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अंधी दौड़ [लघुकथा] - बलराम अग्रवाल

दो अंधे हैं।

एक की दौड़ पूरब की ओर है। दूसरे की पश्चिम की ओर। दौड़ते दौड़ते वे अक्सर ही एक दूसरे से टकरा जाते हैं।

"देख कर नहीं चल सकता?" पहला बौखला कर चीखता है, "अंधा है क्या?"

"ठीक कहते हो भाई।" दूसरा हवा में उसे टोकते हुए शांत स्वर में  कहता है, "दोनों आँखें फूटी हुई हैं। पर, तेरी तो दोनों आँखें ठीक होंगी। तू तो देख भाल कर चल।"

लगातार चल रहा है यह सिलसिला। आप अच्छी तरह से, दोनों अंधों को जानते हैं। 

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