सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विभूति हैं जिन्हें एक साथ महाकवि और महामानव के रूप में याद किया जाता है। अपने नाम के ही अनुरूप उनका व्यक्तित्व तथा कृतित्व भी सबसे निराला ही था। व्यक्ति के रूप में निराला जीवन भर स्वच्छंदतापूर्वक अपनी भावनाओं के अनुसार आचरण करते रहे, फिर चाहे वे भावनाएं करुणा की हों, स्वाभिमान की हों या क्रोध की। अपनी इन भावनाओं पर किसी तरह का अंकुश उन्हें अस्वीकार्य ही रहा।
एक ओर जहाँ ज़रूरतमंदों की सहायता के लिए अपनी असुविधाओं का विचार किये बिना अपना सब कुछ दे डालने की प्रवृति निराला के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग थी, वहीं किसी से कुपित होने पर उसके साथ हाथापाई तक को तैयार हो जाना भी (बच्चन जी ने अपनी आत्मकथा में सुमित्रानंदन पंत और निराला के मध्य ऐसी कुछ स्थितियों का उल्लेख किया है।) निराला के ही स्वभाव का एक हिस्सा था। अपनी इसी अतिशय भावुकता के कारण निराला आजीवन एक अव्यवस्थित तथा प्राय: कष्टकर जीवन जीते रहे, यहाँ तक कि अंतिम समय में उनका मानसिक स्वास्थ्य भी बिगड़ गया।
रचनाकार परिचय:-
निराला के व्यक्तित्व की ही तरह, उनका कृतित्व भी किसी तरह के वाद, छंद आदि की परिधियों में सीमित नहीं रहा। एक ओर जहाँ उन्हें छायावाद के चार स्तम्भों में गिना जाता है तो दूसरी ओर कई साहित्यमर्मज्ञ उन्हें पहला प्रयोगवादी कवि भी मानते हैं। यहाँ तक कि कई जानकार तो उसके भी बाद की कविता के बीज भी उनके काव्य में मानते हैं। एक ओर जहाँ वे क्रांति का आह्वान करने वाले कवि हैं (बादल राग आदि कविताएं) तो दूसरी ओर “सरोज-स्मृति” जैसी भावुक कविताओं के रचयिता भी हैं। एक ओर जहाँ वे पौराणिक कथाओं में भी नए अभिप्राय तलाशते हैं, वहीं दूसरी ओर किसी भक्त कवि की तरह विह्वल होकर इष्ट को पुकारते भी हैं।
ऐसे विपरीत प्रतीत होने वाले आयामों को एक साधने वाले रचनाकार के बारे में कोई एक निश्चित राय बना पाना सहज कार्य नहीं हो सकता। परंतु उनकी यही क्षमता (अंग्रेज़ कवि कालरिज़ ने कवि वर्ड्स्वर्थ के संदर्भ में इस “Reconciliation of Opposites - विरुद्धों का सामंजस्य” को महान कवि होने की कसौटी माना है और निराला तो इस मामले में वर्डस्वर्थ से कहीं आगे ही प्रतीत होते हैं) उन्हें एक महान कवि सिद्ध कर देने के लिये पर्याप्त है। यद्यपि निराला का गद्य साहित्य किसी मायने में किसी अन्य गद्यकार से हीन नहीं है बल्कि वे अपने समय के गद्य-लेखकों में भी सर्वश्रेष्ठ की श्रेणी में ही आते हैं, तथापि उनका कवित्व इतना सशक्त है कि वे प्राय: एक कवि के रूप में ही प्रसिद्ध हैं। निराला के कवि-कर्म के इस विशाल और अनूठे वैभव का ही परिणाम है कि अज्ञेय, शमशेर और मुक्तिबोध जैसे बिल्कुल अलग-अलग विचारधारा और शैलियों के कवि भी निराला से प्रेरणा प्राप्त करते हैं।
आज हिंदी साहित्य के इस प्रकाशवान नक्षत्र के जन्मदिवस पर आइये उनकी कुछ बिल्कुल अलग-अलग शैली में लिखी गई रचनाओं को एक बार फिर पढ़ कर स्वयं को धन्य करते हैं:
आरंभ में सरस्वती-पुत्र “निराला” की सरस्वती वंदना:
एक ओर जहाँ ज़रूरतमंदों की सहायता के लिए अपनी असुविधाओं का विचार किये बिना अपना सब कुछ दे डालने की प्रवृति निराला के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग थी, वहीं किसी से कुपित होने पर उसके साथ हाथापाई तक को तैयार हो जाना भी (बच्चन जी ने अपनी आत्मकथा में सुमित्रानंदन पंत और निराला के मध्य ऐसी कुछ स्थितियों का उल्लेख किया है।) निराला के ही स्वभाव का एक हिस्सा था। अपनी इसी अतिशय भावुकता के कारण निराला आजीवन एक अव्यवस्थित तथा प्राय: कष्टकर जीवन जीते रहे, यहाँ तक कि अंतिम समय में उनका मानसिक स्वास्थ्य भी बिगड़ गया।
अजय यादव अंतर्जाल पर सक्रिय हैं तथा इनकी रचनायें कई प्रमुख अंतर्जाल पत्रिकाओं पर प्रकाशित हैं।
ये साहित्य शिल्पी के संचालक सदस्यों में हैं।
ये साहित्य शिल्पी के संचालक सदस्यों में हैं।
निराला के व्यक्तित्व की ही तरह, उनका कृतित्व भी किसी तरह के वाद, छंद आदि की परिधियों में सीमित नहीं रहा। एक ओर जहाँ उन्हें छायावाद के चार स्तम्भों में गिना जाता है तो दूसरी ओर कई साहित्यमर्मज्ञ उन्हें पहला प्रयोगवादी कवि भी मानते हैं। यहाँ तक कि कई जानकार तो उसके भी बाद की कविता के बीज भी उनके काव्य में मानते हैं। एक ओर जहाँ वे क्रांति का आह्वान करने वाले कवि हैं (बादल राग आदि कविताएं) तो दूसरी ओर “सरोज-स्मृति” जैसी भावुक कविताओं के रचयिता भी हैं। एक ओर जहाँ वे पौराणिक कथाओं में भी नए अभिप्राय तलाशते हैं, वहीं दूसरी ओर किसी भक्त कवि की तरह विह्वल होकर इष्ट को पुकारते भी हैं।
ऐसे विपरीत प्रतीत होने वाले आयामों को एक साधने वाले रचनाकार के बारे में कोई एक निश्चित राय बना पाना सहज कार्य नहीं हो सकता। परंतु उनकी यही क्षमता (अंग्रेज़ कवि कालरिज़ ने कवि वर्ड्स्वर्थ के संदर्भ में इस “Reconciliation of Opposites - विरुद्धों का सामंजस्य” को महान कवि होने की कसौटी माना है और निराला तो इस मामले में वर्डस्वर्थ से कहीं आगे ही प्रतीत होते हैं) उन्हें एक महान कवि सिद्ध कर देने के लिये पर्याप्त है। यद्यपि निराला का गद्य साहित्य किसी मायने में किसी अन्य गद्यकार से हीन नहीं है बल्कि वे अपने समय के गद्य-लेखकों में भी सर्वश्रेष्ठ की श्रेणी में ही आते हैं, तथापि उनका कवित्व इतना सशक्त है कि वे प्राय: एक कवि के रूप में ही प्रसिद्ध हैं। निराला के कवि-कर्म के इस विशाल और अनूठे वैभव का ही परिणाम है कि अज्ञेय, शमशेर और मुक्तिबोध जैसे बिल्कुल अलग-अलग विचारधारा और शैलियों के कवि भी निराला से प्रेरणा प्राप्त करते हैं।
आज हिंदी साहित्य के इस प्रकाशवान नक्षत्र के जन्मदिवस पर आइये उनकी कुछ बिल्कुल अलग-अलग शैली में लिखी गई रचनाओं को एक बार फिर पढ़ कर स्वयं को धन्य करते हैं:
आरंभ में सरस्वती-पुत्र “निराला” की सरस्वती वंदना:
“निराला” के विषय में साहित्य शिल्पी पर पूर्व-प्रकाशित लेख:
महाप्राण निराला फक्कड़ ही रहे – अभिषेक सागर
निराला के बाद कविता दिवंगत हुई - राजीव रंजन प्रसाद
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला': जीवन एवं कृतित्व - अजय यादव, राजीव रंजन प्रसाद
फक्कड़ कवि थे निराला - कृष्ण कुमार यादव
अमृत मन्त्र नव - डॉ. वेद व्यथित
महाप्राण निराला फक्कड़ ही रहे – अभिषेक सागर
निराला के बाद कविता दिवंगत हुई - राजीव रंजन प्रसाद
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला': जीवन एवं कृतित्व - अजय यादव, राजीव रंजन प्रसाद
फक्कड़ कवि थे निराला - कृष्ण कुमार यादव
अमृत मन्त्र नव - डॉ. वेद व्यथित
वर दे, वीणावादिनि वरदे!और अब एक व्यंग्य रचना:
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे!
काट अन्ध-उर के बन्धन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे!
नव गति, नव लय, ताल-छन्द नव
नवल कण्ठ, नव जलद-मन्द्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृन्द को
नव पर, नव स्वर दे!
जब से एफ.ए. फेल हुआएक ग़ज़ल:
हमारा कालेज का बचुआ।
नाक दाबकर सम्पुट साधै,
महादेव जी को आराधै,
भंग छानकर रोज़ रात को
खाना मालपुआ।
वाल्मीक को बाबा मानै,
नाना व्यासदेव को जानै,
चाचा महिषासुर को, दुर्गा
जी को सगी बुआ।
हिन्दी का लिक्खाड़ बड़ा वह,
जब देखो तब अड़ा पड़ा वह,
छायावाद, रहस्यवाद के
भावों का बटुआ।
धीरे-धीरे रगड़-रगड़ कर,
श्रीगणेश से झगड़-झगड़ कर,
नत्थाराम बन गया है अब
पहले का नथुआ।
बदलीं जो उनकी आँखें, इरादा बदल गया।और अंत में एक और रचना जो निराला साहित्य के उत्तरार्ध की काव्य-शैली की बानगी प्रस्तुत करती है:
गुल जैसे चमचमाया कि बुलबुल मसल गया॥
यह टहनी से हवा की छेड़छाड़ थी, मगर
खिलकर सुगन्ध से किसी का दिल बहल गया॥
ख़ामोश फ़तह पाने को रोका नहीं रुका
मुश्किल मुकाम, ज़िन्दगी का जब सहल गया॥
मैंने कला की पाटी ली है, शे’र के लिये
दुनिया के गोलन्दाजों को देखा, दहल गया॥
छलके छल के पैमाने क्या!“निराला” की साहित्यिक विरासत इतनी समृद्ध है कि उसकी चर्चा को कुछ पृष्ठों में समेट पाना असम्भव है। परंतु समेटना तो होगा ही…! अत: अगले अंक में इस पर कुछ और चर्चा करने के उपरान्त इस सिलसिले को विराम देंगे…!
आए बेमाने माने क्या!
हलके-हलके हल के न हुए,
दलके-दलके दल के न हुए,
उफले-उफले फल के न हुए,
बेदाने थे तो दाने क्या?
कट रहा ज़माना कहाँ पटा?
हट रहा पैर जो कहाँ सटा?
पूरा कब है जब लगा बटा
रुपया न रहा तो आने क्या?
3 टिप्पणियाँ
लेख सुपाठ्य है. पर इसमें दो गलितयों पर बरबस ध्यान चला गया. ये गलतियाँ लेखकीय, संपादकीय अथवा छपाई में से किसी की हों.
जवाब देंहटाएंये गलतियाँ हैं अग्येय और वीणावादिनि में. यहाँ अग्येय नहीं अज्ञेय और वीणावादिनि नहीं वीणावादिनी होना चाहिए.
आदरणीय शेषनाथ जी, गलतियों की तरफ ध्यानाकर्षण के लिये आभार! "अज्ञेय" तथा "साहित्यमर्मज्ञ" में हुई गलती सुधार दी गई है। "वीणावादिनि" के संदर्भ में यही कहूँगा कि अधिकांश स्थलों पर यही शब्द है (मेरी जानकारी के अनुसार मूल तत्सम शब्द भी यही है, यदि गलत हो तो कृपया सुधार दें), हालांकि गीत की लय के अनुसार "वीणावादिनी" शब्द ही सही बैठता है। वैसे गीति-काव्य में हृस्व को दीर्घ तथा दीर्घ को हृस्व कर गाना, परंपरानुकूल ही है।
जवाब देंहटाएंनिराला की मूल रचना में 'वीणावादिनी' शब्द ही है. इसे गीत के गायन की लय के हिसाब ते लिखा गया है.
जवाब देंहटाएंमेरा अनुभव तो है ही आप भी ध्यान दें तो पता चलेगा कि शुद्धता के स्तर पर हम अपने लेखों में बहुत लापरवाही बरतते हैं. अब आप अपने प्रत्युत्तर को ही देखें, 'हालाँकि' की जगह 'हालांकि' लिखे हैं. वैसे युनीकोड के (बदलने में) भी गलतियाँ होती है. पर ये गलतियाँ हमारी लापरवाही के नाते ही होती है. इन्हें हमें ही ठीक करना होगा लिखने के समय सावधानी बरत के.
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.