वह क्षेत्र बडा खुशहाल था। लोग बड़े समृद्ध थे। लेकिन अचानक उस क्षेत्र को प्रकृति की नजर लग गई। वहाँ भीषण अकाल पड़ गया। लोग दाने-दाने के लिये मोहताज हो गये। माटी का मोह ऐसा था, जो उन्हें रोजगार के लिये पलायन करने से रोक रहा था। अकाल का समाचार अखबारों में प्रकाशित हुआ था। जिसे पढ़कर उस क्षेत्र का एक हारा हुआ नेता पहुँचा। उसके आने की खबर से वहाँ के लोग राहत की उम्मीद लिये भारी संख्या मे उपस्थित हो गये। मगर हारा हुआ नेता तो मानो उनसे बदला लेने के लिये पहुँचा था। उसने कहा, “देख लिया न हमें हराने का परिणाम! जब हमारी सरकार थी तो समय पर बारिश होती थी। पेड़ों पर रसीले, मीठे और बड़े-बड़े फल लगते थे। खेतों में अनाज की सोने सी बालियाँ लहलहाती थी। अब भुगतो परिणाम! ये हमारी सरकार बदलने के कारण हो रहा है। हमारा मुर्गा खाये, हमारा दारू पिये और हमें ही हरा दिये। यदि हमें वोट देते, हमारी सरकार बनाते तो ये दिन देखने नहीं पड़ते। अब सब कान खोलकर सुन लो, जब तक हमें नही जिताओगे, तब तक यहाँ पानी बरसने वाला नहीं है। हमारी मर्जी के बिना तो पेड़ का एक पत्ता भी नहीं हिलता, पानी कहाँ से बरसेगा? हमें जिताओ, तभी पानी बरसेगा, समझे?” इतना कहकर वह चलता बना। लोग ठगे से उसे देखते रहे।
हिन्दी साहित्य से एम०ए०, वीरेन्द्र सरल वर्तमान में छत्तीसगढ़ के जिला धमतरी में अवस्थित हैं।
आप 1997 से साहित्य सृजन में रत हैं। आपका एक व्यंग्य संग्रह “कार्यालय तेरी अकथ कहानी” प्रकाशित हो चुका है। इसके अतिरिक्त अनेक पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएं निरंतर प्रकाशित होती रही हैं।
कई संस्थाओं ने आपकी रचनाधर्मिता को विभिन्न पुरुस्कार प्रदान कर सम्मानित किया है।
लोगों को समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर करें तो क्या करें? तभी वहाँ एक दिन चमचा नामक दूत प्रकट हुआ। उसने कुशल कथावाचक की तरह लोगों को समझाया, "राजधानी नामक पावन महातीर्थ में नेता नामक देवता-गण निवास करते हैं। वहाँ जाकर उनकी स्तुति करने से वे प्रसन्न हो जाते हैं और वोटों का प्रसाद चढ़ाने की मनौती मांगने पर मनवांछित फल प्रदान करते हैं। ‘नेता जी की आरती जो कोई नर नारी गावे, सुख संपत्ति पावे।’ तुममें से कुछ प्रमुख लोग एक दल बना कर अविलंब राजधानी की ओर प्रस्थान करो और वहाँ पहुँच कर उनकी स्तुति करो तो तुम्हारा कष्ट जरूर दूर होगा।" इतना कहकर वह अन्तर्ध्यान हो गया।
उसकी सलाह पर वहाँ के प्रमुख लोग एक दल बनाकर कुछ ही दिनों मे राजधानी नामक पावन महातीर्थ पहुँच गये और उस मंदिर को तलाशने लगे जहाँ नेता नामक देवता-गण विराजते हैं। उस पावन तीर्थ में निवास करने वाले अन्य लोगों से पता पूछते हुये वे उस मंदिर तक पहुँच गये। वहाँ उन्होनें देखा, एक महलनुमा बहुत बड़ा भवन है जिसके आँगन मे एक विशालकाय वृक्ष है। उस पेड़ को घेर कर बहुत से धवल वस्त्रधारी नेता अपने हाथों में कुदाल लिये पेड़ की जड़ की खुदाई करने में लगे हैं। लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे, देखो हमारे देश के नेता कितने परिश्रमी है। लोग बेकार ही हमारे माननीय नेताओं को बदनाम करते हुये निकम्मे और निठल्ले समझते है। ये बेचारे यहाँ कुदाल लेकर जड़ खुदाई करने का श्रमसाध्य कार्य करके पसीना बहा रहे हैं। दल प्रमुख ने राजधानी निवासी एक बुजुर्ग से पूछा - "इतना विशालकाय पेड़ हम जीवन में पहली बार देख रहे हैं। इस पेड़ के बारे मे हमें बिल्कुल जानकारी नहीं है, कृपा करके इस पेड़ का नाम बता दीजिये, साथ ही साथ ये नेता लोग क्या कर रहे हैं, यह भी समझा दें तो बड़ी कृपा होगी।“
बुजुर्ग ने समझाया, "इस पेड़ का नाम लोकतंत्र है। इसकी छत्रछाया मे अरबों लोग निवास करते हैं। मगर ये नेता इसकी जड़ें खोद रहे हैं। ये इसे यहाँ से उखाड़ कर अपने घर के आँगन में लगाना चाहते हैं। इसलिये इसे धराशायी करने पर तुले हैं।" इतना बताकर वह बुजुर्ग आगे बढ़ गया। लोगों को उसकी बातें समझ में नहीं आईं। दल-प्रमुख जड़ खोदने वाले देवताओं को पहचानने की कोशिश करने लगा। एक देवता उसे कुछ जाना-पहचाना लगा, वह खुशी से उछल पड़ा। "अरे! ये तो वही देवता है जो पिछले चुनाव में हमारे गाँव मे जाकर हमारे सामने हाथ जोड़कर वोटों की भीख माँग रहे थे। चलो, उसी के पास जाकर हम मदद माँगते हैं।"
सभी लोग उस नेता के पास पहुँच गये। दल-प्रमुख ने उन्हें अपने क्षेत्र मे पड़े भयंकर अकाल के संबंध में जानकारी देते हुये मदद की माँग की। मगर उस देवता ने उन्हें दो टूक जवाब देते हुये कहा - "मुझे सब मालूम है, अकालग्रस्त क्षेत्र के लिये यहाँ से एक योजना जा रही है। जिससे तुम्हारी सभी समस्याओं का समाधान हो जायेगा।“ फिर उसने एक बहुत ही खूबसूरत योजना की जानकारी उन्हें दी और फिर से उस पेड़ की जड़ खोदने में तल्लीन हो गया। उसकी बेरूखी देख दल के अन्य लोगों की उनसे बात करने की हिम्मत नहीं हुई। वे अपनी नम आँखो से बेबसी में इधर-उधर देखने लगे। कुछ समय बाद उन्हें वहीं पर एक गोल-मटोल, खूबसूरत देवी जैसी महिला दिखाई पड़ी। दल के लोगों को लगा, शायद यही योजना बहिन जी हैं जो हमारे क्षेत्र में जायेंगी और चुटकी बजाते ही हमारी समस्याओं का समाधान कर देंगी। वाकई योजना बहिन जी तो बहुत ही खूबसूरत हैं। लोग आश्वस्त होकर अपने गाँव लौट आये और बेसब्री से योजना बहिन जी का इंतजार करने लगे।
दो-तीन महीने बीत जाने के बाद भी जब योजना बहिन जी गाँव नही पहुँची तो उन्हें चिन्ता होने लगी। वे सोचने लगे, योजना बहिन जी कहीं रास्ता तो नहीं भूल गईं। अब तक तो उन्हें यहाँ आ जाना चाहिये था, पर अब तक आईं क्यों नहीं? रास्ते में कहीं उनके साथ कोई ऐसी-वैसी घटना तो नहीं घट गई? गाँव वालों के सब्र का बाँध टूट रहा था। वे अलग-अलग दलों मे बँटकर योजना बहिन जी की तलाश करने के लिये निकल पड़े। कोई रेलवे-स्टेशन, कोई बस-स्टेण्ड और कोई हवाई-अड्डे पर सुबह से शाम तक बैठकर योजना बहिन जी का इंतजार करने लगे। सभी लोग दिन भर वहाँ योजना बहिन जी का इंतजार करते और देर रात गये थके हारे निराश कदमों से घर लौट आते। महीनों तक उनका यही क्रम चला। एक दिन एक बुद्धिजीवी ने उन्हें समझाया – “योजना रेल, बस या हवाई-जहाज पर सवार होकर नहीं आती। बंधुओ! वह तो फाइल पर सवार होकर कछुआ चाल से आती है, उसका यहाँ इंतजार करना व्यर्थ है।“ इसे सुनकर एक ग्रामीण ने अपना माथा पीटते हुये कहा - "धत् तेरे की, अरे! हाँ रे, हम ही लोग कितने बुद्धू हैं। इतनी सी बात हमें अब तक समझ में नहीं आई कि सभी देवी देवताओं के अपने-अपने निजी वाहन होते हैं। जैसे दुर्गा की सवारी शेर, सरस्वती की सवारी हंस, लक्ष्मी जी की सवारी उल्लू, वैसै ही योजना बहिन जी की सवारी फाइल, है ना?” बात समझ में आते ही सब खुश हो गये और “फाइल पे सवार होके, आ जा मोरी मैया” गाते हुये खुशी-खुशी अपने गाँव लौट आये।
वे लगातार पंचायत-प्रमुख और विकास अधिकारी से सम्पर्क बना कर योजना बहिन जी की खोज-खबर लेते रहे। बहुत दिनों तक तो कुछ पता नहीं चला। मगर, अचानक एक दिन गाँव भर में हल्ला मचा कि अकालग्रस्त क्षेत्र के लिये एक योजना आयी है। गाँव भर के लोग योजना बहिन जी को एक नजर देखने के लिये ग्राम पंचायत की ओर दौड़ पड़े क्योंकि राजधानी से वापस लौटने वाले लोगों ने सबको बताया था कि योजना बहुत ही सुन्दर हैं। वह हमारी सभी समस्याओं का हल चुटकी बजाते ही कर देंगी। ग्राम पंचायत के सामने अकाल-पीड़ित लोगों की भारी भीड़ थी। सभी लोग योजना बहिन जी से राहत की उम्मीद लगाये खड़े थे। भीड़़ के बीच एक दुबली-पतली, बीमार सी महिला खड़ी थी। उसका चेहरा निश्तेज था। ऐसा लग रहा था मानो वह स्वयं ही अकाल-पीड़ित हो। पता नहीं कितने दिनों से उसके पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं गया रहा होगा। उसकी आँखें डबडबाई हुई थीं। उसके मन की पीड़ा आँसू के रूप में उसके गालों पर ढुलकने लगी थी। वह कुछ कहना चाहती थी पर भीड़़ और पीड़ा के कारण कुछ कह नहीं पा रही थी।
एक सहृदय ग्रामीण बुजुर्ग ने भीड़ से शांत रहने की अपील की। वहाँ एकत्रित भीड़ कुछ समय के लिये शांत हुई। तब योजना बहिन जी ने बोलना शुरू किया। उसने कहा - "मेरे भाइयों और बहनों! मैं आप लोगों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाऊँगी, इसका मुझे अफसोस है। मैं आप सबको अपनी आप-बीती सुनाती हूँ। हम लोग कई बहनें हैं, हमें आपदाग्रस्त लोगों की सहायता करने के लिये राजधानी से खूब सजा-सँवार कर भेजा जाता है, मगर रास्ते में ही मेरी कई बहनें अपहृत होकर नेताओं की तिजोरियों में कैद हो जाती हैं। कुछ बहनें अधिकारियों की जेबों मे पहुँचकर स्वाहा हो जाती हैं तो कुछ बहनें भ्रष्ट कर्मचारियों के द्वारा लूट ली जाती हैं। कुछ फाइलों मे दबकर ही दम तोड़ देती हैं। मै स्वयं कई लुटेरों से लुटती-पिटती यहाँ तक पहुँची हूँ। मेरी दशा आप देख ही रहे हैं। मेरे बदन पर छीना-झपटी के निशान आपको स्पष्ट दिखलाई पड़ रहे होंगे। अब आप ही बताइये इस दीन-हीन दशा में, मैं आपकी क्या सहायता कर सकती हूँ?“ इतना बताकर वह आँचल में मुँह छिपाकर सुबक-सुबक कर रोने लगी। कुछ ही समय बाद वह लड़़खड़ा कर गिर पड़ी। लोगों ने उसकी नब्ज टटोलकर देखा, उसके हृदय की धड़कन बंद हो चुकी थी। योजना बहिन जी के प्राण पखेरू उड़ चुके थे।
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