जूते पहन लूँगा और निमंत्रण को स्वीकार कर लूँगा। इसी सहिष्णुता की भावना से राष्ट्रीय समस्याएँ हल हो सकती हैं।
हमारे संविधान में बहुत से विवाद उठ खडे हुए हैं और बहुत से प्रश्न उठे हैं जिन पर गम्भीर मतभेद थे किंतु हमने किसी न किसी प्रकार उनका निपटारा कर लिया। यह सबसे बड़ी खाई थी जिससे हम एक दूसरे से अलग हो सकते थे। हमें यह कल्पना करनी चाहिए कि यदि दक्षिण हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि को स्वीकार नहीं करता, तब क्या होता। स्विटजरलैंड जैसे छोटे से, नन्हें से देश में तीन भाषाएँ हैं जो संविधान में मान्य हैं और सब कुछ काम उन तीनों भाषाओं में होता है। क्या हम समझते हैं कि हम केन्द्रीय प्राशसकीय प्रयोजनों के लिए उन भाषाओं को रखने की सोचते जो भारत में प्रचलित हैं तो क्या हम सब प्रान्तों को साथ रख सकते थे, सभी में एकता करा सकते थे? प्रत्येक पृष्ठ को शायद पन्द्रह बीस भाषाओं में मुद्रित करना पड़ता।
यह केवल व्यय का प्रश्न नहीं है। यह मानसिक दशा का भी प्रश्न है जिसका हमारे समस्त जीवन पर प्रभाव पड़ेगा। हम केन्द्र में जिस भाषा का प्रयोग करेंगे, उससे हम एक दूसरे के निकटतर आते जाएँगे। आखिर अंग्रेजी से हम निकटतर आए हैं क्योंकि यह एक भाषा थी। अंग्रेजी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया है, इससे अवश्यमेव हमारे सम्बंध घनिष्ठतर होंगे, विशेषतः इसलिए कि हमारी परम्पराएँ एक ही हैं, हमारी संस्कृति एक ही है और हमारी सभ्यता में सब बातें एक ही हैं। अतएव यदि हम इस सूत्र को स्वीकार नहीं करते तो परिणाम यह होता कि इस देश में बहुत सी भाषाओं का प्रयोग होता या वे प्रान्त पृथक हो जाते जो बाध्य होकर किसी भाषा विशेष को स्वीकार करना नहीं चाहते थे। हमने यथासम्भव बुध्दिमानी का कार्य किया है। मुझे हर्ष है, मुझे प्रसन्नता है और मुझे आशा है कि भावी सन्तति इसके लिए हमारी सराहना करेगी।”
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