स्कुल की जब होती छुट्टी
ऐसा लगता मानों बगीचे में उड़ रही हों
रंग-बिरंगी तितलियाँ ...
तुतलाहट भरी मीठी बोली से
पुकारती अपने पापा को
पापा ...
ऐसा लगता मानों बगीचे में उड़ रही हों
रंग-बिरंगी तितलियाँ ...
तुतलाहट भरी मीठी बोली से
पुकारती अपने पापा को
पापा ...
संजय वर्मा "दृष्टि" २-५-१९६२ को उज्जैन में जन्मे लेखक है। कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में इनके पत्र और रचनाएँ नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती हैं। आप आकाशवाणी से भी काव्य पाठ कर चुके हैं। इन्हें कई सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका है
इतनी सारी नन्ही रंग -बिरंगी तितलियों में
ढूँढने लग जाती पिता की आँखें
मिलने पर उठा लेते मुझको वे गोद में
तब ऐसा महसूस होता है
मानो दुनिया जीत ली हो
इस तरह रोज जीत लेते हैं मेरे पापा दुनिया।
मेरी हर जिद को पूरी करते है पापा
मैं जिद्दी भी इतनी नहीं हूँ
किन्तु जब मैं रोती हूँ तो
पापा की आँखें रोती हैँ।
सच कहूँ, यदि मैं नहीं होती तो
मेरे पापा क्या जी पाते मेरे बिना...
सोचती हूँ बेटियाँ नहीं होती तो
उनके पापा कैसे जीते होंगे
बेटी के बिना!!!
ढूँढने लग जाती पिता की आँखें
मिलने पर उठा लेते मुझको वे गोद में
तब ऐसा महसूस होता है
मानो दुनिया जीत ली हो
इस तरह रोज जीत लेते हैं मेरे पापा दुनिया।
मेरी हर जिद को पूरी करते है पापा
मैं जिद्दी भी इतनी नहीं हूँ
किन्तु जब मैं रोती हूँ तो
पापा की आँखें रोती हैँ।
सच कहूँ, यदि मैं नहीं होती तो
मेरे पापा क्या जी पाते मेरे बिना...
सोचती हूँ बेटियाँ नहीं होती तो
उनके पापा कैसे जीते होंगे
बेटी के बिना!!!
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