यूं तो जब से होश संभाला, न जाने कितनी होलियाँ खेली होंगी। पर उन सब में से एक होली मुझे आज तक नहीं भूली। उसे याद कर, आज भी रोमांच से भर जाता हूँ। सन् 1970 की बात है। मसें अभी भीगी ही थीं। जवानी की दहलीज पर खड़ा था। मुरादनगर में हम जहाँ रहते थे, वह सरकारी क्वार्टरों का एक मोहल्ला था। एक लाइन में नौ मकान एक तरफ़ और नौ मकान दूसरी तरफ़ यानी पिछवाड़े में। सभी मकानों के आगे खुली जगह थी जहाँ लोगों ने अपने अपने बाड़े बना रखे थे। उन बाड़ों में अमरूद, आम, केला और बेरी के पेड़ थे और सब्जियों की क्यारियाँ। कुछ ने अपने बाड़ों में किस्म-किस्म के फूल भी बो रखे थे। कुछ ने गाय, भैंस और बकरियां पाल रखी थीं और उनके लिए बाड़े में कच्चे कोठे बना रखे थे। वे क्वार्टर आर्डनेंस फैक्टरी के वर्करों को अलॉट थे जिनमें वे अपने परिवारों के संग रहते थे। वहाँ सभी जातियों के लोग थे। पंजाबी, पंडित, मुसलमान, मेहतर, बिहारी, जुलाहा आदि। हमारा क्वार्टर बिल्कुल कोने का था। मोहल्ले के बीचों-बीच एक सरकारी नल था जिस पर सुबह के समय पानी को लेकर खूब हो-हल्ला और मारा-मारी होती।
बिहार से आये लोगों, जिन्हें हम पुरबिये कहते थे, के घर अधिक थे। उनकी स्त्रियाँ होली से दो दिन पहले से ही भगोने चूल्हों पर चढ़ा देतीं। उनमें टेसू का रंग खौलता रहता। उनका होली खेलने का ढंग दूसरों से जुदा था। होली के दिन वे सफ़ेद धोतियां पहने होतीं और पानी वाले रंग से ही ज्यादा होली खेलती थीं। भगोने, बाल्टियां, लोटे खूब इस्तेमाल होते। वे अक्सर पुरूषों पर चुपके से हमला करतीं और गर्दन पर से कॉलर उठाकर टेसू का गुनगुना रंग उंड़ेल देतीं। वह रंग कपड़ों पर से तो कभी उतरता ही नहीं था, देह से भी कई-कई दिनों तक उतरने का नाम नहीं लेता था। रंगा हुआ पुरुष उनके पीछे भागता और वे कुशल छापामार की तरह भागकर घरों में छिप जातीं। रामप्रसाद की नई नई शादी हुई थी। वह तवे-से काले रंग का था जबकि उसकी बीवी बहुत ही गोरी-चिट्टी और सुडौल देह वाली थी। उसकी बीवी को मैं और मेरी उम्र के सभी लड़के भौजी कहते थे। वह अनपढ़ थी और संतोषी मां का व्रत रखा करती थी। जिस दिन वह व्रत रखती, नहा-धो लेने के बाद मुझे बुला लिया करती। मैं किताब से संतोषी मां की कथा पढ़ता और वह मेरे सामने बैठी बड़े मनोभाव से उस कथा को सुनती रहती। वह मेरी ओर टकटकी लगाए देखती रहती थी। चोर निगाहों से एकाध बार मैं जब उसकी ओर देखता तो वह नज़रें झुका लेती।
उस वर्ष हाईस्कूल के बोर्ड की परीक्षा थी इसलिए मैं होली खेलने में अपना वक्त बरबाद नहीं करना चाहता था। घर का दरवाजा अंदर से बंद करके मैं उस दिन किताब में सिर गड़ाए बैठा था। बाहर से होली के हुड़दंग का शोर बीच-बीच में सुनाई देता तो मेरा ध्यान बँट जाता। बीच बीच में बाहर से दरवाज़ा पीटने के शोर के साथ कई स्त्री स्वर भी कानों में पड़ते रहे, पर मैंने दरवाजा नहीं खोला। दोपहर में जब लगा कि अब सब शांत हो गया है तो मैं बाहर निकला। बाहर वाकई सब शांत था। मैं घर के आगे वाले अपने बाड़े में जा घुसा। धूप थी लेकिन ठंडी हवा भी चल रही थी। मैंने आम के पेड़ के पास दो चारपाइयों को अंग्रेजी के अक्षर ‘एल’ के आकार में खड़ा किया और उन पर चादरें-दरियां डाल दीं ताकि हवा से बचाव हो सके और मैं किसी को दिखाई भी न दूँ।। जमीन पर टाट बिछा मैं आराम से लेट गया और धूप सेंकने लगा। ज्यादा देर नहीं हुई थी कि औरतों के एक झुंड ने मुझे चारों ओर घेर लिया गया। ये सभी मुहल्ले की औरतें थीं। बचकर निकल भागने का उन्होंने मुझे ज़रा भी अवसर ही नहीं दिया। उन सबके चेहरे लाल-हरे-पीले-काले रंगों से पुते पड़े थे और किसी की भी पहचान कर पाना मुश्किल था। ‘कब तक छिप कर बैठोगे बचुवा… आज तो होली है !’ कहती हुई वे सब मुझ पर एक-साथ टूट पड़ी थीं।
वे सब खिलखिलाकर हँस रही थीं और ऐसी-ऐसी मसखरी बातें बोल रही थीं जो तब से पहले मैंने कभी नहीं सुनी थीं। उनके स्वर से ही मैं उन्हें पहचान पा रहा था। भगोनों, बाल्टियों और लोटों में भरा गुनगुना रंग वे मेरी कमीज का कॉलर और पाजामे का नेफा उठा-उठाकर डाले जा रही थीं। मेरे चेहरे पर, पीठ पर, छाती पर गीले रंगों से सने अपने नरम नरम हाथ रगड़ रही थीं। कुछ हाथ तो चिकौटी भी काट रहे थे। उनके चंगुल से भाग निकलने के चक्कर में मेरी कमीज भी फट गई थी। मुझे भूत बनाकर और बुरा हाल करके वे ‘खीं-खीं’ करती हुई वापस भाग गईं; पर एक मूरत अभी भी मेरे सामने खड़ी मुस्करा रही थी। उसके रंगे-पुते चेहरे में से दो आँखे और मोतियों जैसे दांत चमक रहे थे। एकाएक वह तेजी से आगे बढ़ी। मुझे अपनी बांहो में उसने कसकर भींच लिया और मेरे गालों को चूमते हुए बोली, ‘हमका गुलाल नहीं लगाव तुम… ?’ मेरे पास गुलाल नहीं था। मेरी दुविधा भांप उसने छाती में खोंसा हुआ गुलाल का पैकेट निकाल मेरे हाथों में दे दिया। मैंने गुलाल का पूरा पैकेट अपनी हथेलियों पर उंडेला और उसके गालों पर बहुत देर तक मलता रहा… वह हँसती रही… खिलखिलाती रही…। यह मुझसे संतोषी माँ की कथा सुनने वाली भौजी थी ! स्त्री देह की गंध और छुअन का रोमांच क्या होता है — यह जवानी की दहलीज पर खड़े मैंने उस दिन पहली बार अनुभव किया था।
आज भी उस होली को याद करता हूँ तो देह में एक मीठी-सी सिहरन दौड़ जाती है।
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