अभी कुछ वर्ष पहले
दिल्ली में रहने वाले प्रसिद्ध पत्रकार राजीव पंडिता की एक पुस्तक आई थी ‘हेलो
बस्तर’। इस पुस्तक के नाम से तो यही अनुमान होता है कि यह बस्तर क्षेत्र से जुड़े
सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक आदि विभिन्न पहलुओं के बारे में होगी,
किन्तु पुस्तक पढ़ने के बाद आप पाएंगे कि यह पुस्तक बस्तर नहीं, बस्तर के नक्सलवाद
के इतिहास और वर्तमान का अति-विस्तृत व्याख्यान भर है। कहने भर के लिए बस्तर से जुड़े कुछेक पन्ने दिए गए हैं। यह तो एक
उदाहरण है, अन्यथा दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों के वातानुकूलित कमरों में बैठकर
बस्तर जैसे गहन व जटिलताओं से भरे क्षेत्र पर लिखने वाले अधिकाधिक लेखकों का उसके
प्रति यही दृष्टिकोण है कि बस्तर अर्थात नक्सलवाद। कोई आदिवासी जनजीवन नहीं, कोई
लोक-संस्कृति, कोई इतिहास, कोई परम्परा नहीं..सिर्फ नक्सलवाद। चूंकि, ‘बस्तर’ शब्द
का बाजार लम्बे समय से गर्म रहा है, इसलिए अधिकांश लेखकों, खासकर एक पूर्वाग्रह से ग्रस्त लेखकों द्वारा
यही किया जाता रहा है कि नाम बस्तर से जुड़ा रखो और अन्दर अपने मनगढ़ंत तथ्य,
मनमाफिक बातें परोस दो। दिल्ली-मुंबई के लेखकों द्वारा बस्तर पर किए जा रहे इस क्षलपूर्ण
लेखन को आइना दिखाने तथा बस्तर के अतीत व वर्तमान की एक अनदेखी झाँकी प्रस्तुत
करने का काम मूलतः बस्तर निवासी व पेशे से वैज्ञानिक तथा शौक से लेखक राजीव रंजन
प्रसाद द्वारा अपनी बहुचर्चित औपन्यासिक कृति ‘आमचो बस्तर’ के जरिये किया गया है।
राजीव का यह उपन्यास बस्तर के अतीत व वर्तमान
दोनों की समान्तर पड़ताल करता हुआ बढ़ता है। इसकी कहानी दो धाराओं में है – एक बस्तर
के इतिहास की सम-विषम परिस्थितियों, आदिम के तत्कालीन हालातों को उजागर करती है तो
दूसरी स्वतंत्रता के बाद के बस्तर की त्रासद कथा कहती है। एक तरफ बस्तर के प्राचीन
इतिहास से लेकर आधुनिक युग के इतिहास तक का कथात्मक रूप से समग्र और प्रवाहपूर्ण
वर्णन इस उपन्यास में किया गया है, तो दूसरी तरफ अपने कुछ काल्पनिक पात्रों के
जरिये वर्तमान बस्तर के हालातों की भी अत्यंत बारीक पड़ताल करते हुए आदिमों के
प्रति शासन व मुख्यधारा के समाज की उपेक्षित व संकुचित दृष्टि, परिणामतः मुख्यधारा
से उनके अलग-थलग होने, आदि समस्याओं व त्रासदियों को भी लेखक ने सशक्त
अभिव्यक्ति दी है। ऐसा नहीं है कि इन सबके बीच लेखक ने बस्तर के नक्सलवाद को
अनदेखा किया है, उसके भी विविध पहलुओं को छूने का इस उपन्यास में आवश्यकतानुसार
भरपूर प्रयास किया गया है।
कहानी प्रारंभ होती है नक्सलियों और पुलिस बलों
की एक मुठभेड़ से, जिसमे सोमारू की मृत्यु के पश्चात् यह बुदरू के माध्यम से पूर्वदीप्ति
(फ्लैशबैक) शैली में चली जाती है। फिर इसके मरकाम, शैलेष, शालिनी, बुदरू, सोमारू
आदि पात्रों के आपसी संवादों व उनके जीवन में घटित घटनाक्रमों आदि के जरिये हम
धीरे-धीरे आज के बस्तर के भू-भागों, प्राकृतिक-सम्पदा, सामाजिक-राजनीतिक, सम-विषम
परिस्थितियों से अवगत होते जाते हैं।
दो-ढाई दशकों के भीषण संघर्ष के पश्चात्
कुम्हली गांव से एक आदिम बुदरू जब जगदलपुर महाविद्यालय पहुँचता है और अंग्रेजी न
आने के कारण गलत फॉर्म भर बैठता है तो प्रोफ़ेसर से उसे ये सुनना पड़ता है कि आदिम
प्रगति करना ही नहीं चाहते। अब जब अपने ही देश के लोगों का आदिमों के प्रति ऐसा
दृष्टिकोण है, तो फिर क्या आश्चर्य कि फ़्रांस से आए किसी रीवा और क्रिस्टोफ़ी को
समूचे भारत के सबसे बड़े जलप्रपात चित्रकोट, शानदार अभयारण्य, चूने के पत्थर की
गुफाओं आदि को छोड़ बस्तर में देखने और चित्र लेने के लिए नग्न आदिवासी युवती ही
सूझती है। यह वाकये दिखाते हैं कि हमारे मुख्यधारा के समाज में आदिवासियों के
प्रति कैसी उपेक्षापूर्ण, असंवेदनशील और संकुचित भावना घर की हुई है। एक वाकया
मावली भाटा स्टील प्लांट का है, जिसके लगने की खबर से बुदरू जैसे शिक्षित आदिवासी में रोजगार की एक उम्मीद जगती है, लेकिन पर्यावरण, जमीन और आदिवासी संरक्षण
के अध्ययनहीन नारों व आदिवासी समुदाय के संयमी-असंयमी विरोध के साथ उस परियोजना का
भी अंत हो जाता है। इसी समस्या को दिखाते हुए आदिवासी पात्र मरकाम कहता है, “इसकी
(बस्तर की) चिंता यहाँ रहने वालों से अधिक दिल्ली-मुंबई वालों को है। हमसे बेहतर
हमारी जरूरतें, हमारी तकलीफें और हमारा पर्यावरण वे लोग समझते हैं, जिन्होंने यहाँ
कभी पैर भी नहीं धरा” स्पष्ट है कि देश के महानगरों की बौद्धिक जमात द्वारा
कैसे आदिवासी क्षेत्रों के संरक्षण के नाम पर बस्तर को विकास की मुख्यधारा से दूर
मानव संग्रहालय बनाकर रखने की साज़िश की जाती रही है और अब भी की जा रही है।
कहानी की दूसरी धारा बस्तर के प्राचीन व आधुनिक
इतिहास की है, जिसके अंतर्गत नल-वंशीय भवदत्त वर्मन से लेकर काकतीय अन्नमदेव से
होते हुए अंतिम महाराजा प्रवीरचंद भंजदेव तक बस्तर के महाराजाओं के शासन और उस
दौरान की राजनीतिक परिस्थितियों, बस्तर पर शासन के लिए अंग्रेजों के षड्यंत्रों
तथा आदिमों द्वारा अंग्रेजों का ताकत भर विद्रोह, भूमकाल,,,आदि के वर्णन के साथ-साथ
आदिम समाज की कला-संस्कृति, जीवन पद्धति, परम्पराओं आदि का भी बड़े ही सुन्दर, सरस
और यथासंभव सरल ढंग से वर्णन किया गया है। इसमें हम अन्नमदेव, लाल कालिन्द्र्सिंह
जैसे श्रेष्ठ राजा और दीवान के बारे में जानते हैं तो अपने चाचा दलगंजन सिंह की
महत्वाकांक्षा के कारण अशिक्षित रहे भैरमदेव जैसे अंग्रेजों के कठपुतले महाराजा
जिनके शासनकाल में दुर्व्यवस्था, अंग्रेजी अत्याचार व शोषण ने अपनी सारी
पराकाष्ठाएं पार कर दीं और आदिमों को भूमकाल के लिए उठना पड़ा, से भी परिचित होते
हैं। इन्हीं कथाक्रमों में हम आदिवासी लोक-जीवन के एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंग
‘घोटुल’ के विषय में भी जानते हैं, जो न सिर्फ आदिवासी समाज के सामूहिक मनोरंजन-क्रीड़ा-उत्सव
का एक स्थल है, वरन अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष के समय यह आदिवासियों में उस
एकजुटता और संगठन क्षमता का द्योतक भी बनता है, जिसके दम पर तीर-धनुष-टांगी-गड़ासे
धरने वाले नंगे बदन आदिवासी दुनिया पर शासन करने वाली ब्रिटिश हुकूमत और आधुनिक
हथियारों से सुसज्ज उसकी सेना को नाकों चने चबवा देते हैं। पर विडम्बना देखिए कि
वास्तविकता को समझे बिना और तथ्यों के गलत विश्लेषण के जरिये बीबीसी द्वारा दुनिया
में ‘घोटुल’ की बेहद घृणित छवि प्रस्तुत की गई। सवाल यह है कि आखिर कब हम बस्तर और
आदिवासियों के प्रति संवेदनशील होंगे और
उन्हें समझने की कोशिश करेंगे ?
बस्तर के अंतिम महाराजा प्रवीरचंद भंजदेव को
लेकर लेखक कुछ पूर्वाग्रहग्रस्त दिखते हैं। यह सही है कि उनकी हत्या कहीं न कहीं राजनीतिक
साज़िश से प्रेरित थी। पर हमें सिक्के के दूसरे पहलू पर भी विचार करना होगा कि देश
की तत्कालीन परिस्थितियां क्या थीं ? देश आज़ाद हुआ था और सरदार पटेल के प्रयासों
के परिणामस्वरूप जैसे-तैसे बिखरी रियासतों का भारत में विलय किया गया था। ऐसे समय
में बस्तर में प्रवीरचंद की लोकप्रियता को देखते हुए शासन का इस बात के लिए सशंकित
होना कहीं न कहीं स्वाभाविक था कि कहीं
बस्तर हाथ से निकल न जाए। प्रवीरचंद भी अपनी शक्ति के प्रदर्शन की तरफ अधिक आग्रही
रहे, गौर करें तो प्रवीर ‘स्टेटस ऑफ़ सबमिशन’ पर हस्ताक्षर कर चुके थे अर्थात वो
भारत की लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को स्वीकार लिए थे। लेकिन इसके कुछ समय बाद अपने
विधायक पद से इस्तीफा देने के बाद प्रवीर ने बस्तर में अपनी लोकप्रियता का
प्रदर्शन शुरू किया। उन्होंने बस्तर के शासन की जिन खामियों, समस्याओं आदि को
उठाया, वे सब जायज थीं, पर यदि वे यह सब भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा
रहते हुए करते तो अधिक बेहतर रहता। इस व्यवस्था से अलग होकर ये विरोध करना ही कहीं
न कहीं प्रवीर के प्रति शासन की शंका के लिए कारण था। तिसपर वे तो धारा १४४ लगी
होने के बावजूद दशहरे के विशाल जनसमूह के साथ फूल रथ उत्सव में सम्मिलित हुए, यह
अप्रत्यक्षतः शासन को चुनौती देने वाला उनका शक्ति प्रदर्शन था। प्रवीरचंद की
बस्तर में अपार लोकप्रियता थी, अतः यदि वह चाहते तो बस्तर की जनता और सत्ता के बीच
एक सुदृढ़ सेतु का कार्य कर सकते थे..पर जाने क्यों वो तो बाधा बन बैठे। बावजूद इन
सबके प्रवीरचंद जैसे ईमानदार, मेधावी, सजग और जमीन से जुड़े बस्तरिया नायक की जिस
तरह से अपने ही शासन के लोगों द्वारा नृशंस हत्या करवाई गई, वह अंग्रेजी शासन के
दुष्कृत्यों से भी अधिक वीभत्स और घृणित कृत्य था।
बहरहाल, उपन्यास के तत्वों के आधार पर यदि बात
करें तो ‘आमचो बस्तर’ का कथानक अपनी बात कहने में पूरी तरह से सफल है। परिवेश के
दृष्टिकोण से तो कहने ही क्या कि जब लेखक खुद बस्तर के वासी हैं, तो परिवेश का
वर्णन उनके लिए बहुत कठिन नहीं था और इस कारण यह वर्णन अपने पूरे शबाब पर रहा भी है।
संवाद-योजना सहज और सामान्य रही है। हाँ, इसमें एक बात थोड़ी जरूर खटकती है वो ये
कि शैलेष और शालिनी की बातचीत में शालिनी, शैलेष को ‘आप’ क्यों कहती है जबकि शैलेष
उसे ‘तुम’ से संबोधित करता है ? अब यदि तर्क यह है कि कॉलेज में शैलेष शालिनी से
वरिष्ठ है तो जब उनका विवाह हो जाता है, फिर भी उनके बीच यही संबोधन क्यों रहता है
? शैलेष और शालिनी में प्रेम सम्बन्ध है, इस कारण ‘आप’ का संबोधन अजीब और
अव्यावहारिक लगता है। भले लेखक की ऐसी कोई मंशा न हो, पर संबोधन के इस अंतर के लिए
लेखक पर पुरुष-अहं से ग्रस्त होने का सवाल जरूर उठ सकता है।
अब बात यदि इस पुस्तक के तथ्यों की प्रमाणिकता
की करें तो राजीव ने इस उपन्यास के ऐतिहासिक तथ्यों के लिए जिन स्रोतों का प्रयोग
किया है, बस्तरिया इतिहास और भूगोल को जानने-समझने के लिए उनसे उपयुक्त शायद ही
कोई और स्रोत हों। उनकी प्रमुख स्रोत पुस्तके हैं, जिनकी सूची यूँ तो बहुत लम्बी
है, किन्तु इनमे अधिकांशतः बस्तर के अंतिम राजा प्रवीरचंद भंजदेव, ठेठ बस्तरिया
लेखक लाला जगदलपुरी, केदारनाथ नाथ ठाकुर, हीरालाल शुक्ल आदि की पुस्तकें ही हैं। अब
बस्तर के इतिहास के विषय में प्रवीरचंद भंजदेव और लाला जगदलपुरी जैसे लोगों से
अधिक प्रामाणिक बातें और कौन लिख सकता हैं ? पुस्तकों के अतिरिक्त भ्रमण, आदिम
बुजुर्गों से बातचीत आदि भी लेखक के लिए जानकारी
का एक महत्वपूर्ण स्रोत रहे हैं। तात्पर्य यह है कि ‘आमचो बस्तर’ में वर्णित
ऐतिहासिक तथ्यों की प्रमाणिकता पर संदेह का कोई प्रश्न नहीं है।
बहुतायत लोगों द्वारा ‘आमचो बस्तर’ को ऐतिहासिक
दस्तावेज कहा गया है। पर यह सिर्फ ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं है, क्योंकि इसमें जितना
बस्तर के इतिहास पर प्रकाश डाला गया है, उतना ही वर्तमान पर भी। अतः इसको पूर्ण
परिभाषित करने हेतु यह कहना गलत नहीं होगा कि ‘आमचो बस्तर’ बस्तर के अतीत व वर्तमान दोनों की सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक,
भौगोलिक, आदि समग्र परिस्थितियों की एक अनदेखी झाँकी प्रस्तुत करता एक ‘कालजयी
ग्रन्थ’ है।
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